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ज्ञान योग
दूसरी बात तुम्हारे कंधे पर और तीसरी बात सामने के वृक्ष पर बैठ कर कहूंगी । तुम्हारी इच्छा हो तो सुनना।'
भगवान् की आज्ञा है, हे मुनि ! तुझे स्त्री की ओर दृष्टि भी नहीं करनी चाहिये। साथ में दूसरी जगह यह भी कहा गया है कि मुनि स्त्री को सिर से पाँव तक देखे । यह परस्पर विरोधी बात क्यों ? गुरु ने समझाया, 'स्त्री को विकार भाव से नहीं देखे, परन्तु आहार पानी लेने से पहले अच्छी तरह देख लेना चाहिये कि उसके मस्तक में फल या वेरणी तो नहीं है, हाथ कच्चे पानी से गीले तो नहीं हैं ? इसलिये स्त्री को सिर से पाँव तक देखने को कहा है। 'गुरणेहिं साहु अगणेहिं साहु' गुणों से युक्त हो तो साधु और गुरणों से मुक्त हो तो भी साधु । सम्यगज्ञान दर्शन चारित्र से युक्त हो तो साधु और काम गुणों से युक्त हो तो भी साधु । हे राजन् ! ऐसे परस्पर विरोधी शास्त्रवचन हो, गुरुगम्य भी हो, तो भी स्वयं का अनुभव जो कहता हो वही करना चाहिये।' इतना कह कर खडम कडी उड़ गई और हंसने लगा। जब राजा ने हंसने का कारण पूछा, तो बोली, "मेरे मस्तक में दो तोले के मोती थे, मुझे जिन्दा नहीं छोड़ होती तो मिल जाते ।" राजा ने बन्दूक से निशाना साधा, तभी खडमकडी बोली, "राजन् ! अभी ही भूल गये। जब मैं तुम्हारे हाथ में थी तब मेरा वजन दो तोले से अधिक था क्या ? तुम्हारा अनुभव क्या कहता है।" शास्त्र ज्ञान का साधन है, गुरु सारभूत वस्तु हमें बताते हैं। पुण्यादय हो तो वाणी सुनने को मिलती है । सुनकर भी उसे अनुभव से जाँचना पड़ता है । शास्त्र कहता है : ----
_ 'अप्पा चेव दमेयत्रो ।' सबसे प्रथम अपनी प्रात्मा का ही दमन करना चाहिये अर्थात् अात्मविजय करनी चाहिये । आप पूछेगे प्रात्मा कोई किला है या शत्रु है कि उस पर विजय प्राप्त करें ? आत्मा तो आप स्वयं ही हैं, फिर उस पर विजय प्राप्त करने से क्या लाभ ? जो आत्मा की हानि कर रहे हैं, जो प्रात्मगुरगों को ढक रहे हैं, उन सबको दूर कर प्रात्मा के वास्तविक स्वरूप को प्रकट करना ही प्रात्म-विजय है ।
जैसे एक फौलादी स्टील की तलवार की धार पर भी बहुत दिनों से पड़ी रहने के कारण जंग लग गया है, उसे साफ करने पर वह चमकने लगेगी, वैसे ही प्रात्मा के साथ जो कर्म मल चिपका हुआ है, उसे दूर करके
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