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योगी किसे कहते है ?
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होंने से वह श्राकाश में बिना किसी सहारे के रह नहीं सकता । किंतु योग विद्या ने तो सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य पानी पर चल सकता है। बिना सहारे के आकाश में लटका रह सकता हैं । ऐसे योग को सिद्ध करने वाले को योगी कहा जाता है ।
आप समझते होंगे कि योगियों के घर नहीं होते किंतु योगी तो कहते हैं कि उनका घर होता है । उनका घर कैसे होता है? सुनिये, पाँच रूपी मजबूत नींव वाला, कमर रूपी मध्यभाग वाला, भुजानों रूपी महल वाला, सप्तधातु की दीवारों वाला और नौ दरवाजों वाला यह शरीर ही योगी का घर है ।
विद्वान पंडित या सज्जन पुरुष आसानी से मिल सकते हैं किन्तु वर्तमान काल में तत्त्व के जानने वाले, विशुद्ध चित्त वाले योगी का मिलना प्रति दुर्लभ है। नीम के फल जब पक जाते हैं तब मीठे हो जाते हैं, किंतु उनकी गुठली तो खारी ही रहती है, अर्थात् बाहर से नीम-फल मीठा भले ही हो जाय, किंतु उसके भीतर जो खारापन भरा है वह कभी मिट नहीं सकता। ठीक इसी प्रकार सामान्य जन बाहर से दिखाने के लिये मधुर स्वभाव वाले भले ही हो जाय किंतु भीतर से तो ईर्ष्या द्वेष वाले ही होते हैं । इसके विपरीत योगियों की चित्तवृति भीतर से मधुर होती है । वे बाहर भीतर दोनों तरफ समान भाव वाले होते हैं ।
किसी ने कहा कि योगी अभक्ष भोगी होते हैं, अर्थात् न खाने योग्य पदार्थ को भी खा जाते हैं । सामान्य अर्थ में तो यह कथन ठीक नहीं लगता, किंतु गूढ़ अर्थ में यह कथन ठीक भी है। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और काल इन छः द्रव्यों में सबसे बलवान द्रव्य काल होता है, किंतु योगी तो उस काल को भी खा जाते हैं। आनन्दघन जी ने यही कहा था कि काल सबको खा जाता है । ऐसा कोई तत्त्व नहीं है, जिसे काल नहीं खाता हो । सीमेंट के मकान को भी काल हिला देता है। लोहे के साँचों से बने मकान को भी काल जमीन अस्त कर देता है । काल का पंजा वस्तु मात्र को जीर्ण बना देता है । ऐसे काल का भक्ष्य योगी पुरुष करते हैं अर्थात् समाधि अवस्था में योगी पर काल का भी प्रभाव नहीं चल
सकता ।
कहते हैं कि योगी नहीं पीने योग्य वस्तु को भी पी जाते हैं । इसका
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