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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ज्ञान योग www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ हैं तो प्राण किसके थे ? मेरे 'प्रारण' कहने वाले को प्रारण से भी प्रिय 'मेरा' है । तब 'मेरा' नामक कोई वस्तु होनी ही चाहिये, वही हमारी आत्मा है ।" ८ १ इस प्रकार विचार करते संत राजा के पास पहुंच गया । राजा ने पूछा, "महात्मन ! कैसे बीती ?" राजा ने सोचा कि सत कहेगा सारी रात दुःख में बीती, नींद नहीं आई, हैरान हो गया । परन्तु महात्मा ने तो और ही बात कही संत बोले, "राजन् ! आधी तेरे जैसी और ग्राधी तेरे से अच्छी ।" सुनकर राजा को क्रोध आ गया । महाराज का चित्त ठिकाने है कि नहीं ? राग और द्वेष शुभ भावनाओं के बल से घटते हैं । जब आत्मा का राग-द्वेष रूपी मालिन्य पूर्णतया नष्ट हो जाता है अर्थात् प्रात्मा कषायमुक्त हो जाती है, तब पूर्ण शुद्धि में से प्रकट होने वाला पूर्ण ज्ञानप्रकाश जिसे केवलज्ञान कहते हैं, उसे प्राप्त हो जाता है । केवलज्ञान पूर्णानन्द अवस्था है । For Private And Personal Use Only मुनि ने सोचा राजा के गुस्से के चार कारण होते हैं:- १. यौवन अवस्था महान् अनर्थकारी होती है । २. जो धर्म न मिला हो तो धन संपत्ति अनर्थकारी होती है । ३. प्रभुत्व का अधिकार भी अनर्थकारी होता है । ४. प्रविवेक भी अनर्थकारी होता है । राजा युवक है, वैभवयुक्त है, अधिकारी है और अविवेकी भी है । इसके पास अविवेक अधिक है इसलिये क्रोध करता है । महात्मा ने ऐसे क्रोधी राजा से बहस करना ठीक नहीं समझा । अतः जैसे प्राये थे वैसे ही वापस चले गये ।
SR No.008690
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherBuddhisagarsuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size8 MB
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