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नम योग
'तत्स कि चञ्चल स्वान्तो, भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा विषीदसी | निथ स्व सन्निधावेव, स्थिरता दर्शयिष्यति ।।'
हे मन ! चंचल बनकर बार बार खिन्न क्यों होता है । स्थिर होने पर ही तुझे तेरी संपत्ति दिखाई देगी । वर्तमान काल में मानव मन और वायु दोनों दूषित हो रहे हैं। वायु का दूषण भौतिक जीवन को तथा मन का दूषरण मौलिक जीवन को दूषित कर रहे हैं । मन चंचल है और अनेक वासनाओं से घिरा हुआ है। विद्युत करंट से भी ज्यादा करंट मन में है । युद्ध का प्रारम्भ मनुष्य के मन से ही होता है तथा युद्ध की समाप्ति भी मनुष्य के मत से ही होती है ।
योग का सारा आधार मन पर ही है । जब तक आप मन की श्रत्रस्थानों को नहीं पहिचानते तब तक आप योग में प्रवेश नहीं कर सकते मन की अवस्थाएँ :
( १ ) विक्षिप्त मन: - जिसको चपलता ही इष्ट है ।
(२) यातायात मनः श्राना और जाना, क्षरण में स्थिरता, क्षरण में चंचलता । ये दोनों मन की अवस्थाएं प्रारंभिक अभ्यासी को होती है । (३) श्लिष्ट मन: - स्थिरता और आनन्द पूर्ण स्थिति । (४) सुलीन मन:- निश्चय और परमानंदी दशा वाला ।
श्राप लक्ष्मी को वश में करना तो जानते हैं, पर व्या आप मन को भी वश में करना जानते हैं ? गोदरेज की मजबूत तिजोरी पर मजबूत ताला डाल कर, फिर उसमें बिजली का करंट लगाकर दरवाजे पर शिकारी कुत्ता रख कर, बाहर बन्दूकधारी रक्षक को नियुक्त कर आप लक्ष्मी को वश में कर सकेंगे, किंतु मन को वश में करना आपके हाथ की बात नहीं है । क्योंकि प्राप मन के वश में है, मन आपके वश में नहीं है ।
'मंत्राधीनं च दैवतम्' देवता मंत्रों की अधीनता स्वीकार करते हैं । मन्त्र ध्वनि रूप भिन्न भिन्न ध्वनियें भिन्न भिन्न शक्ति रूप है । इसी कारण देवता मंत्रमय ही है । बोसवीं शताब्दो में मंत्रों का परामर्श देना असामान्य सा लगता है ।
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