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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ज्ञान योग [ ७७ सच्चिदानंदघन स्थिति प्राप्त करनी है । सत् + चित् + आनंद + घन । सत्य ग्रर्थात् शाश्वत, चित् अर्थात् चेतन, आनन्द अर्थात् सहज सुख स्वरूप और घन प्रर्थात् समूह । प्रात्मासत् चित् प्रानन्द है और समूह रूप है । आत्मा ही सबसे बड़ा है, इससे बड़ा कोई नहीं । जैसे दीपक मरिण आदि का प्रकाश सूर्य के प्रकाश में समा जाते हैं क्योंकि सूर्य का प्रकाश सबसे अधिक है । किंतु उसकी भी एक सीमा है । सूर्य ४७,८६३ योजन क्षेत्र को ही प्रकाशित कर सकता है, किंतु आत्मज्ञान तो १४ राजलोक को, यहाँ तक कि लोकालोक को भी प्रकाशित करता है | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३,८१,१२,६७० मरण का एक गोला यदि उपर से गिराया जाये तो जमीन पर आते उसे छ: माह, छः पक्ष, छः दिन, छः प्रहर, छः घड़ी, छः पल लगेंगे और घर्षण से गेंद जितना छोटा हो जायेगा। इतनी दूरी को एक राजलोक कहते हैं, ऐसे १४ राजलोक ऊँचे एवं लंबाई × चौड़ाई x ऊँचाई का घनफल ३४३ राजलोक जितने क्षेत्र को प्रात्मा का ज्ञान जानता है । इस ग्रात्मज्ञान के प्रकाश के समक्ष सूर्य का प्रकाश कितना तुच्छ है ? जब प्रात्मज्ञान इतना विशाल है तो वह प्रकट क्यों नहीं होता ? । मान लीजिये कि बहुत तेज गया है, त्राहि त्राहि मची हुई है लगाकर पानी प्राप्त कर लिया। नहीं था तो कहाँ से आया ? पृथ्वी के नीचे था इसलिये दिखाई नहीं दिया। श्रात्मज्ञान यही बात है । वह भी कर्म दल के नीचे दबा हुआ है। कर्म दल हट जाते हैं तब ज्ञान प्रकाशित हो जाता है । गर्मी पड़ रही है, पानी चारों ओर सूख इंजीनियरों ने पाताल फोड़ ट्यूबवेल अब बताइये, पानी था या नहीं ? यदि था तो पहले क्यों नहीं दिखाई दिया ? के विषय में भी सद्प्रयास से जब भगवान् ने जहां जहां हिंसा का निषेध किया है, वहां वहां परिग्रह का भी निषेध किया है, क्योंकि प्रायः परिग्रह के लिये हिंसा का श्राचरण किया जाता है । परिग्रह मनुष्य को आंतरिक चेतना की एक शुद्धवृत्ति है । जब चेतना बाहरी वस्तुत्रों से प्रसक्ति, मूर्छा या ममत्व उत्पन्न करती है, तब परिग्रह होते हैं । वस्तुएँ परिग्रह नहीं हैं, परन्तु परिग्रह मनुष्य की भावना में है । एक महात्मा एक अनजाने गांव में संध्या के समय पहुँच गए । रात को वहां रहना था। एक हलवाई अपनी दुकान बंद कर रहा था । महात्मा For Private And Personal Use Only
SR No.008690
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherBuddhisagarsuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size8 MB
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