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दर्शन योग
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मैं अभी तक पुद्गल और भौतिक सुखों की इच्छा की है । सम्यक्त्व रूपी आत्मरस का स्वाद नहीं चखा है। कौन व्यक्ति सम्यक्त्व है प्रोर कौन नहीं, इसे कैसे पहिचाना जाय ? अन्य व्यक्तियों की बात छोड़ दें, याप स्वयं भी सम्यक्त्व हैं या नहीं, इसे कैसे जानेंगे ?
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योगशास्त्र में शास्त्रकार ने सम्यक्त्व के पांच लक्षण बताये हैं: सम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्था । जिस व्यक्ति में ये लक्षण हों उसे सम्यक्त्व समझ लीजिये । सम्यक्त्वों के व्यवहार में ये लक्षण स्पष्ट दिखाई. देते हैं । अब इन लक्षणों को भो सक्षेप में समझ लेना चाहिये ।
ज्ञान आत्मा को प्रकाशित करता है, तप श्रात्मशुद्धि करता है और गुप्तिद्वार को बंध करने वाला संयम है । इन तीनों के मिश्रण से मोक्ष होता है । मोक्ष प्रर्थात् आत्मा का स्वयं में निवास करना । अभी हम शरीर में रहते हैं, पर एक दिन इसे छोड़कर जाना ही पड़ेगा । आत्म-गृह स्थायी निवास स्थान है । प्रात्म- गृह में रहने के लिये पहले उसे ज्ञान से प्रकाशित करना चाहिये। फिर कर्म और पाप के कचरे को तप रूपी भा से साफ करना चाहिये | फिर संयम से उसके ग्राश्रत्रद्वार की खिड़कियें बन्द करनी चाहिये, ताकि नया कचरा न आ सके ।
सबसे प्रथम ज्ञान द्वारा आत्मा को प्रकाशित करना है जो विश्व दर्शन, श्रात्मदर्शन या परमात्वदर्शन से ही हो सकता है । दर्शन अर्थात् देखना या किसी भी वस्तु या सिद्धांत का परिचय । दर्शन दो प्रकार का है: - ( १ ) सम्यग्दर्शन और (२) मिथ्यादर्शन |
गृहस्थ के १२ व्रतों के विषय में शास्त्रकार कहते है:'सम्यक्त्वमूलानि पंचाणुव्रतानि गुरणास्त्रयः । शिक्षापदानि चत्वारि व्रतानि गृहमेविनाम् ॥'
सम्यक्त्व-युक्त पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह गृहस्थ धर्म के व्रत हैं । अब सम्यक्त्व के विषय में कहते हैं:
'या देवे देवताबुद्धिर्गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते । '
जो बुद्धि सु-देव को देव, सु-गुरु को गुरु और सच्चे धर्मं को घम माने वह सम्यक्त्व है । ज्ञानरूपी वृक्ष का मूल सम्यक्त है । जैसे बिना
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