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दर्शन योग
'कोरडू' या अपक्व मूग कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जिन मूगों में पकने की योग्यता थी वे पक गये, किंतु जिन में योग्यता नहीं थी वे अपक्व रह गये । इसी प्रकार जिन आत्माओं में मोक्ष जाने की योग्यता होती है, वे ही मोक्ष जाती हैं और उन्हें भव्य कहा जाता है। जिस प्रकार तालाब और सड़क की मिट्टी समान होने पर भी तालाब की मिट्टी ही घड़ा बनाने के काम आती है, सड़क की मिट्टी से घड़ा नहीं बनता । भैंस और ऊंटनी का दूध रंग में समान होते हुए भी एक में दही बनने की शक्ति है. एक में नहीं । इसी प्रकार भव्य और अभव्य जीव समान होने पर भी एक में मोक्ष जाने की योग्यता है, एक में नहीं ।
प्रत्येक वस्तु में अपनी अपनी योग्यता स्वभाव से ही होती है और स्वभाव के विषय में यह प्रश्न नहीं उठाया जा सकता कि ऐसा क्यों होता है ? अग्नि गर्म क्यों है ? पानी ठंडा क्यों है ? दूध सफेद क्यों है ? धुपा ऊपर ही क्यों उठता है ? क्योंकि इनका यह स्वभाव ही है।
भव्य जीव भी दो प्रकार के होते हैं-भव्य और जातिभव्य । इनमें से जातिभव्य स्वयंभूरमरण समुद्रतल की मिट्टी के समान होते हैं, जिनमें सामग्री प्राप्ति का सामर्थ्य नहीं होता, अतः वे मोक्ष जाते नहीं, गये नहीं जायेंगे नहीं । आप कहेंगे कि भव्य जीव तो सभी मोक्ष में जायेंगे ही। हाँ, सभी मोक्ष जायेंगे, यह तो निश्चित है, किन्तु जिनकी भव-स्थिति परिपक्व हो गई है, वे ही मोक्ष जाते हैं। सभी भव्य जीवों में मोक्ष जाने की योग्यता होने पर भी, कोई तीर्थ कर बन, कोई गणधर बन और कोई सामान्य केवली बन मोक्ष जाते हैं । योग्यता मात्र से वस्तु में फल प्रकट नहीं होता, उसके साथ अन्य सामग्री और पुरुषार्थ मिलने पर हो फन प्रकट होता है । मिट्टी में घड़ा बनने की योग्यता तो है, किंतु चाक नहीं, पुरुषार्थी कुम्हार नहीं, तो घड़ा बन सकता है क्या ? भविष्य में महान् बनने वाले छोटे बालक को भी यदि पढ़ने की सामग्री न मिले और वह पढ़ने का पुरुषार्थ ही न करे तो क्या उस में विद्वता का फल प्रकट होगा ? नहीं होगा । इसी प्रकार मात्र भन्यत्व से मोक्ष नहीं मिल सकता। भव्यत्व को परिपक्व करने के लिये मनुष्यत्व, जैनधर्म आदि पुरुषार्थ हो तभी भव्यत्व परिपक्व बनता है।
हम को कैसे ज्ञात हो कि हम भव्य हैं या अभव्य ? प्रात: उठते ही यदि हम विचार करें कि मैं भव्य हूं या अभव्य ? मैं आराधक हूं या
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