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योग किसे कहते हैं ?
क्योंकि जब तक पाश्रव बंद नहीं होगा, तब तक कर्म क्षय के साथ साथ नवीन कर्म भी बंधते रहेंगे। प्रात्यंतिक कर्म क्षय का काल तो हमारे अनुभव में नहीं पा सकता क्योंकि मिथ्यात्त्व, अविरति, योग प्रमाद और कषाय इनमें से किसी एक का निमित्त तो रहता ही है । अत: कर्म एकत्रित करने में जितना समय लगता है, उतना समय कर्मक्षय करने में नहीं लगता। प्रानन्दघनजी योगी पुरुष कहते हैं:
___'षड् दर्शन जिन अंग भरणीजे' जैन दर्शन में सभी दर्शनों का समावेश हो जाता है । दर्शन कौन कौन से हैं ? विश्व में मुख्य छः दर्शन हैं (१)जैन दर्शन (२) बौद्ध दर्शन, (३) सांख्यदर्शन (४) कपिल दर्शन, (५) नैयायिक दर्शन, और (६) मीमांसक दर्शन । इनमें से नैयायिक दर्शन में पातंजलि नामक समर्थ प्राचार्य हए जिन्होंने पातंजलि योगदर्शन नामक ग्रंथ की रचना की। पातंजलि के विषय में थोड़ा विचार करते हुए परमहंस योगानन्द ने अपनी पुस्तक 'पाटोबायोग्राफी ग्राफ ए योगी' में क्रिया योग विज्ञान पर थोड़ा प्रकाश डाला है। ऐसा लगता है कि पातंजलि के समय में राजयोग और क्रियायोग दोनों ही योग को विधियां प्रचलित थी। पातंजलि के समय में भारतवर्ष प्राध्यात्मिक दृष्टिकोण से काफी उन्मत अवस्था में था । उस समय राजयोग की साधना के लिये लोग सक्षम थे, अतः लोगों ने राजयोग को ही अपनाया था। इस प्रकार क्रिया योग की विधि धीरे-धीरे लुप्त प्रायः हो गई। पातंजलि के योग सूत्र में सर्व साधारण लोगों के लिये क्रिया योग नामक किसी भिन्न योगिक विधि का उल्लेख है -- ___ 'तपः स्वाध्यायेश्वर प्राणिधानानि क्रियायोगः'
(सूत्र १ साधना पद २) इससे स्पष्ट होता है कि क्रियायोग नामक कोई अन्य विधि पातंजलि के समय में भी मौजूद थी या महर्षि पातंजलि इस विधि को जानते थे। जगद्गुरु शंकराचार्य तथा सत कबीर को भी क्रियायोग की दीक्षा प्राप्त थी, ऐसा सुना जाता है । चौथी पांचवीं शताब्दी में गांधार के एक बौद्ध भिक्षु प्रसंग ने पातजलि योग दर्शन के आधार पर बौद्ध योगचर्या' की रचना की । यद्यपि पातंजलि योग दर्शन ४ थी ५ वीं शताब्दी में न जाने किस किस रूप में कहाँ कहाँ पहुच चुका था, तथापि वहाँ उसका इतना व्यापक प्रचार प्रसार नहीं था। ६४७ ई. में हुमापातंजलि योग दर्शन
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