Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રચયિતા-આચાર્ય અમૃતસૂરિજી મહારાજ Tયાય સTE; વિવરણ કર્તાપડ્યાસ ધુરન્ધર વિજયજી ગણિ | સંપાદક તથા પ્રેરક પડ્યાસ કુન્દ કુન્દ વિજય ગણિ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन सम्राट् पीयूषपाणि समर्थविद्वान् वि. सं. २०५०नी सालना चातुर्मासनी स्मृति निमित्ते उमेदाबाद गोल जैन संधना सौजन्यथी. शाह जेचंदभाई विठ्ठलदास (राजकोटवाळा ) परिवारना सौजन्यथी नवरत्न लेसर प्रोसेसर्स नवसारीना सौजन्यथी Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOOOOOOOOOOOOOOOOOOO ॥ ॐ अहँ नमः ॥ ॥ शासनसम्राट् श्री विजय नेमिसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नम : ॥ सर्वतंत्र स्वतंत्र सूरिचक्र चक्रवर्ति-शासनसम्राड्भट्टारकाचार्य महाराजश्री विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजश्रीना पट्टालंकार-कविरत्न-शास्त्रविशारद पूज्यपाद-आचार्य महाराजश्री विजयामृतसूरीश्वरजी महाराज विरचित तथा आचार्य श्री धर्मधुरन्धर सूरिकृत विवरण युक्त श्री वैराग्य शतक) . (संक्षिप्त विवेचन साथे) (पूर्वे-स्तुतिचतुर्विंशतिका तथा पाछळ आत्मनिन्दाद्वात्रिंशिकाना अनुवाद सहित) : संपादक : . . पं. कुन्दकुन्दविजयजी गणि OOOOOOOOOOOOOOOOOO Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EES ' प्रकाशक : श्रीधुरन्धरसूरि समाधि मन्दिर शान्तिवन बस स्टेन्ड पासे नारायणनगर रोड पालडी, अमदावाद-७ इस्वीसन १९९५ वि.सं. २०५१ 0 चोथी आवृत्ति वीरनिर्वाण सं. २५२१ नकल-३००० मूल्य रू : २५ -ea बाइन्डर्स : हरेश चीनुभाई शाह कल्पतरु बाइन्डींग वर्कस जगदीश कोलोनी, सदुमातानी पोळनी बाजुमां, हलीमनी खडकी, शाहपुर, अमदावाद ३८० ००१ प्रिन्टर्स : भाग्योदय प्रिन्टर्स १६७/१९८८ सूर्या एपान्टमेन्ट, सोला रोड, नारणपुरा, अमदावाद ३८० ०१३ Ph. : ७४८५५०३ 288 23 : टाइपसेटर : अच. ओ. शाह कुमार ग्राफिक्स १४, सहकार निकेतन सोसायटी, एम्को बैंक सामे, नवरंगपुरा, अमदावाद - ९. Ph. : ४६५५६० 888 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान ( १ ) श्री घुरन्धरसूरि समाधि मन्दिर शान्तिवन बस स्टेन्ड पासे, नारायणनगर रोड पालडी, अमदावाद (२) राजेशकुमार अशोककुमार शाह हठीभाईनी वाडीना नाकापर परब पासे दिल्ही दरवाजा बहार अमदावाद - - (३) संघवी विनोदराय जगजीवनदास अत्तरवाला कस्तूरबारोड रोडनं. ३ जैनंदीन इंटवाली चाली पूर्व बोरीवली मुंबई ४ - ६६ (४) जितेन्द्रकुमार रमणीकलाल 002220 04.04 जानकीनिकेतन, बीजेमाल. ३.नं. २८ डॉ. राजेन्द्रप्रसाद रोड, मुलुन्ड, मुंबई (५) शाह रसिकलाल जगजीवनदास फ्रीगंज, ए. के. बिन्डींग उज्जैन (म. प्र. ) प्रुफ रीडर राजुभाई जी चौहाण : Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतक पुस्तक प्रकाशनमां लाभ लेनार भाग्यशालीनी नामावलि क्रम गाम (१) श्री ऋषभदेव पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर पेढी - गोल- उमेदावाद (२) सुखराजजी देवीचन्दजी बंदा मुथा हस्ते - कोयालालजी (३) तलावट ओटमलजी जीतमलजी - कान्तिलाल रमेश - सुरेश विमल - सुरेश बेटा पोता सांकलचन्दजी तलावट (४) श्री मी श्रीमलजीनी स्मृति निमित्ते हस्ते पत्नीश्री मतीलासीदेवी, भाई मोतिलालजी, तिलोकचन्दजी एवं समस्त भंडारी परिवार (५) शाह जुगराजजी हंजारीमलजी लूंकड (६) अ. सौ. मोहनबाई हस्तिमलजी चुनीलालजी भणसाली (७) मांगीलालजी दानाजी - सुजाणी तलावट (८) अ. सौ मोहनबाई तिकमचन्दजी भीमाजी (९) गुणेशमलजी नेणाजी भणसाली (१०) चन्दनमलजी पृथ्वीराजजी रांका (११) रमेशकुमार केवलचन्दजी बंदामुथा हस्ते प्रकाशभाई (१२) श्रीमती गवरीबेन सुखराजजी पालगोता चौहाण (१३) थानमलजी लादाजी भणसाली हस्ते. (१४) कान्तिलालजी पारसमलजी बंदामुथा - · • हस्ते. जुगराजजी. - भागचन्द, झवेरचन्द - हस्ते. चन्दनमल आलासण आलासण - (१५) बाबुलालजी केवलचन्दजी (१६) मनोहरमलजी हंजाजी भलाजी संघवी (१७) कनैयालालजी सालगीया ह. वीरेन्द्रभाई धारेन्द्रकुमार शैलेन्द्रकुमार - सलुम्बर- उदयपुर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __- संगपुर (१८) श्रीमती वीणाबेन जसवन्तलालशाह _ - हस्ते. शीतलकुमार सीकरकुमार - दहेगाम (१९) शान्तिलाल गुलाबचन्द शाह परिवार माजीधारासभ्य - लुणावाडा (२०) श्रीमती हंसाबेन बाबुलालशाह - कपडवंज (२१) छनालाल मंगलदास शाह ह. पंकजभाई (२२) अशोककुमार धनराजजी शेठ. - बोडीगामाबडा (२३) नर्मदाबेन छबीलालजी कोठारी. - बोडीगामाबडा (२४) हीरालालजी नाथुलालजी शाह - बोडीगामाबडा (२५) अ.सौ. सरलाबेन नगीनदास शेठ. - बोडीगामाबडा (२६) रूपलालजी अमरचन्दजी महेता .. - बोडीगामाबडा (२७) सूरजमलजी पन्नालालजी सरैया हस्ते शक्तिकुमार - धवलकुमार - वरुणकुमार - डुंगरपुर (२८) चन्द्रमणिबेन गुलाबचन्द दोशी -- डुंगरपुर हस्ते विनोदकुमार (२९) अ. सौ. बदामबेन चान्दमलजी कुणनजी - दावडा वरसीतप निमित्ते (३०) कुरीबेन आनन्दीलालजी कुणनजी वरसीतप निमित्ते - दावडा (३१) सूरजबेन चन्दुलालजी सरैया - डुंगरपुर (३२) चन्दुलालजी लक्ष्मीलालजी - सलुम्बर (३३) पटवा निहालचन्दजी धूलजीभाई परिवार - डुंगरपुर (३४) रमेशभाई दीपचन्दजी - दावडा (३५) सरैया केसरबेन जवाहरलालजी पन्नालालजी - डुंगरपुर ह. अशोककुमार, दिलीपकुमार (३६) दावडा गणेशलालजी गुलाबचन्दजी ___ह. महावीरभाई - चेम्बुर / डुंगरपुर - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) जसवन्तलाल केसरीमलजी दावडा (३८) गोठी मणिलाल माणेकलालजी ह. लक्ष्मीबेन - डुंगरपुर गोरेगाम डुंगरपुर डुंग डुंगरपुर (३९) सनतकुमार छगनलालजी ह. सूर्यकान्ताबेन (४०) सरैया उदयचन्दजी ह. ईश्वरलाल मांगीलालजी (४१) सूरजमलजी कुन्दनमलजी दावडा ह. देवीलालजी - डुंगरपुर (४२) धडुक मगनलालजी ध.प. मगनबेन ह. जम्बूकुमार - डुंगरपुर (४३) सरैया गोरधनलालजी ह. नर्मदाबेन (४४) गणेशलालजी लक्ष्मीलालजी (४५) श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर संघ (४६) अमृतलालजी रतनलालजी शाह डुंगरपुर - • डुंगरपुर पुनाली पुनाली पुनाली ह. नरेशकुमार - अभिषेककुमार (४७) अमृतलालजी प्यारचन्दजी पंचोली ह. प्रवीणभाई, गिरीशकुमार, मनोजकुमार (४८) श्री हठीभाईनी वाडी जैन संघ (४९) वीरचंदजी समरथमलजी मंडार (५०) झवेरीलालजी गोपीलालजी जैन (५१) शाहीबाग मेडीकल स्टोर जितेन्द्रकुमार नरसीदास शाह ना ध.प. अ. सौ कैलास बेनना वर्षितप निमित्ते ह. पीयूषकुमार (५२) जितेन्द्रभाई भगुभाई संघवी ह. नलिनीबेन (५३) अशोककुमार छबीलालजी पटवा ह. जयेशकुमार (५४) गांधी कनैयालालजी चम्पालालजी (५५) वसन्तीबेन बदीचंदजी शाह - - - - अमदावाद • अमदावाद • अमदावाद अमदावाद अमदावाद - • अमदावाद • अमदावाद अमदावाद - साबलावाला हाल भायन्दर माल करियाणा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (५६) शोभाचंदजी हीरालालजी दावडा 'ह. प्रदीपकुमार ___गलीया कोटवाळा (५७) राजकुमार मांगीलालजी भंडारी सागवाडा (५८) सागरमलजी बदीचंदजी ह. गजेन्द्रकुमार करियाणा (५९) स्व. हेमलताबेन मंगळंदास मोडासा ह. विजयभाई (६०) नटवरलाल नाथालाल शाह ह. कमलेशकुमार-समीरकुमार-परागकुमार- मोडासा (६१) शाह नाथालाल शिवलाल ह. सविताबेन नाथालाल . मोडासा (६२) रतिलाल पोपटलाल गांधी मोडासा (६३) बाबुलाल छोटालाल संघवी मोडासा (६४) दोशी वसन्तलाल डाह्यालाल ह. राजेशभाई वडालीवाला (६५) जसुमतीबेन बचुभाई - भावसार - ह. भूपेश भावसार - राकेश भावसार मोडासा (६६) महावीर वोच कु. ह. अमरीशभाई मोडासा (६७) भवरलाल-चेतनलाल दिलीपकुमार पिता ऋषखबचंदजी पुंजयुर (६८) शंकरलालजी मोतीलालजी बोडीगामाबडा (६९) अ. सौ. प्रेमलताबेन विनोदकुमार महेता बोडीगामाबडा (७०) धर्मिलालजी माणेकलालजी सलुम्बर (७१) यशपालजी वृध्धिचन्दजी सालगीया सलुम्बर (७२) घीरेन्द्रकुमार जेचंदभाई विठ्ठलदास शाह राजकोट - - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ॥ श्री गौतमस्वामिने नमः ॥ परिचय आत्माने संसारथी मुक्त करवाना बे मार्ग छे. एक भक्तिमार्ग अने बीजो ज्ञानमार्ग. तेमां भक्ति मार्ग घणो सहेलो छे. बाळ युवान, वृद्ध, स्त्री, पुरूष, सर्व ए मार्गने अनुसरी शके छे. भगवान पण भक्तिथी वश थाय छे. प्रभुना गुण गावा . तेमनी पासे प्रार्थना करवी, हाथ जोडीने तेमनी स्तुति बोलवी ए पण भक्तिनो एक प्रकार छे. आ पुस्तकनी शरूआतमां चोवीस परमात्मानी स्तुतिओ आपी छे, ते कंठे करी जिनेश्वर प्रभु समक्ष बोलवाथी उल्लासने वधारे छे. भक्तिभावने जागृत करें छे. प्रभु साथे एकमेक बनावे छे. ते स्तुतिओनी शब्द रचना एटली बधी सुंदर ने सरल छे के एक वखत वांचवाथीं पण मोढे चडी जाय एवी छे. . ___"आत्मा मारो प्रभु तुज कने आववा उलसे छे. आपो एवं बळ हृदयमां माहरी आश ए छे." __ वगेरे शब्दो बोलतां हृदय उच्छळे छे. कर्ताए विना प्रयासे पाणीना झरानी माफक शब्द प्रवाह वहेवराव्यो होय एम लागे छे, कुदरते रचायेली कृतिओज अजरअमर ने असरकारक निवडे छे. चोवीश भगवाननी स्तुतिओ पछीथी आ पुस्तकमां Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक 'वैराग्य शतक' छे. ए एक ज्ञानमार्गनुं साधन छे, तेमां पदे पदे ने शब्दे शब्दे आत्माने तेनी स्थितिनुं भान कराव्युं छे, अनादि काळथी दुःखी थतां अने भवचक्रमां परिभ्रमण करतां चेतनने साचो राह बताव्यो छे. तेमां मुख्यत्वे आठ विषयो उपदेश्या छे. ते आ (१) मानव जन्मनी दुर्लभता. (२) नरकना दुःखोनुं वर्णन. (३) स्त्री- मोह त्याग करवा प्रेरणा. (४) सोळ भावनानुं स्वरूप (५) संसारनी असारता (६) पांचे इन्द्रियोना विषयोथी थता गेरलाभ. (७) शीघ्र धर्म करवा प्रेरणा (८) कल्याणकारि विचारणाओ. आ आठे विषयो एवा सचोट शब्दोमां निरूप्या छे, के जे वांचतां समजु आत्माने संसार उपरथी 'वैराग्य' थया वगर रहे नहि. 'वैराग्य शतक' बाद 'जीवदया प्रतिपाल परमार्हत कुमारपाल-भूपाल कृत आत्मर्निदाद्रात्रिंशिकानो गूर्जरी गिरामां अनुवाद छे. तेमां परमात्माने संबोधीने आत्माने पोतानी पराधीन स्थितिनुं रोमांचक स्वरूप दर्शाव्युं छे. वारंवार वांचवानुं मन थाय एवा भावो तेमां भर्या छे, मोढे करी प्रभु पासे बोलवाथी उन्नतिपथनुं दर्शन थाय छे. आ पुस्तकनी एक एक वात आत्माने हितकारी छे, एके एक विचार वारंवार वांची तेनुं मनन करी हृदयमां अने जीवनमां उतारवा योग्य छे. आ पुस्तक नानुं छे पण सोनुं छे. आमां गुंथायेल कोइपण वस्तु मनः कल्पित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक नथी पण · वीतराग-भगवंते उपदेशेल पूर्वाचार्योए रचेल ग्रंथोमांथी ज उद्धरी भाषामां योजेल छे. ते योजायेल एक पण वचनथी कोईपण आत्माने संसार उपरथी वैराग्य आवशे, ए आत्मा साचा सुखने पंथे पडशे, दःखथी मकाईने आत्माना आनंदने मेळवशे तो करायेल परिश्रम विशेषे सफळ थयो लेखाशे. सुवर्ण जेवा. विचारोने मनमां संग्रहो अने कथिर जेवा विचारोने तिलांजलि आपो, सारा सारा विचारोने शीघ्र वर्तनमां मूको ने मुक्त बनो ए ज अभिलाषा. - मुनि-धुरन्धरविजय. