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स्वभाव पुरुषार्थ
देशस्वभाव : यूरोप निवासियों की चमड़ी गोरो होती है। अफ्रीका निवासी हब शियों की चमड़ी काली होती है। भारतीयों की चमड़ी गेहूँ के रंग की होती है । भिन्न भिन्न देश के वायुमंडल का जो प्रभाव शरीर पर पड़ता है वह देश स्वभाव है। केशर सिफ काश्मीर में पैदा होती है। प्राम भी भारतीय मिट्टी में हो पैदा होते है, अन्यत्र नहीं। यह देश स्वभाव है।
जाति स्वभाव : मुर्गे के मस्तक को कलगी और मोर के सुन्दर पंख किस चित्रकार ने बनाये होंगे ? वैदिक दर्शन वाले कहेंगे कि विश्व का विचित्रता ईश्वर को इच्छा पर अवलंबित है, परन्तु जैन-दर्शन वाले तो इसे जाति स्वभाव मानते हैं। ग्राप तोते को पढ़ा सकते हैं, पर गधे को पढ़ा सकेंगे क्या ? नहीं, क्यों कि तोते में पढ़ने का स्वभाव है, गधे में नहीं ।
काल स्वभाव : काल का भेद होने से स्वभाव में भी भेद हो जाता है । एक वृक्ष दो माह में पलता है तो दूसरा छः माह में । जैन दर्शन में छ पारे का वर्णन है। पहले पारे के समय पृथ्वी जैसी सुन्दर थी वैसी सुन्दर दूसरे आरे में नहीं रहती ! तीसरे और चौथे बारे में जन्मा व्यक्ति मोक्ष जा सकता है, कितु पाँचवें प्रारे में जन्मा व्यक्ति मोक्ष नहीं जा सकता । यही तो काल स्वभाव की निश्चित्तता है।
स्वभाववादी व्यक्ति कहता है कि प्रत्येक स्तु अपने स्वभाव में स्थित है । किंतु इस मान्यता से तो पुरुषार्थ ही बेकार हो जायेगा क्योंकि काल में वापस मुडने या लौटने का स्वभाव ही नहीं है।
दार्शनिक दृष्टि से स्वभाववाद का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभाव में स्थित है, फिर धर्मास्तिकाय गति सहायक ही क्यों होता है ? स्थिति सहायक क्यों नहीं होता ? अमूर्त मूर्तरूप में परिवर्तित क्यों नहीं होता ? क्योंकि परिवर्तन इसका स्वभाव ही नहीं है।
राज्य क्रान्तियों में अनेक स्वर्ण मुकुट भू-लुण्ठित हुए हैं और हो रहे हैं। परन्तु मुनिपुगवों के दिव्य मस्तक पर शोभित संयम रूपी स्वर्णमुकुट शाश्वत हैं।
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