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ज्ञान योग
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अवधिज्ञपन हैं. उसी प्रकार उनके प्रतिपक्षी मतिप्रज्ञान, श्रतअज्ञान और विभंग ज्ञान भी हैं, ये तीनों ज्ञान चाहे जितने विशाल क्यों न हों, फिर भी अज्ञान ही माने गये हैं।
ज्ञानं श्रेष्ठ गुणो जीवे मोक्ष मार्ग प्रवर्तकः । भव्याधुत्तारणे पोतः शृगार सिद्धि सद्भनः ।।
जीव का मुख्य गुण यदि कोई है तो वह ज्ञान ही है। दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व आदि गुण भी जीव के हैं, किंतु ज्ञान उसका मुख्य गुण है। जैसे स्वर्ण में जड़ता, नरमाइ और पीलापन है, वही पीतल मे भी है । किंतु स्वर्ण में कष् गुण श्रेष्ठ है। इसी प्रकार जोव में ज्ञान गुरण श्रेष्ठ है ।
ससार में जन्म लेने वाले सभी जीते है, किंतु अज्ञानी पुद्गल प्रधान बनकर जीता और ज्ञानी प्रात्मप्रधान बनकर जीता है । अज्ञानी दो पैसे के लिये भयंकर कषायी बन जाता है, जबकि ज्ञानी समता रखता है । अज्ञानी का जीवन विष्टा भक्षण करते सूअर जैसा है, जबकि ज्ञानी का जीवन मानसरोवर में मोती चुगते हंस जैसा है।
उपयोग जीव का लक्षण है अर्थात् आत्मा की पहिचान ही चेतना है । सिद्ध हो या ससारी ज्ञानोपयोग प्रात्मा का असाधारण गुरण है । प्रात्मा के अतिरिक्त उपयोग कहीं नहीं मिलता । विश्व के सभी जीव परमात्म स्वरूप हैं, क्योंकि मूल स्वभाव में तो अनत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अनंतवीर्य वर्तमान में भो विद्यमान हैं, परन्तु जैसे जोव अनादि है वैसे ही कम संयोग भी अनादि है। कर्म संयोग के कारण ही पात्मिक गुरण दबे हुए हैं । फिर भी आत्मा में ज्ञान का प्रांशिक अंश तो सदा खुला रहता ही है। चाहे घनघोर बादलों में सूर्य छिपा हो, हाथ से हाथ न दिखता हो, फिर भी आपको यह तो मालूम हो ही जाता है कि दिन है या रात ?
एक राजा जंगल में भूखा, प्यासा, थका हा शिकार की खोज में भटक रहा था, पर उसके हाथ शिकार नहीं आया। अचानक एक खडमकडी राजा के हाथ में प्रा गई। राजा उसे चुटकी में मसलने लगा तो खडमकडी बोली "राजन ! मेरे पेशाब का छींटा लगने से शरीर में फफोले हो जाते हैं। मुझे खाने से शरीर में जलन होगी। मुझे जिन्दा छोड़ दो तो मैं तुम्हें तीन बात कहूंगी। पहली बात हथेली पर बैठ कर कहूंगी ।
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