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योग किसे कहते हैं
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भारतीय संस्कृति में योग का अत्यधिक महत्त्व रहा है । प्रतीत काल से ही भारतीय मूर्धन्य मनीषीगरण योग पर चिंतन, मनन, विश्लेषण करते रहे हैं। क्योंकि योग से मानव जीवन पूर्णत: विकसित होता है । मानव जीवन में शरीर और आत्मा इन दोनों की प्रधानता है । शरीर स्थूल है और श्रात्मा सूक्ष्म है । पौष्टिक और पथ्यकारी पदार्थों के सेवन मैं तथा उचित व्यायाम आदि से शरीर पुष्ट और विकसित होता है । योग से काम, क्रोध, मद आदि विकृतियां नष्ट होती हैं । श्रात्मा की जो अनन्त शक्तियाँ प्रावृत्त हैं, वे योग से अनावृत्त होती हैं और प्रात्मा की ज्योति जगमगाने लगती है । आत्म विकास के लिये योग एक प्रमुख साधन है ।
'अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदास्थितः । मोक्ष योजन भावेन, सर्व संन्यास लक्षणः ।। "
मन, वचन तथा काया के योगों का प्रयोग ही वास्तविक योग है । . यह प्रयोग रूपी योग श्रात्मा को मोक्ष से जोड़ता है । यह प्रयोग रूपी योग समस्त पदार्थों के त्याग रूपी सर्व सन्यास लक्षरण वाला है। योग क्या करता है ? इस पर शास्त्र कहते हैं
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' क्षिणोति योगः पापानि चिरकाल जितान्यपि । प्रचितानि यथैधांसि क्षणदेवाशुशूक्षणिः || '
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जैसे बहुत दिनों से एकत्रित लकड़ी के ढ़ेर को अग्नि एक क्षरण में जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार बहुत काल से एकत्रित कर्मों को भी योगाग्नि क्षरण भर में जला कर भस्म कर देती है। माना कि एक भव में बहुत से किये हुए पाप कर्मों को योग नष्ट कर सकता है, पर अनेक भवों के किये हुए पाप कैसे नष्ट हो सकते हैं ? उत्तर यह है कि लकड़ी को इकट्ठी करने में जितना समय लगता है, क्या उसको जलाने में भी उतना समय लगता है, नहीं लगता । ठीक इसी प्रकार कर्मों को इकट्ठा करने में जितना समय लगता है, उनको क्षय करने में इतना समय नहीं लग सकता । यदि ऐसा हो तो जीव का मोक्ष कभी हो ही नहीं सकता ।