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक वैराग्य शतकनी प्रस्तावना . अनादि काळथी आ जीव सुख मेळववाना प्रयत्नो करतो आव्यो छे. कर्म बंधनने कारणे संसारमा भटके छे. अने हजु संवर निर्जरा उच्च प्रकारनी नहि करे तो भटकशे. उच्च प्रकारनो संवर अने उच्च प्रकारनी निर्जरा करवा माटे आ जीवे जीवनमां वैराग्यभाव प्रगट करवो परम आवश्यक छे. ज्यां सुधी जीवनमां वैराग्य न प्रगटे भवभीरुता न आवे त्यां सुधीनी बधीये साधना अधुरी ज रहेवानी छे. माटे वैराग्यनी साधना करवी ते मनुष्य जीवन माटे परम उपयोगी छे. आ वैराग्यनी साधना बे प्रकारे थई शके छे. एक तो वैराग्यवाळा पुस्तक वाचनथी अने बीजी वैरागी आत्माना संसर्गथी आ बनेमां जेम आ काळमां वैरागीनो संसर्ग मुश्केल छे पण अशक्य नथी, तेम वैराग्यना पुस्तको मळवा मुश्केल छे पण अशक्य नथी. तेम आ ज्यारे वांचो छो त्यारे वैराग्यनुं पुस्तक तमारा हाथमां छे. ते वैराग्यना पुस्तकमांथी जीवनमा वैराग्य लाववा प्रयत्न करजो. ___ आ पुस्तकमां १०० लोको वैराग्यना छे अंने ते शासनसम्राट पूज्यपाद आचार्य श्री विजय नेमिसूरीश्वरजी महाराजना पट्टधर पूज्यपाद आचार्य श्री विजय अमृतसूरिजी महाराजे पोताना संयम अवस्थाना पूर्व रजा. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक जीवनमा स्वाभाविक रीते बनावेला छे. आ श्लोको कंठस्थ करी गावाथी पण वैराग्यना झरणा आत्मामां स्फुरशे. बीजं आ श्र्लोको उपर पूज्यपाद मारा गुरूजी आचार्य श्री धर्मधुरन्धरसूरिजी महाराजे मुनि अवस्थामां पण सारूं सचोट विवरण करेल छे. जे वांचवाथी वैराग्य पामवानी लायकातवाळामां अवश्य वैराग्यनी वृद्धि थशे ज. - ली. पं. कुंदकुंदविजयजी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. वस्तुपाळजी करणमळजी दोशी (सलुम्बर) आप सलुम्बर श्वे. मू. पू. संधमां सक्रिय कार्यकर्ता हता. अने आपनुं तन, मन, धन, प्रायः धार्मिक कार्योमां जोडायेलुं रहेतुं हतुं. सुखराजजी देवीचन्दजी बंदामुथा उमेदाबाद - गोळ आपनुं जीवन मानवताना गुणोथी भरपुर छे. Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य आचार्य श्री विजय देव सूरीश्वरजी म. चरणरेणु विजय हेमचन्द्रसूरिजी मु. पुनाली. भवनिस्तारनो प्रबल उपायएक मात्र वैराग्य त्याग अने वैराग्य विना जगतमां कोई पण आत्मानो भवनिस्तार थतो नथी. आ बाबतमां दरेक धर्मशास्त्रकारोनो एकमत प्रवर्ते छे. त्यांगने जो आपणे कार्य तरीके मानतां होईये तो वैराग्यने एना कारण तरीके अवश्य स्वीकारखुं जोईए. त्याग जो ईमारत छे तो वैराग्य एनो पायो छे. वैराग्य वगरनो त्याग अर्थसाधक बनवाने बदले केटलीकवार अनर्थकारी पण बनी जाय छे एटले त्यागने दृढ बनाववानी भावनावाळाए पहेलां वैराग्यने स्थिर करवो . जोईए. 'त्याग न टके वैराग्य दिना' ए उक्ति पण आज वातनी पुष्टि करे छे. पूर्वधर भगवान श्री उमास्वातिजी महाराजे पण 'प्रशमरति' जेवा नाना पण आत्मार्थी जीवोने माटे महान उपकारक ग्रंथमां नीचेना श्लोकमां - वैराग्य भावनाने स्थिर करवा माटे मन / वचन अने कायाथी अभ्यास करवानुं भारपूर्वक सूचन कर्तुं छे. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृढतामुपैति वैराग्य भावना येन येन भावेन । तस्मिन् तस्मिन् कार्यः, कायमनोवागभिरयासः ॥ जे जे भावथी - प्रवृत्तिथी वैराग्यभावना दृढपणाने पामे तेमां तेमां मन / वचन अने कायाना योगोथी अभ्यास करवो जोईए. अर्थात् एवं विचारखुं - बोलवु ने करवुं जोईए के जेथी वैराग्यभावना दृढ बने. प्रस्तुत ग्रन्थ पण वैराग्य भावनाने पुष्ट बनावतो महान ग्रंथ छे. पूज्यपाद शास्त्रविशारद कविरत्न अमारा परम गुरु आचार्य महाराज श्रीविजय अमृतसूरीश्वरजी महाराज श्रीए पोताना संयम जीवनना प्रारंभकाळमांज संसारना स्वरूपनो आबेहुब चितार रजू करी वैराग्यभावनाने दृढ बनावे तेवो 'वैराग्य शतक' नामनो गुजराती भाषामा एकसो पद्योना संग्रहरूप आ ग्रंथ बनाव्यो छे. वांचनार थोडोक सहृदय अने सरळ परिणामी होय तो अमूक एनी असर थया वगर रहेज नहि. पर्वतमांथी झरतां निर्मळ झरणांनी जेम तेओना हृदयमांथी आ कविताना झरणां आपोआप जाणे वही निकळ्यां होय एवं जणाय छे. अ पद्योनी साथे एनुं गुजराती विवेचन पंण संक्षिप्त Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • छतां भाववाही छे. आनुं विस्तृत विवेचन करवामां आवे तो विस्तार रुचिवाळा जीवोने एनाथी अवश्य लाभ थया वगर न रहे. ___ आ अगाउ पण आनी आवृत्तिओ बहार पडीज छे तेम छतां ते खलास थई जतां पन्यास श्री कुन्दकुन्द विजयजी गणिनी प्रेरणाथी आ प्रकाशन थई रह्यं छे ते अनुमोदनीय छे. पन्यासजी ज्ञानना प्रचार द्वारा लोकोमा धर्म अने संस्कारनी प्राप्ति कराववानी रुचिवाळा तथा प्रभुभक्तिना सारा रसीया छे. तेओनी प्रेरणाथी बीजा पण आवा ग्रंथो प्रकाशित थता रहे एज मंगल कामना - - . प्रस्तावना भय वगरनो एक मात्र वैराग्य ज छे जे जे भावथकी वधे जीवनमां वैराग्यनी भावना ते ते भाव महि सदा विहरवं राखी मनोकामना जे जे भावथकी न सिद्धिमळती ते भाव शा कामना जाणी एम सदा सुभाव करवा साची करो साधना आ संसारमा राग अने. द्वेषथी कोण परिचित नथी ? अज्ञानी जीवोने बाद करता लगभग जीवो आ जोडकाथी परिचित छे. आ जोडकामां जे द्वेष छे Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते रागमांथी उत्पन्न थनारो भाव छे. अर्थात् द्वेषनुं कारण पूर्वमां व्यक्ति प्रत्ये रहेलो राग छे. ज्यां राग थयो होय त्यां काळान्तरे प्रायः द्वेष थाय छे एटले संसारनुं मूळभूत कारण राग छे. राग प्रशस्त अने अप्रशस्त बे प्रकारनो छे अमूक मर्यादा सुधी प्रशस्त राग आगुळ वधारनारो थाय छे तो पण अन्ते तो छोडवा योग्यज छे. राग वगरनी स्थिति ते विरागस्थिति छे, अने तेनो भाव ते वैराग्य छे आ वैराग्य पामवो जोके आ काळमां अति मुश्केल छे कठिन छे तो पण अशक्य तो नथी ज़. एटले आत्मकल्याणी आत्माए वैराग्य प्राप्त करवो ज जोईए. वैराग्य, वैरागी जीवोनो परिचय राखवाथी प्राप्त थाय छे, वैराग्य विषयवाळा पुस्तकना वाचनथी प्राप्त थाय छे, कुदरती वातावरणना फेरफारथी तथा दुःखना निमित्तो वगेरेथी वैराग्य प्राप्त थाय छे. गमे तेनाथी वैराग्य थाय पण जीवनमां वैराग्य आवे ए इच्छवा योग्य छे. आ पुस्तक वैराग्यना विषय वाळं छे. रागनुं पोषण करनारा पुस्तको जगतमां Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणा बहार पडे छे वैराग्य पोषक पुस्तको क्यारेक ज हाथमां आवे छे. आ . तमारा हस्तकमलमां पुस्तक आव्युं छे तो तेने आद्यन्त बराबर वांचजो अने वैराग्य थोडो घणो पण जीवनमां लाववा प्रयत्न करजो. निर्भय बनवा माटे पण वैराग्य अमोघ साधन छे. राजा भतृहरिए पण पोताना वैराग्य शतकमां बतावेलुं छे के . भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयंकाये कृतान्ताद् भयं सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्य मेवा भयम् भोगमा रोग थवानो भय छे. कुलमां पडवानो, धनमां राजानो, मौनमां दीनतानो, बळमां शत्रुनो, रूपमां वृद्धावस्थानो, शास्त्र जाणनारने वादनो, गुणमां दोषो शोधनारनो (लुच्चानो) भय छे अने कायाने यमनो भय छे आम सर्व वस्तु भयवाळी छे केवळ वैराग्य ज-निर्भय-भयवगरनो छे. आवो जे वैराग्य छे तेना स्वरूपनुं दर्शन करावनारा सो गुजराती लोको विविध छन्दमां अमारा पू.प्र. परमगुरु शास्त्रविशारद पीयूषपाणि पूज्यपाद आचार्य श्री विजय अमृत सूरीश्वरजी - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजे मुनिजीवनना प्रारंभ काळमां वैराग्ययुक्त मानस साथे रच्या छे. संगीतप्रिय जीवोने बोलवा अने सांभळवा गमे तेवा छे श्लोकोनुं विवरण पण अमारा पूज्यपाद गुरुश्रीए करेलुं छे जेनो सदुपयोग थाय एवी आशा साथे विरमु छं. समर्थ विध्वान् पूज्य आचार्य श्री धर्मधुरन्धर सूरिजी महाराजना शिष्य पं. कुन्दकुन्द वि. पुनाली जैन उपाश्रय जी. डुंगरपुर राजस्थान. ता. क. आ वैराग्य शतक पुस्तक छपाववानी भावना जालोर जील्लामां आवेला उमेदाबाद (गोल) गामना २०५०ना चातुर्मास दरम्यान थई हती. आ गामनो संघ भद्रिक, सरळ परिणामी अने नानो छता मोटा काम करनारो छे एवं कह्या सिवाय रही शकातुं नथी. ✰✰✰ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहँ नमः ॥ श्री चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः ॥ __ श्री विजयामृत सूरि विरचिताः (दहेरासरजीमां प्रभु पासे बोलवानी स्तुतिओ) (छंद-मंदाक्रान्ता) (बोधागाधं सुपदपदवी-नीरपूराभिरामं-ए राग) १. श्री ऋषभदेव प्रभुनी स्तुति. ' जेणे कीधी सकल जनता नीतिने जाणनारी, त्यागी राज्या-दिक विभवने जे थया मौनधारी व्हेतो कीधो सुगम सबळो मोक्षनो मार्ग जेणे वन्दु छु ते ऋषभजिनने धर्म धोरी प्रभुने. २. अजितनाथ प्रभुनी स्तुति. देखी मूर्ति अजित जिननी नेत्र मारां ठरे छे. ने हैयुं आ फरी फरी प्रभु ध्यान हेर्नु धरे छे; आत्मा म्हारो प्रभु तुज कने आववा उल्लसे छे, आपो एवं बळ हृदयमां माहरी आश ए छे. ३. श्री संभवनाथनी स्तुति. जे शांतिना सुख सदनमां मुक्तिमां नित्य राजे, जेनी वाणी भविक जननां चित्तमां नित्य गाजे; देवेन्द्रोनी प्रणय भरनी भक्ति जेनेज छाजे, वन्दु ते सं-भवजिन तणां पाद पद्मे हुं आजे. ४. श्री अभिनंदन स्वामिनी स्तुति. चोथा आरा रूप नभ विषे दीपता सूर्य जेवा, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक धाती कर्मो रूप मृग विषे केसरी सिंह जेवा; साचे भावे भविक जनने आपता मोक्ष मेवा. चोथा स्वामी चरण युगले हुं चहुं नित्य रेवा. ५. श्री सुमितनाथ स्तुति आ संसारे भ्रमण करतां शान्ति माटे जिनेन्द्र, देवो सेव्यां कुमति वशथी में बहुए मुनीन्द्र, तोए नाव्यो भव भ्रमणथी छुटकारो लगारे, शान्ति दाता सुमति जिनजी देव छे तुं ज मा रे. ६. श्री पद्मप्रभस्वामिनी स्तुति. . सोना केरी सुर विरचिता पद्मनी पंक्ति सारी, पद्मो जेवा प्रभु चरणना संगथी दीप्ति धारी; देखी भव्यो अति उलटथी हर्षना आंसु लावे, ते श्री पद्म-प्रभ चरणमां हुं नमुं पूर्ण भावे. ७. श्री सुपार्श्वजिन स्तुति. आखी पृथ्वी सुखमय बनी आपना जन्म काले, भव्यो पूजे भय रहित थै आपने पूर्ण व्हाले; पामे मुक्ति भव भय थकी जे स्मरे नित्यमेव. नित्ये वंदु तुम चरणमां श्री सुपाश्चेष्ट - देव. ८. श्री चंद्रप्रभस्वामिनी स्तुति. जेवी रीते शशि किरणथी चंद्रकान्त द्रवे छे, तेवी रीते कठिण हृदये हर्षनो धोध वहे छे; Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक देखी मूर्ति अमृत झरती मुक्ति - दाता तमारी, प्रीते चन्द्र - प्रभ जिन मने आपजो सेव सारी, ९. श्री सुविधिनाथनी स्तुति. सेवा माटे सुर-नगरथी देवनो संघ आवे, भक्ति भावे सुरगिरिपरे स्नात्र पूजा रचावे; नाट्यारंगे नमन करीने पूर्ण आनन्द पावे, सेवा सारी सुविधि जिननी कोणने चित्त नावे. १०. श्री शीतलनाथनी स्तुति. आधि व्याधि प्रमुख बहु ए तापथी तप्त प्राणी, शीळी छाया शीतल जिननी जाणीने हर्ष आणी; नित्ये सेवे मन वचनने कायथी पूर्ण भावे, कापी खंते दुरित गणने पूर्ण आनन्द पावे. ११. श्री श्रेयांसनाथनी स्तुति.. (शार्दूलविक्रीडित.) जे हेतु विण विश्वना दुःख हरे, न्हाया विना निर्मळा, जिते आन्तर शत्रुने स्वबळथी, द्वेषादिथी वेगळा; वाणी जे मधुरी वदे भवतरी गंभीर अर्थे भरी, ते श्रेयांस जिणिंदना चरणनी, चाहुं सदा चाकरी. १२. वासुपूज्य स्वामिनी स्तुति. जे भेदाय न चक्रथी न असिथी, के इन्द्रना वज्रथी, एवा गाढ कुकर्म हे जिनपते, छेदाय छे आपथी; जे शान्ति नव थाय चन्दन थकी, ते शान्ति आपो मने, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक वासुपूज्य जिनेश हुं प्रणयथी, नित्ये नमुं आपने. १३. श्री विमलनाथ स्तुति. ( मंदाक्रान्ता.) जेवी रीते विमल जलथी वस्त्रनो मेल जाये, तेवी रीते विमल जिनना ध्यानथी नष्ट थाये; पापो जुना बहु . भव तणा अज्ञताथी करेला, ते माटे हे - जिन ! तुज पदे पंडितो छे नमेला. १४. श्री अनंतनाथनी स्तुति. जेओ मुक्ति नगर वसता काळ सादि अनंत, भावे ध्यावे अविचलपणे जेहने साधु - सन्त; जेहनी सेवा सुरमणि परे सौख्य आपे अनन्त, नित्ये म्हारा हृदयकमळे आवजो श्री अनन्त. - १५. श्री धर्मनाथनी स्तुति. संसाराम्भो - निधि जळ विषे बूडतो हुं जिनेन्द्र. तारो सारो सुखकर भलो धर्म पाम्यो मुनीन्द्र; लाखो यत्नो यदि जन करे तो येना तेह छोडु, नित्ये धर्म-प्रभु तुज कने भक्तिथी हाथ जोडुं. • १६. श्री शांतिनाथनी स्तुति. जाण्या जाये शिशु सकळना लक्षणो पारणाथी, शान्ति कीधी पण प्रभु तमे मातना गर्भमांथी; षट्खंडोने नव निधि तथा चौद रत्नो त्यजीने, पाम्या छो जे परम पदने आपजो ते अमोने. