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पांच महाव्रत की पांच भावना भावनाभिर्भावितानि पंचभिः पंचभिः क्रमात् । महाव्रतानि नो कस्य साधयन्त्य व्ययं पदम् ।।'
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि ने योगशास्त्र में चारित्र योग की परिभाषा करने के बाद उनके भेदों का निपरूण किया है। उन्होंने चारित्र के पाँच भेद बताये हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इन महाव्रतों को दृढ करने के लिये प्रत्येक महाव्रत की ५-५ भावनाएं होती हैं। कहा भी है
'भावना भवनाशिनी, भावना भववर्धनी ।' जैसी आपकी भावना होगी, वैसा ही फल मिलेगा। भावना से संसार-वृद्धि भी हो सकती है और संसार-भ्रमण का नाश भी हो सकता है।
उदायी राजा विचार करता है कि भगवान् स्वयं मेरे पास पधारें और उपदेश दें तो मैं दीक्षा ग्रहण करू । उसकी भावना सफल हुई ।
मुनिसुव्रत भगवान् के पूर्व भव का मित्र अश्वमेध यज्ञ में होमा जा रहा था, वह सोच रहा था कि भगवान् स्वयं पधार कर मेरी रक्षा करें, ऊसकी भावना भी फलवती हुई ।
उदायनमंत्री युद्ध में सोचता है कि अंतिम समय मुनि के दर्शन हो जाय तो अच्छा । भाट चारण ने मुनि का वेष धारण कर उसे दर्शन दिये और उसकी भावना सफल हुई ।
इलायची पुत्र रस्सो पर नृत्य करते हुए सोचता है कि राजा की दृष्टि मेरी पत्नि पर है । एक ओर पद्मिनी जैसी सुदर स्त्री मुनि को मोदक बहराती है, पर मुनि उसके सामने आँख उठाकर भी नहीं देखते । मोदक लेने से मना करते हैं। राजा मेरी घात चाहता है, ऐसा विचारते विचारते ही उनका कार्य सिद्ध हो जाता है ।
चिलाती पुत्र एक हाथ में सुषमा का मस्तक और दूसरे हाथ में
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