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चारित्र योग
चौथे कोने पर लिखा था'कंडक्ट इज लाइफ' चारित्र ही जीवन है ।
मनुष्य के शरीर में जीवित रहने के लिये खुन हो, संसार की स्थिति को समझने का ज्ञान भी हो, सत्य की महिमा को भी मानता हो, कि । यदि वह इनका सदुपयोग नहीं करता, तो ऐसा ज्ञान और जानकारी क्या काम आयेगी ? इसी लिये आचरण अर्थात् चारित्र की सर्व प्रथम आवश्यकता है । चारित्र के दो भेद हैं- (१) द्रव्य चारित्र और (२) भाव चारित्र । भाव चारित्र के होने पर भी द्रव्य चारत्र की आवश्यकता तो रहती ही है। दोनों चारित्र मोक्ष के अंग हैं।
शास्त्र में कहा गया है कि एक समय में १०८ मुनि उत्कृष्ट मोक्ष जाते हैं । मात्र भाव चारित्र वाले नहीं किंतु द्रव्य चारित्र वाले, जिन्होंने प्रभु का वेष धारण किया हो ऐसे उत्कृष्ट १०८ मुनि मोक्ष जाते हैं । यहाँ भी कम योग का प्राथमिकता दी गई है।
सम्यक चारित्र के सामान्यतः दो भेद हैं-सर्व विरति और देश विरति । देश-विरति अर्थात् अंशत: व्रत धारण करना और सर्वविरति अर्थात् संपूर्ण पाँच महाव्रतों को धारण करना । देश-विर ति में सामायिक चारित्र की ही प्रधानता है। उसके तीन भेद हैं---(2) सम्यक्त्व सामायिक, (२) श्रुत सामायिक और (३) देश-विरति सामायिक ।
प्रसन्नचंद्र राजर्षि एक क्षण में सातवीं नरक के कर्म बांध लेते हैं, क्योंकि वहाँ उनको कुछ अशुभ विचार आ गये, रौद्र परिणामी बन गये, परन्तु उनको द्रव्य चारित्र था, उन्होंने प्रभु का वेष धारण किया था, मस्तक का लुचन किया था। अत: जैसे ही शस्त्र से घात करने के लिये ऊपर उठाते हैं, उनका हाथ मस्तक पर चला जाता है और लुचन किये हुए मस्तक का स्पर्श उन्हें चारित्र की याद दिला देता है और राजर्षि अपने रौद्र परिणाम का त्याग कर शुद्ध परिणामी बन जाते हैं और केवलज्ञान भी प्राप्त कर लेते हैं। यदि इस समय वे द्रव्य चारित्र में न होते तो अवश्य ही भाव चारित्र से भी नीचे गिर जाते ।
चारित्र के बिना पंडित वीर्य की प्राप्ति नहीं होती। पंडित वीर्य का प्रारंभ ही छठे गुरगस्थानक से अर्थात् चारित्र के प्रारंभ से होता है ।
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