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १७. श्री कुंथुनाथनी स्तुति. जेहनी मूर्ति अमृत झरती धर्मनो बोध आपे, जाणे मीठं वचन वदती शोक संताप कापे; जेहनी सेवा प्रणय भरथी सर्व देवो करे छे, ते श्री कुंथु-जिन चरणमां चित्त मारूं ठरे छे. १८. श्री अरनाथनी स्तुति. जे दुःखोना विषम गिरिओ वज्रनी जेम भेदे भव्यात्मानी निबिड जडता सूर्यनी जेम छेदे; ज्हेनी पासे तृण सम गणे स्वर्गने इन्द्र जेवा, एवी सारी अरजिन मने आपजो आप सेवा. . १९. मल्लिनाथनी स्तुति. तार्या मित्रो अति रूपवती स्वर्णनी पूतळीथी, एवी वस्तु प्रभु तुज नथी बोध ना थाय जेथी; सच्चारित्रे जन मन हरी बाळथी ब्रह्मचारी, नित्ये मल्लि - जिनपति मने आपजो सेव सारी. २०. श्री मुनिसुव्रत स्वामिनी स्तुति .: (शार्दूलविक्रीडित.) अज्ञानांधकृति विनाश करवा. जे सूर्य जेवा कह्या, जेहणे अष्ट प्रकारना कठिन जे, कर्मो बधां ते दह्यां; जेनी आत्मस्वभावमां रमणता, जे मुक्ति दाता सदा, एवा श्री मुनिसुव्रतेश नमीए, जेथी टळे आपदा. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक २१. श्री नमिनाथनी स्तुति. वैरिवंद नम्यो प्रभु जनकने, गर्भ प्रभावे करी, कीर्तिचंद्रकरोज्ज्वला दिशिदिशि, आ विश्वमां विस्तरी; आपी बोध अपूर्व आ जगतने, पाम्या प्रभु शर्मने, पुण्ये श्री नमिनाथ आप चरणे, पाम्यो खरा धर्मने. २२. श्री नेमिनाथनी स्तुति. लोभावे ललना तणा ललित शुं त्रिलेकनां नाथने, कम्पावे गिरि भेदी वायु लहरी, शुं स्वर्ण ना शैलने; शुं स्वार्थे जिन देव ए पशु तणा, पोकारना सांभळे, श्रीमन्नेमि जिनेन्द्र सेवन थकी, शुं शुं जगे ना मळे. २३. श्री पार्श्वनाथनी स्तुति. धुणीमां बळतो दयानिधि तमे, ज्ञाने करी सर्पने. जाणी सर्व जनो समस्त क्षणमां, आपी महा मंत्रने; कीधो श्री धरणेन्द्रने भव थकी, तार्या घणा भव्यने, आपो पार्श्व जिनेन्द्र नाश रहिता, सेवा तमारी मने. २४. श्री महावीर स्वामिनी स्तुति. श्री सिद्धार्थ नरेन्द्रना कल नभे, भान समा छो विभ म्हारा चित्तचकोरने जिन तमे, छो पूर्ण चन्द्र प्रभुः पाम्यो छ पशुंता त्यजी सुरपणुं, हुं आपना धर्मथी, रक्षो श्री महावीर देव मुजने, पापी महाकर्मथी. इति चतुर्वि शति-जिन-स्तुतयः समाप्ताः Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ॥ ॐ अहँ नमः ॥ ॥ श्री नेमि-सूरीश्वर-सद्गुरूभ्यो नमः ॥ श्री वैराग्य शतक (संक्षिप्त विवेचन युक्त) महापुरूषोनी प्रणालिका छे, के कोईपण शुभकार्यनी शरूआतमां मंगल करवं, मंगल करवाथी बे लाभ थाय छे. (१) अशुभ कर्मनो नाश अने ते द्वारा कार्यनी समाप्ति. (२) उपकारी पुरूषोनुं स्मरण अने ते रीते कृतज्ञता गुणनी खीलवणी, वैराग्य शतकनी शरू आत करतां ग्रन्थकार इष्टदेवने नमस्कार करवा रूप-सुंदर मंगल करे छे. ते आ प्रमाणे . सवैया (झेर गयां ने वेर गयां-ऐ रीतीए.) श्री आदीश्वर शान्तिजिनेश्वर नेमिप्रभुने पास जिणन्द, वीरप्रभु ए पांच प्रभुने छठ्ठा श्रीगुरू नेमिसूरीन्द ए सर्वेने प्रणये प्रणमी समरी सरस्वती मात उदार, रचुं 'वैराग्यशतक' आ सुखकर प्राचीन उक्तिने अनुसार विवेचन . ... (१.) श्री आदीश्वर-त्रीजा आराना अन्तमां ज्यारे Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक युगलिक धर्म नाश पामी रह्यो हतो, अने मानव समूहने नवी व्यवस्थानी जरूर हती, ते समये श्री आदीश्वर प्रभु थया. तेमणे मनुष्योने प्रथम व्यवहारिक व्यवस्था बताव्या बाद आत्मिक विकासने माटे धर्मव्यवस्था दर्शावी. ते माटे तेमणे प्रथम दीक्षा लई केवळ ज्ञान प्राप्त करी- पोताना ९९ पुत्रोने अने बे पुत्रीने तेमज हजारो मनुष्योने दीक्षित बनावी धर्ममार्ग प्रवर्ताव्यो. आजे जे व्यवहारिक अने धार्मिक प्रवृत्तिओ चाले छे, तेना मूळ प्रणेता श्री ऋषभदेव भगवंत छे. वेदोमां अने भागवत वगेरे ग्रन्थोमां पण तेमनुं वर्णन आवे छे. ते नाभिराजा अने मरू देवा माताना नन्दनने नमन करी (२) शान्ति जिनेश्वर - हस्तिनापुर नगरमां विश्वसेन राजा अने अचिरा राणीने त्यां तेमनो जन्म थयो. तेओ गर्भमां हता त्यारे तेमनी माताना स्नानजलथी मरकीनो उपद्रव नाश पाम्यो अने शान्ति थई. तेथी तेमनुं श्री शान्तिनाथ ऐवं सार्थक नाम थयु. तेओए छ खंडनु राज्यचक्रवर्तिपणुं भोगव्युं, अने तेनो त्याग करी त्यागी बन्या. ते १६मा तीर्थंकरपणे विचरी सिद्धि वर्या, लघुशान्ति, अजितशान्ति, मोटीशान्ति, संतिकरं वगेरे स्तोत्रोथी तेमनो प्रभाव अपूर्व प्रसिद्ध छे, तेमने नमस्कार करी (३) नेमिप्रभु-प्रभुश्री वीरना जन्मपूर्वे ८४,००० वर्ष पहेलां तेओ शौरीपुरीमां समुद्रविजयराजा अने शिवादेवी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक राणीने त्यां जन्म्या, बाल्यावस्थाथी ज़ विषयोथी विरक्त हता. कुटुम्बीओना आग्रहथी तेओ लग्न माटे तैयार थया. पण ते लग्नमां भोजनने माटे पशुहिंसा थवानी छे तेम जाणी पाछा फर्या, राजीमतीनो त्याग कर्यो, दीक्षा लीधी ने मुक्तिरमणीने वर्या, श्री गिरिनार तीर्थनी भूमि तेमना दीक्षा केवळ ज्ञान अने मोक्ष कल्याणकथी पवित्र थयेली छे. हाल पण हजारो यात्राळुओ श्री गिरिनार जइ श्री नेमिनाथना दर्शन, पूजन, अर्चन करी नर जन्म सफल करे छे. ते बावीशमां जिनने वन्दन करी (४) पार्श्वजिणिंद- काशी (वाराणसी) नगरीमा अश्वसेनराजाने त्यां वामादेवीनी कुक्षीथी तेमनो जन्म थयो. प्रभावती नामे राजपुत्री साथे तेमना लग्न थयां, एक वार वसन्त ऋतुमां तेओ बगीचामां गया. त्यां श्री नेमिकुमारना राजीमनीना त्यागनो प्रसंग चित्रमां जोतां तेमनी वैराग्य वृत्ति सतेज बनो, राज्यनो स्वीकार न करतां त्रीस वर्षनी युवानवये दीक्षा लई कमठना उपसर्गे सहन करी, केवळ ज्ञान पामीं श्री समेतशिखर पहाडंपर मुक्ति पधार्या. आजे पण ए पहाड ' श्री पार्श्वनाथ हील' तरीके ओळखाय छे. तेमनो चमत्कार स्वपर दर्शन प्रसिद्ध छे. धरणेन्द्र पद्मावती हाल पण तेमना भक्तने सहाय करे छे. तेमना अनेक तीर्थस्थानो जीवता-जागता प्रभाववाळा छे. तेमना अनेक मन्त्र गर्भितस्तोत्रो प्रभावपूर्ण छे, ते त्रेवीशमा प्रभुने प्रणाम करी - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक (५) वीरविभु- ज्ञातकुळना सिद्धार्थ महाराजाने त्यां त्रिशलाराणीथी तेमनो जन्म थयो, मातापिताए तेमनुं नाम 'वर्धमान' आप्युं हतुं. पण तेमना धैर्य-शौर्य-गुणने लीधे देवे दीधा "महावीर" नामे प्रसिद्ध थया. त्रीस वर्षनी वये दीक्षा लीधी, साडाबार वर्ष सुधी घोर तपश्चर्या करी. अनेक भयंकर परिषहो सहन कर्या, परिणामे केवळ ज्ञान पामी, जगतना अज्ञानने दूर कयें. यज्ञमां कराती हिंसाओ, केवळ अंधश्रद्धावादथी थता अनर्थो, राज्यलोभने कारणे थता भयंकर युद्धो वगेरे सर्व सचोट उपदेश दई बंध कराव्या. आर्यावर्तनी पूर्वनी संस्कृतिने ताजी करी. श्रेणिक-चेडामहाराजा-चण्डप्रद्योत उदायन वगैरे ऐतिहासिक राजाओ तेमना भक्त हता. ए महापुरूष-परमात्माए ताजी करेली आर्यसंस्कृति अने आत्मिक विचारणानो वारसो आपणे आजे भोगवी रह्या छीए तेमने प्रणाम करी-आ ग्रन्थ रचाय छे. - शंका-चोवीश अथवा अनन्त तीर्थंकरोमां आ पांच प्रभुने ज नमस्कार केम ? , समाधान-जगतना जीवोना हितनो फाळो आ पांच प्रभुना नाम पर नोंधायो छे. जनतामा विशेष विख्याति आ पांचनी थयेली छे. तेथी तथा तेमने नमस्कार करवाथी उपलक्षणथी सर्व तीर्थंकरोने नमस्कार आवी जाय छे, माटे Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक (६) श्री गुरू नेमि सूरीन्द-तेओ श्रीनो जन्म काठियावाडना काश्मीर तरीके प्रसिद्धि पामेल मधुमती (महुवा) नगरीमां त्यांना प्रसिद्ध श्रावक लक्ष्मीचंदभाईने त्यां दीवालीबेननी कुक्षीए विक्रम संवत १९२९ना कार्तिक सुदी १ ने (बेसता वर्षे) थयेल छे. सोळ वर्षनी उमरे सिंहनी जेम भावनगरमां श्री वृद्धिचंद्रजी महाराज्जीनी पासे सं. १९४५ मां दीक्षा लीधी. गुरूभक्ति, स्वाश्रयीपणुं, विद्वत्ता, व्याख्यानशक्ति, निस्पृहता वगेरे सद्गुणो तेमनामां एकी साथे खीली उठ्या. संवत् १९६०मां वळामां पन्न्यास पदथी अने सं. १९६४मां भावनगरमां अखिल हिन्दुस्ताननो श्री संघ एकत्रित थयो हतो ते वखते कोन्फरन्स प्रसंगे तेओश्रीना ज्येष्ठ गुरुभाई पन्न्यासजी श्री गंभीर विजयजीए विधिपूर्वक आचार्यपदथी विभूषित कर्या, अत्यारे साधु संस्थामां व्याख्याननी नवी शैली जोवाय छे. तेनी शरूआत करनारा, तेमज दीक्षाना. मार्गने राजमार्ग बनावनारा, तीर्थोना वहीवटने व्यवस्थित वहीवटनी तालीम आपनारा तेओश्री छे. जैन समाजना प्रत्येक धार्मिक कार्यमां मुनिओर्नु प्राधान्य-ए एमनी सर्जना छे. तीर्थना उद्धारो विधिपूर्वक जिन बिम्बोनी प्राणप्रतिष्ठा, राजा-महाराजा अने विद्वानोनुं जैन धर्म तरफ आकर्षण वगेरे कार्यो तेओश्रीना जीवनना परम ध्येयरूप छे. नैष्टिक ब्रह्मचर्य, अपूर्व पांडित्य, प्रतिभा, स्पष्ट वक्तृत्व वगेरे तेओश्रीना अजोड गुणो छे, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्री वैराग्य शतक अनेक विद्वान शिष्योने तेओश्रीए तैयार कर्यां छे. आ ग्रन्थकर्ताना पण तेओश्री परमपूज्य गुरू वर्य छे. (जेने१) परमात्मामां परम भक्ति छे, जेवी देवमां छे तेवीज गुरू मां छे. तेज महात्माने आ कहेल (शास्त्रोना) विचारो खीली नीकळे छे. ए शिष्ट वचनना अनुसार तेओश्रीने नमस्कार करी आ ग्रन्थ आरंभवामां आवे छे. यस्य देवे परा भक्ति-र्यथा देवे तथा गुरौ । तस्यैते कथिता ह्याः, प्रकाशन्ते महात्मनः ॥१॥ (७) समरी सरस्वती मात उदार-विद्यानी अधिष्ठायिका श्री सरस्वती देवी छे. कविजनोने ते मातानी जेम पोषण आपे छे, माटे तेनुं स्मरण क ए ग्रन्थ रचनामां जरूरी छे,श्री यशोविजयजी-उपाध्यायजी महाराजे पण प्रायः सर्व ग्रन्थनी ऎथी शरूआत करतां सरस्वतीने स्मरेल छे. एँ ए सरस्वतीनो बीज मन्त्र छे. अहीं पण ए रीते श्री सरस्वती देवीने संभारी ग्रंथनी शरूआत करी छे. (८) रचुं "वैराग्य शतक' आ सुखकर-राग ए आत्मानो महान शत्रु छे. आत्माना विकासने रूंधनारअटकावनार आ शत्रुना नाश माटेनुं जे साधन तेज 'वैराग्य' छे. आ सो श्लोकोमा रागना जुदा जुदा स्वरूपो बतावी तेने दूर करवाना-हठाववाना उपायो सचोट रीने समजाव्या छे. आ 'वैराग्य शतक' जीवोने सुखकर एटले साचुं सुख मोक्ष Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शत्तक ते तरफ दोरनार छे, तेने आपनार छे. (९) प्राचीन उक्तिने अनुसार-आवं आ 'वैराग्य शतक' मन:कल्पनाथी नहि पण प्राचीन-पूर्वना महान् आचार्योना शास्त्रो-श्री आध्यात्मकल्पद्रुम-शांतसुधारस प्राकृत वैराग्यशतक आदिना आधारे अत्यारनी जनताने बोलवामां तेमज समजवामां रसप्रद थई पडे ते रीते भाषामां सुंदर शैलीथी बनाववामां आव्युं छे. १ ___ (२) धर्मक्रिया करवानी मोसमबहुकाले बहुविधदुःख सहेतां धर्मक्रिया करवानो काल नरभवरूपे प्राप्त थयो छे पुण्यप्रचयथी चेतन हाल. अल्पकालस्थायी सुखदायी सुरस्मकिती ज्हेनेच्हाय, दश दष्टान्ते दुर्लभ एने. हारी जईने जन पस्ताय. विवेचन-मनुष्यभव ए धर्मक्रिया करवानी मोसम छे. एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यचपंचेन्द्रिय वगेरे भवोमां घणो काळ भटकया पछीथी ते मळे छे, ते मेळवतां आत्माने घणां कष्टो सहन करी, अकाम निर्जरा करी, पापकर्मनो क्षय करवो पडे छे. शुभ अध्यवसायथी पुण्यनो संचय करवो पडे छे. मानव जन्म मळ्या पछी पण ते घणाज ओछा समय सुधी रहे छे. हालना पंचम काळमां सो वर्षना (सामान्य रीते उत्कृष्ट) आयुष्यमां-बाल्यावस्था, वृद्धावस्था निद्राकाळ, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री वैराग्य शतक आहार आदिमां जतो समय वगेरे बाद करता धर्म साधन माटे अतिशय अल्प वखत बचे छे. तेटलो काळ पण जो बराबर हृदयपूर्वक धर्म आराधन कराय तो अपूर्व सुख मळे छे. जे धर्म मनुष्यो करी शके छे. ते देवो पण करी शकता नथी, माटे ज समकित द्रष्टि देवो मनुष्य भवनी चाहना राखे छे, धर्म साधना कर्या सिवाय मनुष्य भव हारी गयां पछी मळवो अत्यंत दुर्लभ-मुश्केल छे. ते दुर्लभता समजवा माटे शास्त्रमा दश-द्रष्टांत आवे छे. ते आ प्रमाणे - (२) । (३) द्रष्टांत पहेलुं 'चूला'नुं भरतक्षेत्रमा घरघर भोजन ब्राह्मणने आपे चक्रीश, चोसठ सहस अन्तेउरी जस नरपति सेवे सहस बत्रीश. दैवयोगथी एक घरे ते बीजी वखते जमवा जाय, पण सुकृतविणगतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय. विवेचन....एक चक्रवर्ती एक ब्राह्मण उपर प्रसन्न थयो, ने तेने वरदान मागवा कडं, पोतानी स्त्रीनी सलाह लईने ब्राह्मणे चक्रवर्तीना राज्यमां दरेक घरे भोजन अने दक्षिणा मळे एवी मागणी करी. चक्रवर्तीए ब्राह्मणनी तुच्छ मांगणीनी मश्करी करीने स्वीकारी. पहेले दिवसे चक्रवर्तीने त्यां भोजन थयुं, पछी क्रमसर तेनी चोसठ हजार अंतःपुरनी राणीओने त्यां, तेनी सेवामां रहेता बत्रीश हजार मुकुटबंधि राजाओने त्यां भोजन थयुं. त्यारबाद ए नगरमां-मंत्रीओ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक दिवान शेठ-सामंत वगेरेने त्यां भोजन करतां करतां ज ते ब्राह्मण, आयुष्य पूरू थई. जाय, एटलं मोटुं ते नगर हतुं. तो पछी बत्रीश हजार नगरो अने छन्नु करोड गामोमां घरे घरे भोजनना वारा पूरा करता पुछवू ज शुं. एक वखत आ बधा घर पूरा थया पछी फरीथी बीजो वारो शरू थाय त्यारे ज पहेले दिवसे चक्रवर्ती- घर आवे. एकवार चाखेल चक्रवर्तीनुं भोजन ब्राह्मणनी दाढमां एवं तो रही गयेखें के ते रोज विचार करे के क्यारे फरी बीजो वारो शरू थाय ने चक्रवर्तीनुं भोजन करू , ब्राह्मणने फरी चक्रवर्तीना घरभोजन करवानो वारो आवशे ! ना ए बने ज नही कदाच मानी ल्यो के ए बने पण पुण्य-करणी कर्या सिवाय जो मानव जन्म हारी गया तो ते फरी नही ज मळे (३) । (४) दृष्टांत बीजुं 'धान्य'र्नु भरतक्षेत्रनां सर्व धान्यनी देवे कीधी ढगली एक, तेमां पाली सरसव नांखी लाव्यो डोसी वृद्ध ज छेक. ते वृद्धाथी कदाच सरसव सर्व धान्यथी भिन्न कराय. पण सुकृतविणगतनरभव ते पाछो चेतन नहिं ज पमाय विवेचन-धान्योनी मुख्यतया २४ जातिओ छे. एक गामनो पण पाक सारो उतरे तो लाखो मण धान्य थाय छे. तो छखण्ड भरत के जेमा ३२ हजार देशो छे, अने ९६ करोड गाम छे, तेना सर्व धान्यो केटला थाय ! कोई Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्री वैराग्य शतक कौतुकीदेव आ सर्व धान्यनो एक मोटो ढगलो करे अने तेमां एक पाली (चारपसली) सरसव भेळवी दे. पछी एक अतिशय वृद्ध डोसी के जेना हाथ-पग कंपता होय, तेने बोलावीने सरसवना दाणा वीणी वीणीने सर्व धान्यथी जुदा करवा कहे. तो ते डोसी सरसवना दाणा जुदा नज पाडी शके ए स्वाभाविक छे. कदाच ए अशकय-असंभवित कार्य पण थाय, पण नरजन्म पुण्य कर्या सिवाय चाल्यो जाय तो पाछो नज मळे (४) (५) दृष्टांत त्रीजुं 'पासा'नुं दैवी चूत कलाथी जीती श्रीमंतोने वारंवार, जे चाणक्ये चन्द्रगुप्तनृपनो भरपूर भर्यो भंडार, मानी ले के ते मन्त्री ते वणिकजनोथी पण जिताय, पणसुकृत विण गतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय. विवेचन-नवनंद राजाओ थई गया पछी आर्यावर्तनो महान् राजा चन्द्रगुप्त थयो, तेने धननी घणीज जरूर हती, तेनो खजानो भरवा माटे चाणक्य मंत्रीए वेपारीओने फरजीयात जुगार रमता कर्या. चाणक्य पासे एवा दैवी पासा हता के ते जेम धारे तेम पडे ए कारणे वेपारीओ पासेथी तेणे घणुं धन जुगारमां जिती लीधुं. अने राजानो भंडार भरपूर भरी दीधो. आ चाणक्यनो रचेल ग्रन्थ "चाणक्य नीति" नामे ओळखाय छे. व्यवहारमा चतुर Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक . १७ माणसने चाणक्य बुद्धि कहीने बोलावाय छे. आवो चाणक्य जुगारमा हारी जाय ने ते वेपारीओ पोतानुं धन पाछु मेळवे ए असंभवित छे. कदाच ए पण संभवे पण सुकृत कर्या सिवाय हारी गयेल मानव जन्म फरी मळवो मुश्केल छे. (५) (६) दृष्टांत चोधुं ‘राजसभा 'नुं एकहजारने आठ स्तम्भनी शाला स्तम्भे स्तंभे हांस, अष्टोत्तरशत हार्या विण ते सर्व जितवा नृपनी पास, ए घटनाथी जिती जनकने राजपुत्र पण राजा थाय पणसुकृत विण गतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय. विवेचन-एक राजा अतिशय वृद्ध थयो हतो. पण पुत्रने राज्य सोंपतो न हतो. युवानपुत्रने पिताने मारीने पण राज्य लेवानो कोड जाग्यो हतो. राजाने ते वातनी जाण थतां-क्रोध न करतां बुद्धिथी काळक्षेप करवा विचार योज्यो ने पुत्रने बोलावीने कडं के : - आपणा कुळनो एवो रीवाज छे के युवराजे राजानी साथे रमत रमवी ने तेमां ते जिते पछी तेने गादीनशीन करवामां आवे. त्यां एक हजार अने आठ थांभलानी एक विशाळ राजसभा हती. दरेक थांभलाने एकसोने आठ-आठ हांसो हतीखुणा हता. राजपुत्र एक वखत रमतमां जिते तो तेने एक हांस जिती कहेवाय. एकसोने आठ वखत जिते त्यारे एक Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक थांभलो जित्यो कहेवाय. एम जिंतता-जितता घणुं जित्या पछी पण वचमां एक वखत हारी जाय तो जितेलुं बधुं चाल्युं जाय ने रमतनी फरीथी शरूआत थाय आ रीते पोताने जीतीने राजपुत्र राजा थाय ए बने ! नज बने, मानो के बने, पण धर्मकरणी कर्या वगर गयेल मानव जन्म फरी नज मळे. (६) (७) दृष्टांत पांचमुं 'रत्न'. दूरदेशवासी वणिकोने श्रेष्ठिसुतोए आप्यां रत्न, पितृवचनथी पश्चात्तापे तेज रत्न मेळववा यत्न करतां कोई दिन सर्व रत्नथी जनक हृदय पण संतोषाय, पण सुकृतविणगतनरभव ते पाछोचेतन नहीं ज पमाय. विवेचन-एक रत्नना शोखीन शेठ हता, पासे पैसो पण अखट हतो. तेमणे घणुं खरूं धन जुदी जुदी जातिना रत्नो खरीदवामां खर्ची नाख्युं हतुं. तिजोरीनी तिजोरीओ रत्नोथी भरी दीधी हती. तेमना पुत्रोने आ पसंद न हतुं, एक वखत केटलाएक दिवसो माटे शेठ बहारगाम गयेला, पाछळथी छोकराओए देश-परदेशथी आवेला झवेरीओने सारी किंमते रत्नो वेची नाख्या. शेठ आव्या त्यारे तेमने आ वातनी खबर पडी, दुःख थयुं ने छोकराओने बोलावीने ठपको आपी कह्यु के : -'जाव, जेने जेने रत्नो वेच्या होय तेनी पासेथी ते पाछा लई आवो, पछी घरमां पेसवा दईश' Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १९ शुं ! छोकराओ वेचेला रत्नो पाछा मेळवी पिताने राजी करी शके ! ना न करी शके, कदाच ए करी पण शके पण मनुष्य जन्म पामी धर्माराधन न कर्यु तो फरी ए हाथमां नज आवी शके. (७) (८) द्रष्टान्त छठ्ठ 'स्वप्न'नुं पूर्ण शशीने स्वप्ने देखी राजपुत्र ने रंकविशेष, विवेकविकल लहेरंकक्षीरने नृपसुत पाम्यो राज्यविशेष. एज मठे सूतां स्वप्नामां तेने पूर्णेन्दु य जणाय, पण सुकृत विण गतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय विवेचन-मूळदेव नामनो एक राजकुमार पिताथी रीसाईने देश-विदेश फरतो हतो. एक वखत एक धर्मशाळामां रात्रे ते सूतो हतो. बाजुमां एक गरीब भिखारी सूतो हतो. बनवा जोग बन्नेने 'पूर्णिमानो चंद्रमा पोताना मुखमां पेठो' एवं स्वप्न आव्युं. विवेकी राजपुत्रे श्रीफळ आदि सत्कार पूर्वक एक नैमित्तिकने स्वप्न, फळ पूछt'सात दिवसमां राज्य मळशे' एवं फळ सांभळी सहर्ष तेणे वधावी लीधुं ने तेनी कन्या साथे विवाह को. ते नगरनो राजा अपुत्रीयो मरण पाम्यो. मंत्री वगेरेए पंच दिव्य कयां. हाथणीनी सुंढमां कळश आप्यो, तेणे मूळदेव पर अभिषेक कर्यो ने ते राजा थयो. स्वप्नना फळथी राज्य मळ्युं छे, ए वात फेलाता फेलाता पेला रंक-भिखारीना काने आवी, ते Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्री वैराग्य शतक विचारवा लाग्यो के : - मने पण एवं ज स्वप्न आवेखें में मारी जेवा एक जणने कहेलुं ने ते दिवसे मने खीर खावा मळी हती, पण हवे एवं स्वप्न आवे तो आनी माफक करी राजा बनूं. एवं स्वप्न लाववा माटे हमेश ए पहेलां सूतो हतो ते जग्याए सूवे छे ने स्वप्ननो विचार करे छे, शुं फरीथी तेने ते स्वप्न आवे ने ते राजा बने ! ना ए बनवू अशकय छे. कदाच ए थाय, पण धर्म कर्या विना गुमावेल नरभव फरी नज मळे. (८) (९) द्रष्टान्त सातमुं 'राधावेध मुं. राधानां मुख नीचे चक्रो सवळां अवळां फरतां चार, तेल कटाहीमां प्रतिबिम्ब निरखतो उभो राजकुमार. ते राधा- वामनेत्र ते चपळवीरथी पण वींधाय, पण सुकृत विण गतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय विवेचन-पुरुषनी बहोंतेर कळामां "राधावेध"नी कळा सर्वोपरी छे. ते आ प्रमाणे छे एक ऊंचो थांभलो ऊभो करेल होय, तेनी टोचे एक (फरती) पुतळी होय तेनुं नाम 'राधा' तेनी नीचे आठ चक्रो होय तेमांना चार जमणी बाजु फरता होय ने चार डाबी बाजु फरता होय. नीचे तेलनी कडाइ होय तेमां आठे चक्रो अने पुतळीनुं प्रतिबिम्ब (छाया) पडतुं होय. वचमां त्राजवू होय, तेना बे पल्लामां बे पग राखी प्रतिबिंबमां जोईने धनुष्य बाणथी उपर रहेल Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक राधानी डाबी आंख वींधवी जोईए जो विधाय तो 'राधावेध' थयो कहेवाय, एक तो त्राजवाना पल्लामां धनुष्य लईने ऊभुं रहे ज मुश्केल छे, बीजुं तेलमां जोतां चक्कर आवे ने पडी जवाय, बाण छोडया पछी पण चक्रना आरा साथे अथडाईने नीचे पडे, तेमांथी पसार थाय तो पण पुतळीना कोईपण अवयव साथे भटकाय पण डाबी आंख वींधवी तो अशक्य ज छे. कोई वीर-बहादुर, कळावान् पुरूष एने पण शक्य बनावी साधे पण धर्माराधन कर्या वगर हारी गयेल मनुष्य जन्म फरी मळे नहीं. (९) (१०) दृष्टान्त आठमुं पूर्णचंद्र दर्शनकच्छप देखी पूर्णचन्द्रने दहमां दूर थये सेवाल. आनन्दे ए जोj जोवा लईने आव्यो निजपरिवार. मळी गये सेवाळ सुधाकर कच्छपथी ये कदी निरखाय. पण सुकृत विणगतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय विवेचन- एक विशाल खूब ऊंडो अने मोटो द्रह हतो, तेनी उपर जाडी सेवाल-लील