________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२८ ]
रागादि
एक संत बाजार से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा एक दुकान पर किराणा स्टोर लिखा था । संत ने दूकानदार से इशारे से पूछा कि "इस टीन में क्या है ?" दूकानदार ने कहा, "शक्कर" फिर इसी प्रकार अन्य २-३ टीन के बारे में भी पूछा। दूकानदार ने जिस टीन में जो वस्तु थी उसका नाम बताया "घी, गुड़, तेल, चावल आदि । “अन्त में एक ऐसे टीन की तरफ इशारा किया जिसमें कुछ नहीं था। दुकानदार ने कहा, "इसमें तो रामनाम है ।" संत ने उस टीन को खोलकर देखा और प्रसन्न होकर बोला, "मुझे अाज जीवन का महान सत्य मिल गया। खाली पात्र में ही राम का निवास होता है। राम द्वेष रहित हृदय में ही राम रहते हैं । कहा भी है
बज्रबंध जस बले, टूटे स्नेह तंतुथी।' जो बज्र के समान कठोर बंधन है और श्रृंखला की तरह बंधे हुए बंधन को तोड़ना बहुत कठिन है। आप जिस पर राग करते हैं और जो आप पर राग करता है, यह दोनों राग अनित्य है। अनित्य में नित्य को पाने की बुद्धि ही जीव को दुःखी करती है । हे जीव ! तू अपने स्वरूप से अन्य सब से भिन्न है। स्वजनों से, परिजनों से वैभव से और स्वयं अपने शरीर से भी भिन्न है, तब फिर क्यों इन सबके लिये दुःखी होता है ? अतः हे जीव ! तू तेरे स्वरूप का ही रागो बन । प्रात्म रूप का, आत्मा की स्वभाव दशा का रागी बन । राग द्वेष के बंधनों को तोड़ने की प्रावश्यकता है कहा भी है -
'देहि बघणेहि, राग बंधजं दोस बंधणं ।' बंधन कितने प्रकार के हैं ? वैसे तो १५ प्रकार के बंधन हैं पर उन में राग द्वेष मुख्य हैं।
__ पहले से चौथे गुणस्थान स्थित जीव के पाँच बंधन होते हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ।
६ ठे और ७ वें गुणस्थान स्थित जीव को प्रमाद, कषाय और योग के बंधन होते हैं।
८ वें से १२ वें गुणस्थान स्थित जीव को कषाय और योग के दो बंधन होते हैं।
१३ वें गुणस्थान स्थित जीव को मात्र योग का एक बंधन होता है । १४ वें गुणस्थान स्थित जीव बंधन रहित होकर मुक्त होता है ।
For Private And Personal Use Only