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कर्म पुरुषार्थ
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(२) बद्धकर्म : सभी सुइयों को धागे से बाँधने के बाद जब उनके बंधन को छोड़ दिया जाय तब वे सुइयें अलग-अलग हो जाती हैं । मृगावती साध्वी और प्रतिमुक्ता मुनि के पापों के समान होते है | चंदनबालाजी ने मृगावती साध्वी को ठपका दिया कि साध्वी को रात्रि में उपाश्रय से बाहर नहीं रहना चाहिये । मृगावतीजी इरियावहिया करती करती अपने अपराधों को त्रिकरण से क्षमाने लगी । क्षमाते क्षमाते ही केवलज्ञान केवलदर्शन हो गया । मृगावतीजी का बंधा हुआ कर्म बद्धकर्म समझना चाहिये । प्रतिमुक्ता मुनि कच्चे पानी में अपनी पात्री रखकर उसे नाव की तरह तैराने लगे । किंतु आलोचना करते करते शुभध्यान से उन्होंने भी केवलज्ञान प्राप्त किया क्योंकि उनका कर्म बद्धकर्म था । उनकी नौका तो सचमुच इस भवसागर को पार कर गई ।
(३) निघत्त कर्म : धागे में बधी हुई सुइयें यदि लंबे समय तक पड़ी रहे तो उनमें जंग लग जायेगा और वे एक दूसरी से चिपक जायेगी । तेल लगाने पर, श्राग में तपाने पर या पत्थर पर घिसने से वे फिर अलग हो जायेंगी । इसी प्रकार जो कर्म अहंभाव से या इन्द्रियों के रसपूर्वक जानबूझ कर उपार्जित किया हो और लंबे समय तक प्रालोचना नहीं करने से जीव प्रदेश के साथ गहरे बंध गये हों, वे कर्म तीव्र गर्हा, गुरु के समक्ष छमासी आदि घोर तप द्वारा क्षय हो जाते हैं, जैसे सिद्धसेनदिवाकरसूरि के हुए थे । उनके पाप कर्म के बंध को जानकर गुरु महाराज ने सिद्धिसेनसूरि को १२ वर्ष का पारांचित' प्रायश्चित्त दिया । उन्होंने भी १२ वर्षं तक वेष को गुप्त रख कर चरित्र पाला । उज्जैन में अवंति पार्श्वनाथ तीर्थ प्रकट किया । विक्रमादित्य राजा को प्रतिबोधित कर जैन धर्म का डंका बजाया और विक्रमादित्य से 'सर्वज्ञ पुत्र' का बिरुद प्राप्त किया । ( ४ ) निकाचित कर्म : जैसे सुइयों के समूह को अग्नि में जलाकर नई सुइयें बनायी जाय । जीव ने हेतुपूर्वक पाप किया हो और कहता हो कि "मैंने यह ठीक किया है, भविष्य में भी ऐसा ही करूंगा" इस प्रकार बार बार अनुमोदना करते हुए जीव ने गाढे कर्मों को बांधा हो, जिनका गुरु महाराज द्वारा दिये गये घोर तप से भी क्षय नहीं होता हो, उन्हें निकाचित पापकर्म कहा जाता है । जैसे श्रेणिक राजा ने सगर्भा हरिणी को जानबूझ कर बारण मारा श्रौर फिर उसकी अनुमोदना भी की जिससे निकाचित कर्म बंधे । बाद में अनाथि मुनि से समकित प्राप्त किया । भविष्य में तीर्थ कर होंगे ।
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