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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वचन योग 'योगः सर्व विपदल्ली विताने परशुः शित: । - अमूलमंत्र तंत्र च कार्मणं वृत्तिश्रियः ।।' जीता तो पशु के भी होती है, किंतु वह बोलकर अपने विचारों को प्रकट नहीं कर सकता, जबकि मनुष्य अपने अन्तर्मन के विचारों को वाणी द्वारा प्रकट कर सकता है। जैसे देवताओं की संपत्ति अमृत है, वैसे ही मनुष्य की संपत्ति मधुर वाणी है। वाक् शक्ति पाकर्षण का मुख्य केन्द्र है । कई शास्त्रों में वाणी को अग्नि की उपमा भी दी गई है। अग्नि जैसे प्रकाश भी देती है और जला भी सकती है, उसी प्रकार वाणी के सदुपयोग से समाधि प्राप्त होती है, तो दुरुपयोग से लड़ाई-झगड़ा भी होता है । जब आप वैद्य या डाक्टर के पास जाते हैं तो सबसे पहले जिह्वा की परीक्षा होती है । यदि आपकी जीभ साफ नहीं है तो पता लग जाता है को आपका पेट भी साफ नहीं है। जीभ द्वारा शरीर की प्रांतरिक स्थिति का अनुमान किया जा सकता है । संसार की अनेक प्रकार की विपत्तियों के समूह रूपी बेल को काटने के लिये योग तीक्ष्ण कुल्हाड़ी के समान हैं। यह मोक्ष लक्ष्मी का मूल है और मंत्र-तंत्र एवं वशीकरण है। वाणी के पाठ गुण होते हैं- (१) कार्य पतितं, (२) गर्व रहितम, (३) अतुच्छम् (४) धर्म संयुक्तम् (५) निपुणम, (६) स्तोक, (७) पूर्व सकलितम् और (८) मधुरम्ज्ञानी सीमित बोलता है, जबकि अज्ञानी निरर्थक बोलता है। एक शिक्षक ने छात्रों से कहा, "जो लोग दिमागी काम अधिक करते हैं, उनके सिर पर बाल नहीं उगते, वे प्रायः गंजे हो जाते हैं । इस पर एक हाजिर जवाब छात्र बोल पडा, "आप ठीक कह रहे हैं, सर ! इसीलिये तो लड़कियों के मूछ नहीं पाती क्योंकि वे होठों से ही अधिक काम लेती हैं।" शिक्षक ने छात्र की बात को काट दिया, “यह एक पक्षीय आक्षेप है। पुरुषों को भी आजकल मतदान प्रचार के लिये होठों का अधिक For Private And Personal Use Only
SR No.008690
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherBuddhisagarsuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size8 MB
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