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मन योग
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कर सकता है । जैसे (१) अन्य के धन की इच्छा ( २ ) अन्य के विनाश की कामना (३) नास्तिक दृष्टि रखना, ये मानसिक दुष्कर्म हैं । इसके विपरीत पर द्रव्य को मिट्टी के समान समझना, दूसरों पर प्रेमभाव रखना, प्रशस्त भाव रखना, आस्तिकता, सत्य, अहिंसा, मैत्री आदि में श्रद्धा रखना, ये मानसिक सुकृत हैं । झूठ बोलना, चुगली खाना, अपशब्द बोलना, बकवास करना, ये चार वाणी के दुष्कर्म हैं । सत्य बोलना, प्रिय बोलना, गाली गलौज नहीं करना, व्यर्थ बकवास नहीं करना, ये चार वाणी के सत्कर्म हैं । प्राणीघात, चोरी, पर स्त्री गमन, ये तीन काया के दुष्कर्म हैं ।. अहिंसा, अचौर्य, सदाचार ये तीन काया के सत्कर्म हैं ।
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मन के तीन पाप में से एक पाप है नास्तिकता - श्रश्रद्धा । कोई व्यक्ति चाहे धर्मस्थान में न जाता हो या धार्मिक क्रियाएँ न करता हो तो वह नास्तिक नहीं माना जा सकता बशर्ते कि वह सत्यवादी हो प्रामाणिक हो, श्रद्धाशील माना जाता है ।
जैन दर्शन यह कहता है कि मलिन से मलिन कर्म भी संयम - साधना एवं तप से नष्ट हो जाते हैं और जीव शुद्ध स्वरूप को पा लेता है ।
आत्मा वस्तुतः परम ज्योति स्वरूप शुद्ध सच्चिदानन्दमय है, अतः निर्मल भाव-परिणाम से अन्ततः निज स्वरूप प्राप्त कर लेती है ।
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