बाजी गई हती. उपरथी जोतां पाणी तो देखाय ज नहीं. लील-लील ज देखाय. एक वखत पूनमनी राते पवनना झपाटाथी थोडी लील खसी गइ ने संयोगवश त्यां आवी चडेल एक काचबाने आकाशमां ऊगेलो पूर्णचंद्रमा देखायो. जोईने तेने खब आनंद थयो. पोताना बाळ-बच्चा वगेरे परिवारने चंद्रमा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक बताववानो तेने विचार थयो, ने बधाने बोलाववा गयो. एटलामां सेवाळ भेगी थई गई ने छीद्र पूराई गयुं. शुं फरी पूनमनीज राते सेवाळ दुर थाय ने काचबो त्यां होय ने चंद्रमाने जोवे ? ना ए बनवुं अश्क्य छे; छता पण समजो के ए बनी जाय, परंतु पुण्योपार्जन कर्या वगर हारी गयेल मानव जन्म फरी मळवो अशक्य छे. (१०) २२ ( ११ ) द्रष्टान्त नवमं 'युग अने समोल 'नुं पूर्वपयोधिमांहे समोलने धोंसरी पश्चिम जलधिमांय, दुर्धरकल्लोले खेंचाता कोइकसमये भेगा थाय. वळी समोल स्वयं ए युगनां विवरविषे पण पेसी जाय, पण सुकृत विण गतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय विवेचन-गाडामां बळदने खांधे जे धोंसरी मुकवामां आवे छे, तेने संस्कृतमां 'युग' कहे छे. तेमां एक छिद्र होय छे, बळद आघो पाछो खसी न जाय माटे ते काणांमां एक लाकडानो टुकडो नाखवामां आवे छे तेने 'समोल' कहे छे. कोइ कुतूहली देव एक धोंसरी अने समोलने छुटा छुटा करी, लवण समुद्र के स्वयंभूरमण समुद्रना पूर्व अने पश्चिम भागमां नाखे, ते बंने समुद्रना मोजाथी उछळता खेचाता खेंचाता भेगा थाय अने आपो आप समोल (लाकडानो कटको) धोंसरीना छिद्रमां पेसी जाय, ए बनवुं बहुज मुश्केल छे कदाचित् ए बने, पण Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक एमने एम खावापीवामां-मोजमजामां गूमावी दीधेल नरजन्म फरीथी मळे नहि. (११) (१२) द्रष्टान्त दशमुं 'मणिस्तंभ'नुं कोई कुतूहली देवमणिमयस्तम्भनुं चूर्ण करीने जाय, मेरूशिरे चूर्ण नळीमां नांखी सर्व दिशा विखराय. ए अणुओने वीणी वीणी देवे पाछो स्तम्भकराय, पण सुकृत विण गतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय विवेचन-एक गम्मती देवने गम्मत करवानुं मन थयुं, तेणे मोटो तद्दन मणिओनो ज बनावेल थांभलो लईने तेने खांडीने झीणुं चूर्ण कर्यु, पछी ते बधुं चूर्ण एक भुंगळीमां भरीने मेरू पर्वतना शिखर उपर गयो, पछी फुक मारीने ते चूर्णने दशे दिशामां उडाडी मुकयु. पछी तेणे विचार कर्यो के आ चूर्णना कणीए कणीआ, अणुए अणु एकठा-भेगा करीने पाछो हतो एवो थांभलो बनावं. शुं देवता एना एज परमाणु भेगा करी थांभलो बनावी शके ! ना ए असंभवित छे. कदाच देव ए करी शके. तो पण मानव जन्म हारी गयाँ पछी अनंत पुण्य उपार्जन कर्या सिवाय मळी शके नहीं. (१२) (१३) न बनवा बने पण पुण्य वगर नरजन्म न मळे. ऊगे सूरज पश्चिममां ने पूर्वदिशामां अस्तज थाय, सागर मर्यादा मुके ने सिंह कदाचित खडने खाय. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्री वैराग्य शतक चन्द्र थकी अंगार झरे ने वासीदे सांबेलुं जाय, पण सुकृत विण गतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय विवेचन-सूर्य पूर्व दिशामां ऊगे छे ने पश्चिममां अस्त थाय छे. तेने बदले - पश्चिममां ऊगे ने पूर्वमां आथमे. बधा मर्यादा छोडे छे. पण समुद्र पोतानी मर्यादा मुक्तो नथी. ए पण मर्यादा छोडीने भरत वगेरे क्षेत्रोने पलाळी नाखे. मरी जाय पण सिंह खड न खाय, ए घास पण खावा मांडे. अमृत-झरतो चंद्रमा आगना भडका ने अंगारा वरसावा लागे. कचरो काढता वासीदामां खांडवानुं मोटुं सांबेलुं पण हाल्युं जाय. पण अनंत पुण्ये मळेल मानव जन्म धर्म कर्या सिवाय-सुकृत मेळव्या वगर-सदाचार पाळ्या विना, परोपकार केळव्या वगर गुमावाय तो फरी ए मळे नहि. अपार भवचकमां एनो पत्तो पामवो मुश्केल थई पडे, माटे पुण्य करणी करवामां निशदिन प्रयत्नशील रहे. (१३) इति मानवजन्मदुर्लभतावर्णनोऽधिकारः अथ नरकदुःखवर्णनोऽधिकारः (१४) चेतनने चेतवणी शाने मान धरे छे चेतन केम हसे छे थई मस्तान, कनककामिनी झंखे शाने व्यसन विषे थईने गुलतान, कनकक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक २५ मृत्युराक्षस जो आ आवे नरककूपमां नांखण काज, चेत चेत चेतन ? आ समये नहींतर तारी जाशे लाज. विवेचन-हे आत्मन् ! तारी पाछळ मृत्यु राक्षस पडयो छे, तुं सावचेत थई जा. तने पकडीने ए नरककूवामां नाखवा इच्छे छे, तुं गफलतमां रहीश ते नाखी देशे; आ तारे लहेर करवानो वखत नथी. तारे माथे मोत भमे छे ने तने अभिमान शानुं थाय छे ! तुं मदमस्त बनी हसे छे केम ! स्त्री साथे विलास करवानी अने सुवर्ण एकटुं करवानी झंखना-इच्छा तुं शा माटे धरे छे ! एमां मूच्छित न था, शुं व्यसनोमां-कुटेवोमां, खावा - पीवामां, आसक्त थवुं, गुल्तान बनवुं तारे उचित छे ! चेतन ! चेत- जाग, ऊभो था, मरणथी बचवा धर्मनुं शरण ले, नहितर मृत्युराक्षस तारू खावुं - पीवुं धूळ करी नाखशे. तारी इज्जत - आबरू नहि रहेवा दे. माटे सचेत रहे. (१४) (१५) धर्मनी सहाय वगरना प्राणीने मृत्यु - राक्षस नरकमा लई जाय छे. त्यांनी परिस्थिति केवी छे ए वर्णवतां प्रथम त्यां रहेवानी पृथ्वीनुं स्वरूप अने आयुष्य बतावे छे. ज्यांनी दुर्गन्धांशथकी पण नगरलोकनुं मृत्यु थाय, सागरोपमनां आयुष्य मोटां छेद्यां पण ते नव छेदाय, करवतथी पण कठिन स्पर्श जाणे भालानो मार मराय, ऐ दुःख नरकतणां हे चेतन ? कहेने तुजथी केम खमाय. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्री वैराग्य शतक विवेचन-नरक एटले तीव्र दुर्गन्ध दुर्वासनुं संग्रह स्थान, एनुं नाम ज नरक, ए दुर्गन्ध एवी के तेनो एक कणीयो पण जो अमदावाद जेवा मोटा शहेरनी वचमां लावीने मूकवामां आवे, तो त्यां रहेतां बधा माणसो मूच्छित थईने मरी जाय. आवी दुर्गन्धमां बे पांच क्षण (मीनीट) के कलाक बे कलाक नहि रहेवार्नु, पण ओछामां ओछु दश हजार वर्ष, ने वधारेमां वधारे तेत्रीश सागरोपम मरवानुं मन थाय पण न मराय, छुटवानी इच्छा थाय पण न छुटाय, ए आयुष्य पूरूं करे ज छूटको. ए अनपवर्तनीय एटले घटीवधी न शके एवं जीवन. जे भूमि उपर बेसवानुं के ऊ/ रहेवा- ए भूमि जाणे करकरीयावाळी करवतो गोठवी न होय एवी कठिन ने तीक्ष्ण, चालता तो पगमां भाला भोंकातां होय एम लागे. हे चेतन ! आवा दुखः ताराथी केम खमाशे ! केम सहन थशे ! त्यां न जवू होय तो जीवन सार्थक कर-सुकृत कर. (१य) (१६) नारकीनी ठंडीनुं वर्णन कोई समर्थ लुहारपुत्रथी पक्षदिवस तक खूब तपाय, लोढानो गोळो ते लइने शीतनरकमां जो मुकाय. निमेष मात्रमा ते गोळो ते शैत्य थकी क्षय पामी जाय, ए दुःख नरकतणां हे चेतन ! कहेने तुजथी केम खमाय. विवेचन-केटलीक नारकीओमां एटली शीत-ठंडी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक . होय छे के ए तो एज सहन करी शके. युवान, सशक्त, निरोगी एवो लुहारनो पुत्र एक मोटा लोढाना गोळाने अग्निमां पन्दर दिवस सुधी सतत तपावे, ने पछी ए गोळो शीत नरकमां लइने मुकवामां आवे तो ए ठंडो पडी जाय एटलुं ज नहिं पण निमेष मात्रमां आंख मींचीने उघाडीए एटलामां ए गोळो ठंडीथी भांगीने भुक्को थई जाय, तेना अणुए अणु छुटा पडी जाय. आवी ठंडीनी वात सांभळता पण तने टाढ चडती होयतने डर लागतो होय, तो हे जीव ! पापथी पाछो फर, दुष्कृत करतो अटक, सदाचारी बन. (१६) ( १७ ) नारकीनी गरमीनुं वर्णन. २७ ग्रीष्मतापथी आकुळ व्याकुळ हस्ती पुष्करिणीमां न्हाय, जे शान्तिनो अनुभव एने शीतळ जळमां न्हातां थाय. मनुष्यलोकनां उष्णक्षेत्रमां पण नारकीओ युं हरखाय, ए दुःख नरकतणां हे चेतन ? कहेने तुजथी केम खमाय. विवेचन- पुष्करिणी वावमां एकदम शीतल जल होय छे. उनाळानी गरमीथी आकुल व्याकुल, खिन्न, बेचेन बनेल हाथीने ए वावमां स्नान करवा-क्रीडा करवा छुटो मुक्यो होय, तो ते एकदम आनंदमां आवी जाय, तेना कलेजामां एकदम ठंडक वळे एवी ज़ ठंडकनो- शान्तिनो अनुभव जो गरम नारकीमां गरमी अनुभवता नारकीने अहिंना उष्णमां उष्ण Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्री वैराग्य शतक गरममां गरम के ज्यां १२०थी १२५ डिग्री ताप पडतो होय, एवां क्षेत्रमा लावीने मुकवामां आवे तो थाय. एने एम लागे के मने पुष्करिणी वाव मळी. हे चेतन ! एवी गरम नारकीमां न जq होय तो आत्महित करवामां तत्पर बन. (१७) (१८) नरकना विविध दुःखोनु वर्णन. स्वीयमांसनुं भोजनने उकळता ताम्ररसोनुं पान, तीव्रशस्त्रथी छेदन भेदन ने वैतरणीमांहे स्नान. देहतणां ज्यां खंड करीने तप्त तेलमा खुब तळाय, ए दुःख नरकतणां हे चेतन ! कहेने तुजथी केम खमाय. विवेचन-जेओए आ जन्ममां दया नथी पाळी, महाहिंसा आचरी छे. मुंगा प्राणीओने हणीने तेनुं मांस खाईने पोतानो देह पोष्यो छे. मदिरापान करीने-दारू पीने, उन्मत्त आचरण कर्यु छे. एवा आत्माओने नरकमां परमाधामी-देवो तेनाज शरीर कापीने, कडकडती कडाईमां तळीने खवरावे छे. भूख लागे त्यारे पोताना ज अंगोपांगने आरोगवा पडे छे. तरस छीपाववा माटे धग धगता तांबानो रस पीवा मळे छे. लोही-परू -रसी-मांस हाडकाथी भरेली वैतरणी नदीमां पराणे नवरावे ने तेमांथी नीकळवा न दे, नीकळवा जाय तो उपरथी मार मारे. हे चेतन ! ए दुःखथी डरतो हो तो प्रथम पापाचरणथी डरजे, पाप करतां विचार करजे, नहिं तो ए दुःखो भोगव्ये ज छुटको छे. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक (१९) हिंसक अने व्यभिचारी जीवोने नरकमां पडता दुःखोकरवतथी कापे देवो ने, वज्रप्रहारे चूर्ण कराय, शाल्मली वृक्ष उपर आरोपे, ने कुम्भीपाके पकवाय तप्त लोहनी पुतळी केरूं, आलिंगन ते केम कराय, ए दुःख नरकतणां हे चेतन ! कहेने तुजथी केम खमाय. विवेचन-जंगलना घास ने झरणाना जल पीता, हरण, ससला वगेरे निरपराधी जीवोने जेओ मृगया ने ब्हाने, शिकारने कारणे हणे छे. जीभनी लालचे के धर्मने नामे जेओ घेटा-बकरा, पाडा, वगेरेनो वध करे छे, ते जीवोने नरकमां परमाधामी देवो करवतथी कापे छे, वज्रथी मारे छे. तेना शरीरने दळी दळीने लोट करे छे. सोयनी अणी जेवा तीणा पांदडा-कांटाथी भरेल ने तलवारनी धार जेवी तीक्ष्ण डाळीवाळा शाल्मली नामना झाड उपर चडावे छे. कुंभीगागरमां पूरी गुंगळावी अग्निथी पकावे छे- सीजावे छे. अग्निमां खूब तपावीने लालचोळ करेल लोढानी पुतळी साथे आलिंगन करावे छे, भेटाडे छे, बाथ भीडावे छे ने उपरथी घण मारीने कहे छे, केम ! परस्त्री भोगववामां बहु रस पड्यो हतो, ले लेतो जा मजा ! रे जीव ! आ सांभळता पण जो तने भय थतो होय तो शिकार-जीववधपरस्त्रीगमनथी दूर रहेजे, तेनी सामु पण न जोतो, (१९) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक (२०) जेणे बीजाना दुःखनी दरकार नथी करी एवा जीवोना नरकना दुःखो - उछाळे आकाशे नीचे नाखी छेदे नाक ने कान, शेके उनी रेतीमां ज्हेने नहीं परना दुःखनुं ज्ञान. आंतरडां खेंचीने रौरव दुःख दीये ते नैव कहाय. ए दुःख नरकतणां हे चेतन ! कहेने तुजथी केम खमाय. ... विवेचन-अहीं बीजाने दुःख दईने सुखी थता-आनंद पामता जीवोने परमाधामीओ पण एवाज दुःख दे छे. ते देवोने बीजाने केQ दुःख थाय छे, तेनुं ज्ञान-समज नथी. तेओ नारकीना जीवने आकाशमां ऊछाळे, नीचे पडताने भालापर झीले ने भालाथी तेना नाक-कान वगेरे अवयवो छेदे. अतिशय गरम रेतीमां धाणीनी माफक शेके-/जे. पेटमां वांकां शस्त्रो भरावीने आंतरडां बहार खेंची काढे. एवा एवा भयंकर दुःखो दे के जेनो कहेता पार न आवे कहेता काळजु कम्पे, कह्या न जाय, एवा दुःखथी बचवा, हे चेतन ! बीजाना सुखे-सुखी ने दुःखे-दुःखी थतां शीख, मैत्रीभाव केळव, धर्माभिमुख बन. (२०) (२१) नारकीना जीवोनी भुख-तरसनुं वर्णन. सर्वक्षेत्रना सर्वधान्यथी नरकजीव नव एक धराय, सर्व समुद्रनुं जळ पीवे पण तृषा तेहनी शान्त न थाय. