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अर्थ पुरुषार्थ
उसका आयुष्य पूरा हो गया तो टूट गई। इसमें इतना क्रोधित होने की क्या बात है ?"
बेचारा ग्राहक मुह लटकाये वापस चला गया। यह है अर्थ को एक पदार्थ प्रयोजन का उदाहरणा । यह संसार तो ऐसे जीवों से भरा पड़ा है। बिना प्रयोजन के बोलना और अपनी इच्छानुसार शब्दों के अर्थ को ग्रहण करना तो यहां साधारण बात है। फिर लड़ाई झगड़े होते हैं, राग द्वष और कषायों की वृद्धि होती है अतः अर्थ पुरुषार्थ को भी न्याय नीति और धर्म से नियंत्रित करने की अावश्यकता है।
एक अन्य उदाहरण । यात्रा में रेल में बैठे बैठे पाँच युवक मित्रों ने स्टेशन पर 'गरमागरम भुजिया' की आवाज सुनी। पाँच प्लेट मंगवाई और पैसे दे दिये। गाड़ी भी चल पड़ी। जब भुजिये खाने लगे तो देखा कि ऊपर ऊपर तो गर्म थे और नीचे सब ठंडे थे । एक मित्र बोला, "यार ! हम तो ठगे गये । साले ने गरमा गरम कह कर ठंडे और गरम मिला कर दे दिये ।"
उन में से एक मित्र सस्कृत भाषा को जानने वाला था, उसने कहा, "भाई ! उसने तो ठीक ही कहा था, गरम+अगरम - गरमागरम यानि गरम और ठंडे भुजिये । उसने तो कोई गलती की नहीं थी। हमें ही भाषा का ज्ञान नहीं होने से हम ठग गये ।
विजयसेन सूरि म.सा. ने योगशास्त्र के प्रथम श्लोक 'नमो दुर्वार रागादि' पर ५०० से ७०० अर्थ किये है । सोमप्रभसूरि म.सा. ने 'शतार्थ काव्य' वसंत तिलका छंद में रचा है। उसके प्रत्येक श्लोक के भिन्न भिन्न एक सौ अर्थ किये गये हैं तथा उस पर स्वयं उन्होंने टीका भी लिखी है। सन् १६४६ में अकबर बादशाह ने जब काश्मीर विजय के लिये प्रस्थान किया था, तब समयसुन्दरजी ने एक अष्ट लक्षी ग्रंथ बनाया। उसमें पाठ अक्षरों का एक वाक्य था, "राजा नो ददते सौख्यं" राजा हमें सुख प्रदान करे । इस वाक्य के समयसुन्दर जी ने पाठ लाख अर्थ किये थे।
पाटण चतुर्मास के समय उपाध्याय यशोविजयजी म.सा. सतोष बहिन की प्रेरणा से प्रात्मयोगी अानंदधनजी से मिले थे। उस समय उपाध्याय जी ने अपनी विद्वता को प्रदर्शित करने के लिये उनके सम्मुख
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