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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० ] (महत) अरिहंत पद करती है। मार्ग के वृक्ष भी झुक कर उनको नमन करते हैं । तीर्थ कर के दर्शन मात्र से ही काँटों का तीक्ष्ण भाग नीचे झुक जाता है । सूर्य, चंद्र, तारे तथा समस्त ग्रह प्रभु को नमस्कार करते हैं । नर, नरपति और इन्द्र शासक भी प्रभु को अपना स्वामी मानते हैं। भगवान महावीर की योग्यता बाह्म नहीं, प्रांतरिक है, अतः अलौकिक है । अरिहंत किसे कहते हैं ? इस सबंध में शास्त्र में निम्न गाथा है-- 'उत्पन्न सन्नारण महोमयाणं, सप्पाडि हेरासरण संठियारणं । सद्देशणाणंदिय सज्जणारणं नमोनमो होउ सया जिणाण ।' जिनेश्वर भगवान को हमारा बारंबार नमस्कार हो । नमो नमो दो बार क्यों कहा गया ? एक ही शब्द का बार बार उच्चारण पुरुउक्ति दोष कहलाता है। फिर भी उन्हें पुन: पुन नमस्कार किया गया है, यह तीर्थ करों की विशेषता है । आज कहेंगे कि जिनेश्वर भगवान को ही नमस्कार क्यों किया गया ? दूसरों को क्यों नहीं किया गया ? तो उत्तर है 'उत्पन्न सन्नाण महोमयारणं' क्योकि जिनेश्वर भगवान सम्यग् ज्ञान रूपी तेज को उत्पन्न करने वाले केवल ज्ञान युक्त हैं। केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद प्रभु क्या करते हैं ? _ 'सप्पाडि हेरासण संठियांण' पाठ महा प्रतिहार्य युक्त सिंहासन पर बिराजित होते हैं, और _ 'सद्द शरणाणं दिय सज्जणाण' वाणी के ३५ गुण युक्त उपदेश से सज्जन पुरुषों को प्रानन्द देते है । ऐसे जिनेश्वर भगवान को मेरा बारबार नमस्कार । अट्टविहपिय कम्मं अरिमूय होइ सयल जीवाणं । तं कम्ममरिहंता अरिहंता तेरण वुज्वन्ति ।। सभी जीवों के लिये जो पाठ कर्म शत्रु के समान है उन कर्म शत्रुनों को मारने से प्रात्म को अरि-हंत कहा जाता है । For Private And Personal Use Only
SR No.008690
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherBuddhisagarsuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size8 MB
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