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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योगी किसे कहते हैं ? यह शरीर एक रथ है और उसमें रही हुई श्रात्मा इस शरीर रुपी रथ को हाँकने वाला सारथी है । इस शरीर रुपी रथ में चित्त रुपी चंचल अश्व जुड़ा हुआ है । योग इस चंचल घोड़े को काबू में लाने की क्रिया प्रक्रिया है अर्थात् योग ही इस चंचल घोड़े की लगाम है । योग की साधना द्वारा मन की बातें जानी जा सकती है तो मन को काबू में भी रखा जा सकता है । संसार के अनेक प्रकार के दुःखों से दुःखित आत्मा के लिये योग ही परमौषध है । कहा भी है : 'भवतापेन तप्तानां योगोइि परमौषधम् संसार के त्रिविध ताप से जलते हुए प्राणियों के लिये योग ही परम प्रौषध है । प्रश्न उठता है कि ताप कितने प्रकार के होते हैं और ताप किसे कहते हैं? ताप अर्थात् दुःख तीन प्रकार के होते हैं: - ( १ ) श्राध्या - त्मिक ताप, (२) आधिभौतिक ताप और (३) अधिदैविक ताप । मल, मूत्र, वात, पित्त, कफ आदि के कारण से शरीर में जो रोग आदि पैदा होते हैं उन्हें आधिभौतिक ताप कहा जाता है । तिर्याच या देव आदि द्वारा प्राप्त होने वाले दुःख को प्राधिदैविक ताप कहा जाता है । यदि कोई व्यक्ति दिन भर क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष आदि से घिरा रहे तो यह आध्यात्मिक ताप कहा जाता है । 1 मैं अमुक व्यक्ति को कैसे मारू ? कैसे अमुक व्यक्ति को परेशान करू ? ऐसे भाव मन में क्यों उठते हैं? क्रोध के कारण । संसार में मुझे कहने वाला कौन हैं ? मेरे से बड़ा कौन है ? यह है अभिमान । श्रमुक व्यक्ति को मैं कैसे शीशी में उतारु ? छल कपट द्वारा उसकी संपत्ति पर कैसे अधिकार करु ँ ? यह है माया । सारे विश्व की संपत्ति मुझे ही मिल जाय, अधिक से अधिक लोगों पर मेरा शासन चले, यह है लोभ, इसी को आध्यात्मिक ताप कहा जाता है । For Private And Personal Use Only बीसकीं सदी के लोग कहते हैं कि मनुष्य पानी में तैर भले ही सकता है, परंतु पानी पर चल नहीं सकता । यदि मनुष्य का श्वासोच्छवास बंद हो जाय तो वह जीवित नहीं रह सकता । मनुष्य का शरीर भारी
SR No.008690
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherBuddhisagarsuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size8 MB
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