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(अर्हत) अरिहंत पद
नमो दुर्वार रागादि वैरिवार निवारिणे । अईते योगिनाथाय महावीराय तायिने ।।
शास्त्रकार ने इस श्लोक में भगवान् महावीर प्रभु के नाम के साथ पांच विशेषणों का युक्ति तथा बुद्धि से परिपूर्ण संयोजन किया है । उसमें से एक विशेषण है 'अईते' । अईन शब्द मुख्यतः योग्यता वाचक है । जैन शासन में गुरण संपन्न योग्य व्यक्ति को ही नमस्कार किया है। नवकार मत्र या नमस्कार मंत्र के पाँचों पदों में किसी भी व्यक्ति विशेष को नमस्. कार नहीं किया गया है, बल्कि अमुक-अमु गुरणों से युक्त व्यक्ति को नमस्कार किया गया है । कहा भी है कि
'गुणा: पूजास्थान गुरिणषु न च लिंगंन चवयः ।'
गुण ही पूज्य हैं, वेष या अवस्था पूज्य नहीं । जैन धर्म के अनुसार कोई भी जैन या जैनेतर साधु बिना किसी नाम के भेद के गुरगों के प्राधार पर पूज्य हो सकता है।
अ+र+ह मिलकर अई पद बनता है। इस संधि विच्छेद के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश जैसी शक्तियों का भी अंई पद में समावेश हो जाता है। ब्रह्मा का ब्रह्मत्व (रचना प्रवृत्ति), विष्णु की व्यापकता और महेश की मंगलमयता अरिहंत तीर्थ कर ईश्वर में पूर्णत: घटित होती है। भगवान् महावीर अहत् हैं क्योंकि वे मंगलमय हैं, वे अरहंत हैं क्योंकि उन्होंने काम को समाप्त कर दिया है और वे अरिहंत भी हैं क्योंकि उन्होंने काम को समाप्त कर दिया है और वे अरिहंत भी हैं क्योंकि उन्होंने समस्त अंतरंग शत्रों का नाश कर दिया है। वे अरुहन्त भी हैं क्योंकि कर्मबीज को दहन कर देने के कारण वे पुन: उत्पन्न नहीं होते । इसीलिये 'नमो अरिहंताणं' के स्थान पर कुछ ग्रन्थों में 'नमो प्ररहंतारा' और 'नमो अरुहंतारणं का उल्लेख भी मिलता है। अर्हत् याने योग्य होना ही पूज्य होना है। जो योग्य होता है वह ही पूज्य होता है। इसीलिये भगवान महावीर पूजा प्रतिशय से युक्त हैं। चराचर प्राणियों सहित समस्त प्रकृति उनको वन्दन
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