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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म पुरुषार्थ पाँच इन्द्रियों में पांचवीं इन्द्रिय कान है । अाँख अाक्रामक है तो कान ग्राहक है । यदि कोई हमारी तरफ एक टक ताक कर देखता हो तो हमें अच्छा नहीं लगेगा, किंतु यदि हमें कोई अपनी मन पसन्द बात कहे तो हमें अच्छा लगेगा । इसी से सिद्ध होता है कि अाँख आक्रामक है और कान ग्राहक । यदि आपको कोई आँखें दिखावे तो बहुत बुरा लगेगा किंतु मधुर बात करे तो उसके साथ घंटों बिता देंगे। अाँख को पाक्रामकता से कान की ग्राहकता का मूल्य इसीलिये अधिक है। धर्म श्रवण कान से ही होता है। आप पूछेगे कि धर्म श्रवण किसलिये ? जब तक प्रात्मा को धर्म श्रवण नहीं मिलता, तब तक आत्मा का मैल दूर नहीं होता, इसलिये धर्म श्रवण की आवश्यकता है । मैल को हटाने के लिये धर्म श्रवण तेजाब का काम करता है । धर्म श्रवण नोलवेल वनस्पति जैसा है । सर्प नौलिये के युद्ध में जब सर्प नौलिये को डस लेता है, तब नौलिया शीघ्र ही अपने जहर को उतारने के लिये नोलवेल वनस्पति को सूघ कर आ जाता है, जिससे उसका जहर उतर जाता है। जब विषय कषाय रूपी सर्प पापको डस ले तब आप भी धर्म श्रवण रूपी नोल वेल वनस्पति का उपयोग कर विष कषाय के जहर को उतार सकते हैं । जिस बस डिपो के बाहर लिखा हो 'भीतर' और 'बाहर' वहां बस एक तरफ से भीतर जायेगी और दूसरी तरफ से बाहर आयेगी । इसी प्रकार धर्म श्रवरण भी यदि एक कान से सुने और दूसरे कान से निकाल दे तो उससे क्या फायदा ? धर्म के कारण से ही अर्थ और काम प्राप्त होता हैं, इसलिये अर्थ और काम में तल्लीन बनकर धर्म को भूलना नहीं चाहिये। आम में कुछ अंश खाने का और कुछ अंश फेंकने का होता है । रस चूसकर गुठली और छिलका फेंक देना होता है। इसी प्रकार अनार में दाने खाने और छिलका फेंकने के काम आता है। किंतु अंगूर में कुछ भी फेंकना नहीं पड़ता । जैसे तूबा छोटा हाने पर भी तीन मरण के शरीर को नदी पार करा देता है, वैसे ही पढ़ाई अक्षर का धर्म भी आत्मा को डूबने से बचाता है । धर्म से तात्पर्य क्या है ? वैश्या का धर्म शरीर बेचना हैं, सैनिक का धर्म शत्रु को मारना है, जल्लाद का धर्म फांसी लगाना है, सती का धर्म पति के साथ मरना है। कोई दान, शील, तप, भावना में धर्म मानता है तो कोई अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में धर्म मानते हैं । जो विचार-पाचार प्रात्मा की चारित्र शक्ति को विकसित करे और जीवन में सदाचार सद्विचार की ज्योति जला दे, वही धर्म है। For Private And Personal Use Only
SR No.008690
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherBuddhisagarsuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size8 MB
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