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सत्य
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होती है । पहला श्रागार राजा का है। श्रावक ने जीवदया पालने का व्रत तो ले लिया किन्तु राज्य अधिकारी होने से यदि उसे राजा की प्राज्ञा से किसी को दंड देना पड़े तो उसे दोष नहीं लगता । अपने प्राण संकट में हो तब तक तो शायद श्रावक सहन भी कर ले किंतु राजा को प्राज्ञा का उल्लघन करने से स्वयं उसको और उसके कुटुम्ब को अनेक कष्ट भोगने पड़ सकते हैं, अत: गृहस्थ को राजाज्ञा की छूट रहती है ।
दूसरा प्रागार जाति का है। जाति में अनेक प्रथाएँ होती हैं, जिनका धर्म से संबंध नहीं होता, परन्तु परंपरा के रूप में उनका पालन करना पड़ता है। जैन श्रावक को वे सभी सामाजिक प्राचार स्वीकार है, जिनसे उसके सम्यक्त्व को हानि नहीं होती हो और व्रतों में दूषण न लगता हो।
तीसरा प्रागार देव का है। यदि कोई देव किसी विशेष कार्य के लिये प्राज्ञा देता है तो उसे विवशता पूर्वक करना पड़ता है, क्योंकि न करने पर घोर संकट की संभावना बनी रहती है ।
चौथा बलवान पुरुष का प्रागार है। कभी कोई गुण्डा या शक्तिशाली पुरुष की पकड़ में आ जाये और उससे पीछा छडाने के लिये उसकी चापलूसी या झठी तारीफ करनी पड़े तो वह विवशता है, वर्ना चाकू, शस्त्र, गोली मार सकता है। किसी प्राणी की रक्षा के लिये भी कभी झूठ बोलना आवश्यक हो जाता है, जैसे कोई कसाई किसी गाय को मारने ले जा रहा हो और गाय रस्सी छुड़ाकर भाग गई हो, यदि वह आपसे पूछे कि "गाय किधर गई है ?" तब आप उसे उल्टी दिशा बता दे तो गाय की रक्षा हो सकती है । किसी की प्राण रक्षा के लिये झूठ भी बोलना पड़े तो गृहस्थ के लिये वह क्षम्य है ।
___पांचवां गुरुजनों का आगार है। यदि श्रावक पौषध में भी बैठा ही और गुरु या माता-पिता किसी कार्य की आज्ञा देते हैं तो उसे करना हो पड़ता है, क्योंकि गुरुजनों की प्राज्ञा अनुलंघनीय होती है।
छठा प्रागार दुभिक्ष का है। देश में अकाल पड़ रहा है, लोग दाने दाने के लिये तरस रहे हैं, ऐसी भयंकर परिस्थिति में यदि जीवन रक्षा हेतु झूठ बोलना पड़े या अखाद्य खाना पड़े तो विवशता है अतः गृहस्थ को छट है।
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