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ३१ इर्ष्याथी बळता ए जीवो एकबीजाने खावा धाय, ए दुःख नरकतणां हे चेतन ! कहेने तुजथी केम खमाय. विवेचन - चोवीशे कलाक रात ने दी. खा खा करे तो पण नारकीना जीवनी क्षुधा - भुख भांगे नहिं. भरत वगेरे बधा क्षेत्रमां निपजता बधा धान्य- अनाज एने खवरावीये, तोय ए तो भुख्यो ने भुख्यो. एनी तरस पण एवी. नदीतळाव-सरोवर वगेरेनुं पाणी तो शुं पण बधा समुद्रनुं पाणी तेने पीवरावीये तोय ए तरस्यो. त्यां नारकीमां आवी भुख ने तरस शान्त करवा माटे घणां फांफा मारे, एक बीजा परस्पर एक बीजाना शरीरने खाय-बचका भरे, एक बीजानुं लोही पीवे, लडे ने नितान्त वेदना - दुःख सहन करे. हे चेतन ! तुं बीजाने खवरावीने खा. थोडामांथी थोडुं पण भुख्याने अन्न दे, तरस्याने पाणी पा, तो आवी भुख तरस तारे सहन करवानो प्रसंग नहिं आवे, नहिं तो तारी पण एज दशा छे. माटे पहेलेथी चेतीने चालजे. (२१) (२२) आ नारकीनुं वर्णन 'सर्वज्ञ भाषित' छे माटे मानवुं जोइए. केवल ज्ञानी जिनवरदेवे सर्व लोकना भाव कहाय, सर्व सत्य सद्दहतो पण तुं शाने संसारे मुंझाय. दीवो हाथ छतां पण अमृत ? शाने उंडे कूप पडाय, ए दुःख नरकतणां हे चेतन ! कहेने तुजथी केम खमाय. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक विवेचन-हे भव्य ! तने भगवानना वचन पर विश्वास छे ने ! तने खात्री छे ने के सर्वज्ञ असत्य न कहे, तने श्रद्धा छेने के रागद्वेष विनाना परमात्माने बनावटी वात करवाने कंइ कारण नथी, ए प्रभुए आ नरकना दुःखो बताव्या छे-उपदेश्या छे. एज वीतरागना आगममां आ सर्व स्पष्ट वर्णन छे. ए सर्वने श्रद्धापूर्वक साचुं समजतां छतां संसारमा केम मुंझाय छे. ! मोह केम करे छे हे चेतन ! हे अमृत ! हे आत्मन् ! हाथमां दीवो छे छतां ऊंडा कुवामां केम उतरे छे. छती आंखे आंधळानी माफक शा माटे आथडे छे. घणो वखत ऊधो फर्यो हवे तने मार्गदर्शक मळ्या. सवळा फेरा फर. मार्गे चडी जा, दुःखथी डरतो हो तो ए रस्तो छोडी दे. तने प्रभु मळ्या, धर्म मळ्यो. गुरू मळ्या तेनी तन-मन-धनथी सेवा कर. एज सत्य समज, बाकी बधुं झांझवाना जळ-चार दिवसनी चांदनी, एमां मुंझायो तो तारो पारज नहिं आवे, नरकमां चाल्यो जइश, चीसो पाडीश, तो य त्यां तारो बाप कोई छोडावा नहिं आवे. माटे हजु चेती जा, हजु कंई बगडयुं नथी. ऊठ ऊभो था-गुरू ना चरणमां शिर जुकावी दे. संयमनी छायामां बेसी जा. धर्म करवामां बल-वीर्य-उद्यम फोरव, एज तारा जीवन- सर्वस्व छे. इति नरकदुःखवर्णनम् । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ श्री वैराग्य शतक ॥ अथ स्त्रीमोहत्यागाधिकारः । (२३) स्त्रीना मोहमां फसायेल आत्माओ नरक वगेरेना दुःखो सहन करे छे, माटे स्त्री पर राग-मोह ओछो करवा-न करवा स्त्री, वैराग्य जनक विविध वर्णन. तेमां प्रथम आत्मा भवसमुद्रमांथी बहार न नीकळी जाय माटे स्त्रीरू पी शिला गळे बांधेल छे, ए वर्णनसर्व चेतनो भवसागरमां जेने लईने डुबी जाय, कर्म नृपतिए एम विचारी सुंदर शिल्ला एक घडाय. स्त्री कामिनी सुंदरी महिला एवां एनां नाम पडाय, सर्व दुःख- साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने व्हाय. विवेचन - घणा आत्माओने संसार-सागरनो पार पामता जोईने, कर्मराजाने विचार थयो के-आ रीते जीवो जो पार पहोंची जशे तो मारी वस्ती तद्दन घटी जशे. चिन्ता-मग्न जोईने मोह नामना मंत्रीए राजाने पूछयु के-शुं चिन्ता करो छो! राजाए उपर प्रमाणे जणाव्युं, मंत्रीए कह्यु -एमां चिन्ता जेवू शुं छे ? आपणे एक शिल्ला बनावीए ने दरेकने गळे बांधीए एवी सुंदर शिल्ला बनावीए, के बधा होंशे होंशे - पराणे बंधावे बस गळे शिल्ला वळगी एटले आपणे निश्चित-ए डुब्या ज रहेवाना. पछी तरी शकवाना नहिं.. एम विचार करीने एक मनोहर शिल्ला घडी-ए शिल्ला, एज स्त्री, एने कामिनी-ललनासुंदरी-महिला-नारी-वनिता-कान्ता-सीमन्तिनी-प्रमदा वगेरे गमे Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ते नामे बोलावो पण बधुं एनुं ए, एने भारे बधा दबायेला छे, एनो मोह न होय, तो क्यारनो पार आवी जाय हे चेतन ! एवी स्त्रीना मोहमां शा माटे फसाय छे ! (२३) । (२४) स्त्रीना वचन-वदन अने नयनमां मोहाता जीवोने उपदेशस्नेहमनोहर वचन वधूनां हरिणगीतनी जेवां जाण.. शशीसममुख तेसुखकरनहिं पण पतंगदीपनी जेवं मान. नेत्र बाण ए बाणज कोमळ हैयुं जेनाथीय वींधाय, सर्व दुःख- साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने व्हाय. विवेचन-हे आत्मन् ! स्त्रीनां स्नेहाळां-मनने मोह पमाडतां वचन सांभळीने मुंझातो नहिं. फसायो तो-मरायो समजजे, शिकारी हरणने पकडवा गीत गाय छे, मदारी सापने सपडाववा मोरली वगाडे छे एवं आ जाणजे, आ स्त्री ए मोह राजानी मोरली छे. एना मुखमांथी नीकळता वचनो शिकारीनी मोरलीनी माफक भयंकर छे, एमां आसक्त थयो तो मोह-मदारी पकडीने तने नचावशेभमावशे, तारा दुःखनो पछी पार नहि रहे. आ स्त्रीना मुखमां मोह न करतो. शशिवदना-चंद्रमुखी वगेरे शब्दो सांभळी, स्त्रीना मुखने चंद्र न समजी बेसतो. पतंगीयुं दीवामां मोही झंपलावे छे ने प्राण खोवे छे. एम हे पतंगीया ! तारे माटे ए मुख, दीवानी शिखा छे, तुं एमां मोह्यो तो मर्यो समज्जे. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ श्री वैराग्य शतक एनी कामणगारी आंख-ए मोहे धनुषनी पणछपर चढावेलु बाण छे, ते तारा हैयामां भोंकाशे तो तुं ढळी पडीश. ए पण साधारण नथी, पण झेर पायेलुं छे, तेनुं तने झेर चडशे. ए उतार्यु नहिं उतरे. तने रीबावी रीबावीने मारशे स्त्रीनी आंख माटे एक कविए कह्यु छे के अमी हलाहल मद भरे, श्वेत-श्याम कचनार, जीवत-मरत झुकी झुकी परत, जही चितवत इकवार. __ अर्थ-स्त्रीनी आंखमां त्रण रंग छे, तेमां सफेद रंग ए अमी-अमृत छे. बीजो श्याम-काळो छे ते हलाहल-झेर छे, ने त्रीजो कचनार-पीळचटो छे ते मद-मदिरा-दारू छे. स्त्री एक वखत ज विचार करे के मारे सामाने जीवाडवो छे. मारवो छ ने उन्मत्त-गांडो-उल्ल बनाववो छे तो तेने वार न लागे, आंख मारे एटली ज वार. माटे हे भोळा ! हे जीव ! स्त्रीथी दूर रहे एना फंदामां न फसाय. (२४) (२५) स्त्रीना हावभाव अने वेष भूषामां मोह पामतां जीवोने उपदेश. हावभाव हस्तादिकनो ते कामपिशाचतणो आवेश, आभरणो छे भारभूत ने इन्द्रजाळ समो छे वेश. चाल विगेरे जोतां जीवो कैक दुःखने दरीये जाय, सर्व दुःखनुं साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने च्हाय. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक विवेचन - हे आत्मन् ! स्त्रीना हाथना चाळा - लटका मटका-अंगमरोड-हावभाव जोईने एमां मोहातो नहिं, तात्विक द्रष्टि विचार करजे. तो तने लागशे के आ तो काम पिशाचना चाळा छे. भूतावेश थाय ने जेम तेम धुणे डोले - बोले एवं आ छे. आ घरेणां भारभूत छे, हाथमां कंगण अने पगमां झांझर, एने बेडीरूप छे. गळामां हार ए हार नथी, पण मारनो - कामदेवनो फांसो छे. नाकमां नथनी ए नाथ छे, तने पशु समजी नाथ्यो छे. आ वेश जोई विचारजे, के ए जाळ छे, इन्द्र जाळ - माया एमां मुंझातो नहिं. भले ए गति - चाल हंसना जेवी होय के गज- हाथीना जेवी, भले ए चालमां रुमझुम-रूमझुम, ठमक - ठमक मीठो अवाज होय, पण तारे माटे भयरूप छे. एमां आसक्त थयेल कैंक प्राणिओ दुःखना दरीयामां डूबी मर्या, माटे सर्व संकटना कारणभूत स्त्रीथी हे चेतन ! चेतीने चालजे (२५) ३६ - (२६-२७) अशुचि - दुर्गन्धि - मळमूत्रथी भरेल नारीना देहमां राग न करवा उपदेश दूर रहेली अल्पमात्र पण दुर्गन्धि देखी दुहवाय, मुख मरडे ने नासिकाने ढांकी झटपट दूरे जाय, ते दुर्गन्धिथी ज भरेलो शुं नव नारी देह जणाय सर्व दुःखनुं साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने च्हाय. अस्थि मज्जा आंतरडा ने रुधिर मांस तणो भंडार Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ नि श्री वैराग्य शतक चर्मस्नायुमलमूत्रतणी कोठीमां शो लागे छे सार. अशचि ने अस्थिर पदार्थोना फांसामां कोण फसाय, सर्व दुःखनुं साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने च्हाय. विवेचन-चेतन ! जरी विचार कर, आंखो उघाडीने जो, जरा दुर्गन्धि होय, खराब वास आवती होय-बदबो मारती होय, संडास के खाळना बारणा खुल्ला होय, त्यांथी पसार थतां माधुं फरी जाय-मोढुं मरडाय, नाक दाबीने थोडीवार श्वास लेवानुं पण बंध राखीने एटलो रस्तो एकदम पसार करी, दूर जाय छे, पण जो-विचारी जो जे स्त्रीमां तने राग थाय छे, ते देह-शरीर शुं छे. दुर्गन्ध- संग्रहस्थानबारस्थानेथी निरन्तर अशुचि वह्याज करती खाळ उपरना रूपमां मुंझा मा. अंदर जो तो कांई नहि देखाय. मल्लिनाथस्वामिने परणवा छ मित्रो आवेल. पोताना जेवी ज पोली-पुतळीमां हमेश आहार नाखवामां आवतो, ए एकदम गंधाई उठेल, छए जण आव्या त्यारे ते पुतळीनी उपरनुं ढांकण खोली नाखवामां आव्युं, माथु फाटी जाय एवी दुर्गन्ध वछुटी. बधाए ढांकण एकदम बंध करवा कह्यु, मल्लिकुंवरीए समजाव्यु के:-आमां-ने मारा देहमां शुं फेर छे? ए पण आहारनो विकार छे, आ देह पण आहारनो विकार छे, छए प्रतिबोध पाम्या-समज्या वैराग्य वासित थया. हे चेतन ! तुं पण एज विचार कर, स्त्री- शरीरमांस-मेद-मज्जा-लोही ने हाडकाथी भरेल, चामडाथी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्री वैराग्य शतक वींटेल. एमां मोह पामवा जेवू शुं छे ! ए मळमूत्रनी कोठीमां सार शो छे ! ए मायामां कोण मुंझाय ए फंदामां कोण फसाय. ए मोहमां अनंत भव अथडामण करी, पार न आव्यो, माटे हवे एनो त्याग करी वैरागी बन-निविषयी बन, मन वश कर-स्त्री तरफ दृष्टि पण न कर. तो जलदी छुटीश. (२६-२७) (२८-२९) नारीनी विविध भयंकर वस्तुओ साथे सरखामणीविषवल्ली पण भोंय न उगे सिंहण पण गुफा नहीं ठाम मोटो व्याधि पण वैद्योनां शास्त्रविषे नही एनुं नाम. मेह विनानी एह विजळी कहो कोणथी जाणी जाय सर्व दुःख, साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने व्हाय. दरमांनव रहेती पण नागणलोहमयी नहीं पण तलवार, देखा दे दिनरात छतां पण राक्षसीनो ए तो अवतार. नहीं प्रवाही पण ए मदिरा जोवाथीय जनो मुंझाय, सर्व दुःखनुं साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने व्हाय. विवेचन-कोई कहेशो के ए कई वस्तु छे. ए झेरीली, जोवा मात्रथी झेर चडे एवी विषनी वेलडी छे. पण जमीन उपर उगती नथी. ए हाथमां चडे ए बधाने फाडी खानारी सिंहण छे, पण पर्वतनी गुफामां के जंगलमा रहेती नथी. ए चमक चमक करती विजळी छे, पण मेघ-वादळ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ३९ वगर थाय छे. कहो ए शुं छे! ए डंखीली नागण छे, पण दरमा नथी रहेती. ए ताती तलवार छे, एणे घणाना माथा वाढया छे, पण लोढाथी नथी बनी. ए भयंकर राक्षसी छे, पण दिवस अने रात चोवीसे कलाक देखाय छे, रातेज देखाय एवी आ नथी. ए मदिरा-दारु छे, बीजी मदिरा पीवाथी मुझवे, तो आ जोवाथीए नसो-घेण चडावे छे, पण प्रवाही नथी. कहो ! ए कई चीज छे, ओळखी-जाणीसमज्या ! ए, ए छे. 