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नियतिवाद पुरुषार्थ
पीछे कौन-सा कर्म छिपा है ? अग्नि की ज्वाला ऊपर ही जाती है, इसके पीछे कौन-सा कर्म छिपा है ? यहां कर्म नहीं, किंतु नियति (भाविभाव) ही है। कर्म स्वयं भी नियति के अधीन है। तीर्थकर भगवान् स्वयं अपने ज्ञान से देखते हैं कि अमुक व्यक्ति अमुक समय क्रोध करेगा, कषाय मोहनीय का वध करेगा। तीर्थ कर किस आधार पर यह सब देखते हैं ? भाविभाव (नियति) के आधार पर । अमुक प्रात्मा अमुक समय कर्म से विमुक्त बनेगी । नये जन्म के लिये तो कर्म को आधार बनाया जा सकता है, किंतु कर्म विमुक्त बनने के लिये हम किसको आधार मानेंगे। उत्तर स्पष्ट है, होनहार बलवान !!
पाप कहेंगे कि जब विश्व की सब व्यवस्था नियत है तो फिर पुरुषार्थ को स्थान ही कहाँ है ? जब सभी को अपने भाग्यानुसार सब कुछ मिलेगा ही तब पुरुषार्थ कौन करेगा ? बात यह है कि जैसे कर्म नियत है वैसे ही पुरुषार्थ भी नियत है । अमुक समय कार्य होने वाला है यह तो निश्चित है, पर इसमें आपको अमुक पुरुषार्थ तो करना ही पड़ेगा। पुरुषार्थ करोगे तब ही आपको सफलता मिलेगी । जब सफलता नहीं मिलती, तब निराशा पाकर घेर लेती है, तब नियतिवाद (भाविभाव) एक संदेश देता है, "यह काम तो इसी प्रकार होने वाला था फिर शक किस बात का ?" हमारा काम तो पुरुषार्थ करना है, फिर भाग्य में जो लिखा है वह तो होकर रहेगा। अग्रे वर्तमान जोगी हमें वर्तमान में रहना है, भविष्य में नहीं । आगे जो होगा, वह देखा जायगा, अभी तो हमें परिश्रम करना ही है, फल तो भविष्य के हाथ है, भाग्य के या कहिये नियति के हाथ है ।
जिनेन्द्र-मार्ग की प्रतीति किये बिना यह जीव जन्म, जरा, मरण, रोग और भय से परिपूर्ण भवअटवी में चिरकाल से घूम रहा है।
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