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ब्रह्मचर्य
करने से पेट भर जाता है किंतु एक इच्छा के जागृत होने पर उसे पूरी करने जाओ तो अन्य १०० इच्छाएं जागृत हो जाती है, यह मन का स्वभाव है ।
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इस व्रत की प्रशंसा में कवि कहता है
'चो व्रत हवे वरवु दीपक सम जस ज्योत । केवल दीपक कारणे, दीपक नो उद्योत || '
अब मैं चौथे ब्रह्मचर्य व्रत का वर्णन करता हूं। इस व्रत की ज्योति दीपक के समान है। भाव दीपक रूपी केवल ज्ञान के लिये द्रव्य दीपक रूपी केवल ज्ञान के लिये द्रव्य दीपक द्वारा पूजा करता हूँ। यह वीर विजयजी म.सा. ने ब्रह्मचर्य व्रत पूजा में लिखा है ।
ए व्रत लग में दीवो, मेरे प्यारे ए व्रत जग में दीवो । वैतरणी नी वेदना मांहे, व्रत भांगे ते पैसे ।
विरती ने प्रणाम करी ने, इन्द्र समा में बेसे । '
जो प्राणी ब्रह्मचर्य व्रत की विराधना करता है, वह नरक की वैतरणी नदी में दुःख भोगता है । देवताओं का स्वामी इन्द्र भी 'नमो विरइए' कहकर पहले विरति को प्रणाम करता है, फिर सभा में अपने आसन पर बैठता है ।
दश में अंग आगम में शीलव्रत को ३२ उपमाएं दी गई है । लोक दृष्टि से ब्रह्मचर्य का प्रारम्भ जब बालक ७ वर्ष का हो, तब से माना जाता है | परंतु विचार करने पर मालूम होता है कि बालक जब माता के गर्भ में होता है तभी से ब्रह्मचर्य का प्रारंभ हो जाता है । आज के बोये हुए अनाज का अंकुर तीन दिन बाद दिखाई देता है इससे सिद्ध होता है कि बीज के अंकुरित होने की क्रिया तो चालू थी पर वह प्रदृश्य थी । नाखून काटने के ५-७ दिन बाद अमुक अश में नये नाखून दिखाई देते हैं, अतः नाखून प्रति क्षण थोड़े थोड़े बढते हैं । बीज रूप से अथवा कारण रूप से तो वस्तुओं का प्रारम्भ कभी का हो गया होता है, किंतु अमुक समय तक अमुक परिमाण में वह अदृश्य रूप से ही होता है । ब्रह्मचर्य के भी मूलभूत संस्कार गर्भावस्था से ही प्रारम्भ हो जाते हैं । ब्रह्नचर्य प्राणी की शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति का केन्द्र है । जिस प्रकार बिजलीघर में शक्ति केन्द्रित रहती है और वहां से अन्य स्थानों पर पहुँचाई जाती है उसी
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