SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दर्शन योग वस्तुत: यहां दर्शन का अभिप्राय है वस्तु लत्त्व को विशेष अभिप्राय से, विशेष दृष्टिकोण से तथा सर्वांगीण दृष्टि से देखना । दर्शन को सम्यग् दर्शन तब ही कहा जाता है, जब उसमें श्रद्धा का अंश प्रविष्ट हो। श्रद्धा तभी होती है जब उस वस्तु को सभी प्रकार से देख समझ कर उसकी सहो स्थिति पर विश्वास हो जाय कि वस्तु तत्त्व अचित्त है, सचित्त है या मिश्र है । भूतकाल में क्या था, वर्तमान में क्या है, भविष्य में क्या होगा ? सम्यक् का अर्थ है भली प्रकार से सही स्थिति का ज्ञान । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है : 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शन ।' ... तत्त्वों की सच्ची श्रद्धा उन पर दृढ विश्वास ही दर्शन है। जितने भी माध्यात्मिक सुख हैं उनका मूल कारण सम्यक्त्व है। ज्ञान और चारित्र का मूल भी सम्यक्त्व है । यदि सम्यक्त्व न हो तो ज्ञान प्रोर चारित्र मिथ्या है। सम्यक् दृष्टि से जो कुछ भी पाच रग करता है, वह निरा का हेतु है । सम्यक्त्व की इतनी महिमा है कि इसे साधुत्व से भी श्रेष्ठ माना गया है, क्यों ? उत्तर में कहा गया है: 'सम परिणामी संत का, कहां लौ करू बखान । अन्य मती शुभ गुण धरे वो भी नीका मान ।।' सम्यक्त्वधारी माधुयों और श्रावकों की कहाँ तक प्रशंसा करू ? यदि अन्य तीर्थों और अन्य वेषधारी भी सम्यक्त्वयुक्त हों तो वे भी पूज्य हैं । वेष मुख्य नहीं, सम्यग्दर्शन मुख्य है । और भी कहा है : 'कोटि वर्ष ताप तपें, ज्ञान बिन कर्म झरे ते । ज्ञानि के छिन मांहि, त्रिगुप्ति तै सहज टरै रे ।।' सत्तर लाख करोड़ और छप्पन लाख करोड़ वर्षों को पूर्व कहते हैं । ऐसे करोड़ पूर्व तक तपस्या करके अज्ञानी मिथ्याष्टि जीव जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उतने कर्मों को निर्जरा ज्ञाना सम्यक्त्वी क्षण मात्र में कर लेता है । भक्त अपनी भावना प्रकट करते हुए कहता है: 'पुद्गलमय सुख का अभिलाषी, विधि पूर्वक समकित नहीं चाखी। लही तद पियतने नहीं राखी, साप्रत नो पिण प्रभु तू साखी ।।' For Private And Personal Use Only
SR No.008690
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherBuddhisagarsuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy