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अहिंसा
नय प्रमाद योगेन जीवितव्य परोपणम् । त्रसोनां स्थावराणां च तद्वहिंसाव्रतम् ।।
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भारतवर्ष सदैव से अहिंसावादी देश रहा है । यहां पर धर्म और अध्यात्मवाद का विशेष प्रभाव रहा है, किंतु वर्तमान में विज्ञान ने अपना पंजा इतना अधिक फैलाया कि आत्मवाद और धर्मवाद से लोगों को श्रद्धा डगमगाने लगी | आज अधिकांश लोगों की दृष्टि ग्रात्मवाद से हटकर भौतिकवाद में जा टिकी है ।
विश्व में मुख्य दो तत्त्व हैं, एक जड़ और दूसरा चेतन । जड़ भी दो प्रकार की है रूपी और ग्ररूपी । रूपी जड़ को जैन दर्शन में पुद्गल कहा जाता है, जिसमें वरणं, गंध, रस, स्पर्श होते हैं । वैज्ञानिक जो भी अनुसंधान कर रहे हैं, वह रूपी जड़ पुद्गल की कर रहे हैं, प्ररूपी की नहीं । भगवान् महावीर सर्वज्ञ थे अतः उन्हें भी जड़ का पूर्ण ज्ञान था, उन्होंने २५०० वर्ष पहले ही पुद्गल के छः प्रकार बताये थे । प्राज का विज्ञान तीन प्रकार का पुद्गल ही मानता है । सालिड, लिक्विड और गैस ( ठोस, तरल, वाष्प ) मेटर और एनर्जी ( Matter & Energy ) क्या है यह विज्ञान के समझ में नहीं आ रहा था। भगवान महावीर ने मेटर और एनर्जी: धूप, छाया, गर्मी, विद्युत और मेग्नेटिज्म आदि को पुद्गल रूप मानते हुए उनमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श का अस्तित्व बताया । इन्हें रूपी और पकड़ में आने योग्य कहा ।
अच्छा तो अब हम पहले चैतन्य की ही बात करते हैं । बारह व्रत की पूजा में कहते हैं कि "हे प्रभो ! केशर का घोल करके आपकी पूजा करूंगा । परन्तु स्थूल प्रारणातिपात व्रत के प्रतिचार से मेरा हृदय धूज रहा है । जीव हिंसा न करने का प्रत्याख्यान करू और ग्रागम में कहे हुए 'दुविहं तिविहेां' वाक्यानुसार निरंतर प्रवृत्ति करू । मन, वचन, काया से हिंसा करूं नहीं और कराऊं नहीं ।" यहां व्रती श्रावक की बात चल रही है । बारह व्रतधारी श्रावक को सम्यक्त्व का मूल कहा जाता है । इन बारह व्रतों में से प्रारम्भ के आठ प्रत्याख्यान स्वरूप हैं और अन्तिम चार आरा
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