'स्त्री' सर्व संकटनु साधन-सर्व दुःखनुं मूळ एनो मोह छोडयो तो बच्या. बाकी एना सपाटामां आवी. गया तो मर्या समजजो एक कविए कह्यु छ केकनक कनक ते सोगुणी-मादकता अधिकाय, एक खाते बोहरात है, एक पाते बोहराय त्यारे बीजाए वधार्यु कनक कनक ते सोगुणी-कनक वरणी अधिकाय, एक खाते एक पावते, एक देखे बोहराय भावार्थ-कनक- धतुरा करतां कनक -सोनामां मादकता सोगणी वधारे छे. कारणके एक खावाथी मद चडे छे, ज्यारे बीजं मळवा मात्रथी मद चडे छे. धतुरो अने सोना करतां पण कनकवरणी-स्त्रीमां सहुथी सोगणी मादकता छे, कारण के:-एक खावाथी बीजुं पामवाथी मद चडे छे. ज्यारे आने जोवा मात्रथी मद, चडे छे. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० श्री वैराग्य शतक __एवी स्त्रीथी हे चेतन ! चेतीने चालजे, एमां मोह नहिं पामतो. (२८-२९) (३०) अति चंचळ चित्तवाळी स्त्री छे माटे तेमां राग न करवा उपदेशक्षणमां रागी क्षणमां द्वेषी क्षण क्षण जेनुं मन पलटाय, स्वीयपतिने छंडी सत्वर अन्य कने खंते जे जाय. कामण टुंबण ने दुष्कर्मो कार्यों जेनां नित्य गणाय, सर्व दुःखनुं साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने व्हाय. विवेचन-स्त्री, मन-विजळी करतांय चंचळ, वायु करतांय चपल, एनो राग क्षणिक-पळ पहेलां प्रेम बतावती होय ए पळ पछी द्वेष करे क्रोध बतावे. एक क्षणे हसती होय, ए बीजी क्षणे रोती देखाय. एने बधाय चेन-चाळा करतां आवडे. कृत्रिम ढोंग करतांय आवडे. जुठं जुटु रोवे ने रोवरावे. हसे ने हसावे. एना दंभनो छेडोज न जणाय. कामदेव जेवा पोताना पतिने छोडी कुबडानी सोडमां भराय. शुं पिंगला, राजा भर्तृहरीने त्यजी एक तुच्छ महावतना मोहमां नहोती पडी ! एटलं ज नहिं पण पोतानो पति पंपाळे ए न गमे, ने प्रीतम (मानेलो-प्रेमी) खासडा मारे ए खंते खाय. पोतानो स्वामी फुलनो दडो मारे तो मूच्छित थई जाय ने पारकाने हाथे हाथीनी सांकळना मार खाय, एवी ए दुष्ट जात पोताना पतिने मारवा, शो'कने सताववा, तेने सन्तान न थाय Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक माटे कामण-टुंबण करे, दोरा-धागा करे, अडदना लाडु मंत्रीने मुकावे-खवडावे. अडदना पुतळा दाटी राखे कैंक करे, न करवानुं करे. ए दुष्कृत्यथी नज डरे, हे चेतन ! एवी स्त्रीमां मोहे छे, बधी विपत्तिनुं ए कारण छे. एनी चाहना छोडी दे, तारूं न गुमाव, चेती जा, समजी जा. (३०) (३१) ए अबळा नथी प्रबळा छे. एमां न फसावा उपदेशबीकण थईने मोटा मोटां साहस कार्यों करवा जाय, पतिपुत्र के भाईव्हेन पण क्षणमां जेनाथीय हणाय. दिवसे कागथकी बीवे ने निशिए नदीए तरवा जाय. सर्व दुःख, साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने व्हाय विवेचन-स्त्री बहारथी बीकण- देखाय, सुकोमल लागे, अतिशय मृदु-पोची जणाय. पण बधुं बहारथी, ए विफरे त्यारे भल-भलाने डरावे, ए एवा एवा साहस खेडे के जाणीने आश्चर्य थाय. ए अतिशय भयंकर स्थाने भटके, एने कोईनो भय न लागे. पोतानी आडे आवता पति के पुत्र, मा के बाप, भाई के ब्हेन, कोईने न जोवे गमे ते होय नहि, एनी गरदन पर छुरी फेरवतां-चलावतां ए- काळजु न कम्पे. निरङ्कुशा नरे नारी. तत्करोत्यसमञ्जसम् । यत्कुद्धां सिंहशार्दूला व्याला अपि न कुर्वते ॥१॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक (अंकुश वगरनी स्त्री पुरुषप्रत्ये एवं अछाजतुं वर्तन करे छे के जे क्रोधे भरायेला, सिंह वाघ के झेरी साप पण करता नथी) ढोंग तो एवा करे के भलभला छेतराई जाय, गमे तेवा चालाकने ए आबाद बनावे. ४२ भरूचमां 'गंग' नामना एक पंडित रहेता हता. श्रीमंत विद्यार्थीओए दक्षिणामां खूब धन आपेल, तेथी घडपणमां परण्या. युवान स्त्री-नर्मदाने पेले पार रहेता - एक आदमी साथे आडे सम्बन्धे जोडाई श्राद्धना दिवसोमां पंडित तेणीने बलि उडाडवा कहे, कागडाने खीर-पूरी नाखवा कहे, त्यारे ए. जवाब आपे के :- हुं एकली नहि आपुं मने कागडानी बीक लागे छे, भोळा भट्ट बधु साधुं माने ने विद्यार्थीओने तेनी पासे ऊभा राखे. पंडित कोईने बोलाववा कहे तो ए कहे के मने परपुरुष साथे बोलता शरम आवे छे, पारकानी साथे वात करतां पण मने आवडती नथी. भट्ट जाते बोलावे कांतो कोई विद्यार्थीने मोकली बोलावे. विद्यार्थीओमां एक छोकरो चालाकने खुब चतुर हतो. तेणे विचार्यु आमां कांईक कपट छे, आ कांई बीकना के सरलताना चिन्ह नथी. रात पडीने बधा सुइ गया त्यारे पेलो चालाक विद्यार्थी खोटं खोटं पडी रह्यो. रातना बार वाग्या एटले माथे घडो मुकी पेली स्त्री निकळी पडी, नर्मदाने कांठे आवी बन्ने कांठे भरपूर - छलोछल वहेती नदी चाली जाय छे. स्त्रीए तेमां जंपलाव्युं ने पहोंची पेले पार. ते वखते ते नदीमां केटलाएक चोर पण आडे रस्ते • Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ४३ उतरता हता. वचमां मगरमच्छना झपाटामां तेओ सपडाई गया. स्त्रीए तेमने कह्युं के :- "मुआ ! नदी उतरवाना मार्ग नथी जाणता. तो उतरो छो शा माटे ने हवे मुंझाव छो, मगरनी आंख दाबी द्यो तो छुटाशे" एम कही चालती थई, छोकरो आश्चर्य पामी गयो. विचारवा लाग्यो, केवुं साहस ! केटली हिम्मत ! प्रसंगे पंडिते बळी आपती वखते तेज छोकराने खबर राखवा उभो राख्यो, ते उभो रह्योने हसीने बोल्यो दिआ कागाण बीहेसि, रति तरसि नम्मयं कुतिथ्याणि य जाणासि, अच्छिणं ढंकणाणि अ ॥२॥ "दिवसे कागडाथी डरे छे ! ने रात्रे नर्मदा तरे छे. त्यां उतरवाना मार्ग अने खराबाने पण जाणे छे, ग्राहमगर वगेरेथी छुटवाना उपाय पण आवडे छे." आ बधुं शुं छे ! तेणीए कह्युं दुनियानुं एमज चाले छे, बधुं मुठीमा राखजे, वधुमां सार नथी. पछीथी ते स्त्री-नर्मदाने पार जवानुं छोड़ी दइ आ छोकरामां लपटाणी ने पंडितने छेह दइ भागी गई. खरेखर ! स्त्रीचरित्र अद्भूत छे, एवी स्त्रीना रागमां न लपटावुं, एज आत्माने बचाववानो उत्तम उपाय छे. (३१) (३२) जुठ-कपट अने मायाना मंदिर रूप स्त्रीथी दूर रहेवा उपदेश मृषावादनुं मन्दिर कंइ बोले ने कई करवाने च्हाय. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्री वैराग्य शतक कपट पुतळीनां मन केरो भाव न कोई थकीय जणाय. सूर्यकान्ता सुकुमालिका जेवा द्रष्टान्तो बहु संभळाय सर्व दुःख, साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने व्हाय. विवेचन :- स्त्री एटले, जुठानुं घर-मायानुं मंदिर ए कांइक कहे ने कांईक करे, कांइक बोलेने कांइक चाले, एने कोई जाणी न शके, एना मननो पार कोइ न पामे. एना देखाडवाना दांत जुदा ने चाववाना दांत जुदा. गमे तेटलो प्रेम करो पण दगो देता ते वार नहिं लगाडे. सूर्यकान्ता सुकुमालिका वगेरे स्त्रीचरित्रना हजारो दृष्टांतो छे. सूर्यकान्तानुं दृष्टान्त :- श्वेताम्बी नगरीमां नास्तिक प्रदेशी नामे राजा हतो. तेने सूर्यकान्ता नामे राणी हती ने सूर्यकान्त नामे कुंवर हतो. धर्म श्रद्धा नहि होवाथी राजानो . घणो खरो समय राणी साथे भोगविलासमां ज वीततो, केशी-गणधरना उपदेशथी राजा धर्म पाम्यो, पोतानी पहेली जींदगी माटे पश्चात्ताप थयो, एटले हवेना जीवननी सार्थकता करवा माटे तेणे पोताना सातहजार गामनी आ प्रमाणे व्यवस्था करी. तेनी उपजनो एक भाग सैन्य वगेरेना पोषणमां, बीजो-अंत:पुरमां, त्रीजो भाग-भंडारमा अने चोथो भाग-दानशाळा आदि धर्म-कार्यमां वापरवो, एवी प्रतिज्ञा लीधी ने श्रावकना व्रतो उच्चर्या, केवळ भोगविलासमां Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ४५ : राचनारी राणीने आ न गम्युं - ए राजाने मारी नाखवाना उपाय चिन्तववा लागी पोताना पुत्रने बोलावीने कधुं के तारा पिता राज्यने वेडफी नाखे छे, श्रावक थया पछी तारी - मारी के राज्यनी बिलकुल दरकार करता नथी, माटे तुं तेने कोईपण उपाये मारी नाखी राज्य लई ले ने सुखेथी भोगवः सडेल पानने दूर करवामां ज श्रेयः छे. माताना आवा वचन सांभळी, कुंवर चूप रह्यो, कांई बोल्यो नहिं राणीए विचार्यु छोकरो ! निःसत्त्व-बायलो - बीकण छे. ए कांई करशे नहिं ने वात फोडी नाखशे माटे हुं ज आ वातनो जलदी निकाल लावुं, एम विचारी राजाने भोजन करवा बोलाव्योचालाकीथी भोजन करता राजाना भोजनमां झेर- भयंकर विष भेळवी दीधुं. ए झेरथी राजाने सहन न थाय तेवी अंगे-अंगमां पीडा थई. राजाने खबर पडी के आकृत्य राणीनुं छे तोपण तेना पर क्रोध न करता, पौषधशाळामां जईने अनशन करी, नमुत्थुणं चिन्तवता, केशि- गणधरनुं शरण लई काळधर्म पामी, सूर्याभदेव थया. सुकुमालिकानुं दृष्टान्त पूर्वे चंपापुरीमां अत्यंत विषयासक्त जितशत्रु नामे राजा हतो. तेने सुकुमालिका नामे राणी हती. मंत्री वगेरे ए संप करी, राज्यमां ध्यान नहि देतां राजाने अने राणीने खुब दारु पीवडावी दूरदूर जंगलमां मूकावी दीधा. घेन उतरी गयुं एटले विचार करवा लाग्या, के आपणे अहिं क्यांथी ! राज्य पाट कयां गयां पछी बन्ने उभा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक थई चालवा लाग्या थोडे दूर गया बाद राणीए कह्यु के :'मने खूब तरस लागी छे' राजा पाणी लेवा गयो, पाणी मळ्यु नहिं, पण राणीना उपर अनहद प्रेमने लीधे पांदडानो दडीयो बनावी - पोतानी नस चीरीने लोहीथी भरी, राणी पासे आवीने कडं के :- 'ल्यो आ गंदा खाबोचीयामांथी आवं पाणी मल्युं छे, ते पीवो' राणी ते गटगटावी गई. थोडे दूर गया पछी वळी राणीए कह्यु - मने भूख खुब लागी छे राजा आहारनी शोधमां थोडे दूर जई, पोताना साथळमाथी मास कापीने लाग्यो ते पक्षीनुं मांस छे एम कही खवराव्यु. ए प्रमाणे रस्तो कापतां कापतां जंगल वटावी एक नगरमां आव्या, घरेणा आदि जे कांई हतुं ते वेचीने तेथी आवेल धनथी वेपार करी राजा निर्वाह करवा लाग्यो. राजा वेपार करवा जाय, त्यारे राणी तेने कहे के:- मने एकहुँ घरमां गमतुं नथी-बीक लागे छे. राजाए एक पांगळा माणसने चेकीदार राख्यो, तेनो कंठ घणो कोमळ हतो. तेनी साथे लपटाई ने तेने घणी तरीके मान्यो. पछी तो रोज राजाने मारवाना प्रसंगो विचारवा लागी. एक वखत वसंतऋतुमां राजा राणीने लई गंगा नदीने कांठे क्रीडा करवा गयो, त्यां खूब मदिरा पीवरावीने, राणीए राजाने नदीना प्रवाहमां वहेतो मुकी दीधो, ने पेला पांगळाने खभे बेसारी गायन गवरावतीभिख मांगती भटकवा लागी, लोको पूछे के : 'आ कोण छे !' त्यारे कहेती के : मारा मा-बापे, आवो स्वामी शोध्यो छे.' Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ श्री. वैराग्य शतक आ बाजु राजा तणातो तणातो एक लाकडानी सहायथी कांठे आव्यो ने एक झाडनी नीचे सूई गयो. नजीकना नगरनो राजा अपुत्रयो मरी गयो ने तेथी मंत्रीओए पंचदिव्य प्रगटाव्या, आ राजा पर हाथिणीए अभीषेक कर्यो ने तेने राज्य मळ्यु. बनवा जोगे पेली राणी पण पांगळा साथे त्यां आवी चढी. गाममां स्त्रीना सतीपणानी अने पांगळाना कंठनी प्रशंसा थवा लागी. राजाए पण बनेने बोलाव्या ने ओळखी लीधां. पछी पूछ्यु, हे बाई ? आने उपाडीने तुं केम फरे छे ! पेलीए कह्यु – 'पिताए जेवो पति आप्यो होय तेने सतीओए इंद्र जेवो मानवो.' ए सांभळी राजा बोल्यो, हे पतिव्रते ! तने धन्य छे - घणीना बाहुन लोही पीधुं - साथळy मांस खाधुं ने छेवटे तेने नदीमां पधरावी दीधो. तारा सतीपणानी वात. थाय. छेवटे स्त्रीने अवध्य जाणी न्यायी राजाए तेने पोतानी हद बहार करी अने स्त्री चरित्र प्रत्यक्ष अनुभवी सर्व स्त्रीनो त्याग को-अपूर्व ब्रह्मचारी बन्यो. हे चेतन ! आवी स्त्रीओमां मोह करीने दुःखमां शा माटे पडे छे. तेनो त्याग करी ब्रह्मचर्यनो अजोड आनंद मेळव के जेथी तारा बन्ने जन्म सार्थक थाय. (३२) (३३) सामान्यपणे स्त्रीना सम्बन्धथी आवी पडती उपाधिओ - आ भवमां पण स्त्रीने योगेचेतन ! चिन्ता अधिकी थाय, Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक पुत्रादिकनां पालण - पोषण माटे धंधा कैंक कराय. शान्ति ने सुखने वेची संताप शोक व्होरी लेवाय, सर्व दुःखनुं साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने च्हाय. ४८ विवेचन - ज्यां सुधी संसारमां न झंपलाव्युं होयविवाह-लग्न न कर्या होय, त्यां सुधी मस्त थई फरतो होय तेने कोइ जातनी उपाधी न होय, कोई जातनी चिन्ता न होय, पण पछीथी ते बे पगो मटी. चार पगो थाय. परण्या पछी 'पइनो' कहेवाय. एक पछी एक जंजाळ वधती ज जाय, एना दुःखनो पार न रहे, हा ? मोहथी ए दुःखने ए गणे नहिं पण दुःख ए दु:ख, रोज सवार पडे ने घरनी चिंता, खावानी चिंता, कमाववानी चिंता, शेठाणी साहेबना हुकमो पर हुकमो छुटतां ज होय, घरमां घी खुटी गयुं छे, तेल नथी, आ लाववानुं छे ते लाववानुं छे वगेरे. बाळबच्चा थाय पछी वात ज न पूछो ए तो वीती होय एज जाणे, घर चलाववा माटे - व्यवहार निभाववा माटे न करवाना धंधा करवा पडे, जेनुं मोढुं जोवुं न गमे एवाओनी गुलामी करवी पडे. हे चेतन ! क्षणिक सुखने माटे शा माटे आ भवमांज महादुःख व्होरी ले छे ! तारा आत्मिक सुख - शान्तिनुं लीलाम शा माटे करे छे ! तारा सर्वे दुःखनुं मूळ - कारण कोई होय तो ते स्त्रीमोह छे एने छोड ! ए उपाधिमां न पड इन्द्रियो पर - विषयपर विजय मेळव तो तारा सुखनी आनंदनी अवधि नहीं रहे. (३३) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x0 श्री वैराग्य शतक (३४) स्त्रीनो मोह छोडवा माटे शुं करवू, ते . समजावे छे. नेमिनाथजी राजीमती वर्जीने चाल्या श्रीगिरनार, शालिभद्रजी-बत्रीश नारी छंडी लेतां संयमभार. मिथिलानृपथी एक ज साथे एकहजारने आठ तजाय. सर्व दुःखनुं साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने व्हाय. - विवेचन-चेतन ! जो तारा हृदयमां बरोबर उतर्यु होय, तने यथार्थ समजायुं होय, तने चोक्कस जची गयुं होय, के मारा दुःखनुं कारण स्त्री छे, तो तेनो राग-मोह छोडी दे. छोडवू ए छोडवू, एमां लांबो विचार न कर, विचारमा वखत न गुमाव. याद कर-रूप रूपनो अम्बार राजीमती जेवी स्त्रीने श्री नेमिनाथजीए छोडीए छोडी सामुए न जोयु - छोडीने, गिरिनार जईने दीक्षा लीधी. ए प्रभुने सामे राखी तुं पण वीर्य फोरव, स्त्रीनो त्याग कर, मन मजबुत करीश तो कठिन नथी. शालिभद्रजी- चरित्र विचार. केट केटली संपत्ति, ३२-३२ स्त्रीओ, आ मनुष्य भवमां पण देवताई भोग भोगववाना, तारे छे एवं घेर सारू खावानाय सांसा छे. ए बत्रीस-स्त्रीओ ने देवताई ऋद्धिने छोडी शालिभद्रजीए संयम स्वीकार्यु तो तारे आ बे हांडली ने झुपडीनो मोह छोडता शो विचार ! । मिथिला अने अवन्तीना अधिपति नमिराजा जेने एक हजारने आठ राणीओ हती, कोई वातनी खामी न हती, कोई Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक वस्तुनो तुटो न हतो, पण सर्व असार मिथ्या पतंगना रंग जेवुं क्षणिक समजाव्यं वैराग्य थयो छोडी देतां वार न लग़ाडी. इन्द्रे कह्युं राजन् ! आ अग्निने वायु तारा घरने अन्त: पुरने नगरने बाळे छे. तूं जोतो खरो ! तेनी उपेक्षा केम करे छे. आ तारा पुत्रने मंत्रीओ सतावे छे राज्यने छिन्न छिन्न करे छे, तेनी संभाळ तो ले ! व्यवस्था करीने पछी संयम आचरजे. राजर्षिए इन्द्रने उत्तर आप्यो. 'हे देवेन्द्र ! मिथिला बळती होय तो तेमां मारा आत्मानुं कंई बळतुं नथी. पत्नी के पुत्र माता के पिता, भाई के भगिनी कोई कोईनु नथी, सर्व स्वार्थना छे. हुं पण मारा आत्मानो स्वार्थ साधु छं मने कंइ शोच करवा जेवुं नथी. ' नमिराजर्षिना वचनथी इन्द्रने घणो संतोष थयो, तेमने वन्दना करी प्रशंसा करीने ते गया. 'नमिप्रव्रज्या' नामना उत्तराध्ययन सूत्रना २१मा अध्ययनमां गुंथायेल नमिराजर्षि अने देवेन्द्र वच्चेनो संवाद मननीय छे. आत्मानो घणो ज हितकारी छे. ५० हे चेतन ! एवा महापुरूषोना जीवन याद करी, स्त्रीना मोहमां फसाया वगर, मळेल जन्मने सार्थक करवा तत्पर था. पछीथी पस्ताई तो कंई नहि वळे, माटे पहेलेथी चेती जा समजी जा, ने जीवनने संयम मार्गे वाळी नरभवने सफल कर. (३४) इति वैराग्यशतके दुःखदायि - स्त्रीमोहत्यागाधिकारः समाप्तः । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ॥ अथ वैराग्यशतके भावनाधिकार- प्रारभ्यते ॥.. (३५) स्त्री आदिमां मोह करावनार विभावदशा छे ने ते विभावदशा वीतराग परमात्माना वचनथी नाश पामे छे. माटे ते वचन- माहात्म्य बतावे छे.सुवर्णवेधकरसने योगे लोह कनकता पामे जेम, ज्ञानी भाषितभावनाभावित चेतन निर्मळ थाये एम. मन्त्रप्रयोगे झेरी नागतणुं पण शुं नव झेर हणाय, कइ विभावरमणता एवी ? जे जिनवचने नष्ट न थाय. विवेचन-चेतनने निर्मळ बनाववो होय, आत्माने विभावदशामांथी स्वभावदशामां लाववो होय तो भगवन्ते भाखेली ने भावेली भावनाओ भावो, भावनानी विचारणा करो जेम लोढुं सुर्वणवेधकरसथी सोनुं थई जाय छे. तेम भावनाना प्रभावे आत्मा विशुद्ध बने छे गमे तेवा डंखीला झेरीला नागनुं झेर मन्त्रना प्रयोगे ऊतरी जाय छे. तेम सर्व विभाव रमणता जिनेश्वर प्रभुए बतावेल भावनाथी चाली जाय छे. भावनाओ बधी मळी १६ छे. तेमां १२ सामान्य भावना छे, ने चार महाभावना छे, आगळ अनुक्रमे सोळे भावनाओनुं स्वरूप बतावाशे. भावनाथी ज भव्य भव समुद्रनो पार पमाय छे, भावनाथी ज आत्मा सर्व दुःखथी मुकाय छे, भावनाथी ज चेतन शिव सुख़ ने मेळवे-छे, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ श्री वैराग्य शतक भावनाथी ज जीव जगतनी जन्जाळथी छुटे छे, भावनाथी ज प्राणी निबिह पाप ने प्रजाळे छे, भावना भवनाशिनी माटे भावना भावो. भावना भाव्या वगर छुटको नथी. केम भाववी ? एम. जो पुछता हो ! तो आगळ ते बताव्युं छे. ते समजो विचारो ने आत्माने भावनाना विचारोथी रंगी द्यो. पछी पछी शुं ! जोई ल्यो एनी मझा, तमनेज जणाशेदेखाशे के कयां खाबोचीयानी दुर्गन्धमां सडतो हंस ! अने कयां मानसरोवरना मोती चरतो हंस ! भावनाथी आत्मानी पूर्णता खील. एने बधुंय पोतामां भर्युं छे एवं भासशे, एथी ए स्थिरता ने शाश्वत दशा पामशे (३५) ( ३६ ) प्रथम अनित्य भावना आयु वायु तरंग समुंने संपत्ति क्षणमां क्षीण थाय, इन्द्रिय गोचरविषयो चंचलसन्ध्यारंगसमान जणाय. मित्र वनिता स्वजनसमागमइन्द्रजालनेस्वप्न समान, कइ वस्तु छे स्थिर आ जगमां जेने इच्छे जीव सुजाण. विवेचन-जीव मानी बेठो छे, संसारना सुखने शाश्वत-तेने मळेल सामग्री कदी पण जवानी नथी, एवो एने मिथ्या मोह छे ने ए एना दुःखनुं मोटुं कारण छे. ए हृदयमां आ अनित्य भावना भावे तो तेनो भ्रम भांगी जाय, शान्तपणे Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ श्री वैराग्य शतक विचार करे तो तेने - आत्माना ज्ञानदिगुण सिवाय सर्व अस्थिर-अनित्य-क्षणविनश्वर जणाय. आयुष्य - पवनथी थतां मोजां जेवुं - पाणीना परपोटा जेवुं ठोकर वागे ने माणस मरी जाय, खावा बेठो होय ने प्राण उडी जाय कोळीयो हाथनो हाथमां रही जाय, वात करतो होय - हसतो होय ने बगासुं खाय, त्यां परलोकमां पहोंची जाय, धन-माल मिल्कत - बधुं जोतजोतमां चाल्युं जाय. इन्द्रियना उन्मादविषयो सांजनी सन्ध्या जेवा चपळ, शरदऋतुना वादळा जेवा चंचळ कुटुंब परिवार - स्वजन - सम्बन्धि ए बधुं मायाजाळ - आज देखाय ने काल एमांनुं कांई नहि. दुनियानी कोईपण वस्तु ल्यो - विचार करो, आखर एनो नाश ज थवानो. हे सुज्ञानि-जीव ! विचार करी जो जगतमां एवी कई स्थिर- सदाकाळ रहेनारी चीज छे के जेनी तुं इच्छा करे छे ! अस्थिर वस्तुने चाहवाथी शुं वळशे. स्थिर वस्तुने शोध ने ते मेळववा प्रयत्न कर. (३६) - ( ३७ ) बीजी अशरणभावना जे षट्खंडमहीनां नेता चौद रत्नना स्वामी जेह, ने जे सागरोपमनां आयुष्यधारी स्वर्गनिवासी तेह, क्रूर कृतान्तमुखे टळवळतां शरणविनानां दुःखी थाय, तन धन वनिता स्वजनसुतादिककोई न एने शरणुं थाय. विवेचन - चेतन ! तने कांईक चिन्ता आवे छे, तने Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्री वैराग्य शतक काई दुःख आवे छे, त्यारे तुं बीजा पासे तारूं दुःख रडे छे. तारा बळापा काढे छे. पण तारी चिंता-तारुं दुःख कोई दूर करी शके एम नथी. तने कोई शरण आपे तेम नथी. तुं जेने मारुं मानी बेठो छे, ते तारूं कुटुम्ब पण केटलुं, पांच पचीश माणसोनुं के वधुमां बसो पांचसो जननु, तेनी तो कई गणत्री ! चकवतिनी लीला जो, छ खंड पृथ्वीना मालिक, चौद रत्नना स्वामी-करोडो माणसो ने देवो तेनी तहेनातमां-सेवामां हाजर, पण मरण आवे त्यारे तेने कोई बचावी शकतुं नथी: अरे ! तेनुं तो शुं ! पण देव-देवेन्द्रोनी पण एज स्थिति एर्नु पळ आयुष्य पुरू थाय एटले खलास, ! गमे तेटलो विलाप करे पण कोई जीवाडी न शके. यमना मुखमां पेसतां-गमे तेटलुं रोवो बचावो बचावोनी बुम मारो पण कोई सहायक न थाय सौ कोई छुटी जाय, हाथ खंखेरी नाखे, लाचारी बतावे, कहे के शुं थाय, आपणां हाथनी क्यां वात छे. शरीर पण सगुं न थाय, ए पण लांबु थईने पडी जाय. धन पण काममां न आवे, स्त्री पण ऊभी ऊभी डुसकां खाय, एर्नु पण कांई न चाले, मा-बाप, भाइभाडं बाळ बच्चा बधां मोढुं विकासीने बेसी रहे. एक फोडली थई होय तो तेनी पीडा दूर करवा कोइ समर्थ नथी. तो मरणनी शी वात. धर्म सिवाय बीजु कोइ जगतमां शरण नथी. एवी अशरण भावना भावता अनाथी मुनिनी जेम धर्मने शरणे जळू एज श्रेयस्कर छे. (३७) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक (३८) त्रीजी संसार भावनालोभ दावानललाग्यो छे ज्यां लाभ जले जे शान्त न थाय, मृग तृष्णासम भोगपिपासाथी जन्तुगण ज्यां अकळाय. एक चिन्ता ज्यां नाश न पामे त्यां तो बीजी उभी थाय. एम संसारस्वरूप विचारी कोण न वैराग्ये रंगाय . विवेचन-संसार भावना भाववी एटले संसारर्नु दुःखदायि स्वरूप विचार, – ने तेथी वैराग्य भाव केळववो संसारनुं स्वरूप जुदे जुदे घणे रूपे विचारी शकाय छे. अहिं संसारनी सरखामणी एक मोटा जंगलनी साथे करी छे. भववन-भवाटवी वगेरे शब्दो आपणे घणी वखत सांभळीए छीए. ए भवमां वनपणुं शुं छे. ए अहिं समजाव्युं छे. वनमां एक भयंकर अग्नि सळगतो होय छे. तेने दावानल कहेवामां आवे छे. एना झपाटामां जे आवे ते बळीने खाख थई जाय. ए कोईने छोडे नहिं. एने बुझववा माटे प्रयत्नो करवामां आवे ते सर्व नकामां जाय. आ संसार काननमां एवो लोभ दावाग्नि सळग्याज करे छे. तेने शांत पाडवा लाभ प्राप्त रूप पाणी जेम जेम छांटवामां आवे तेम तेम ते वधारेने वधारे प्रजळे छे. कडुं छे के : "जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्डइ । दो मासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ॥" वनमां मूंझवनार मृगतष्णा मृगजळनी लालसा छे. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक तेनी पाछळ पडीने घणा पशुओए प्राण खोया छे. संसारमा एवी भोगतृष्णा छे, एनी पाछळ भमतां प्राणीनो आरोज आवतो नथी. एमां ने एमाए खुवार थाय छे. अटवीमां जेम आराम न होय. शुं थशे ! कोई खाई जशे तो ! वाघ वरू वगेरेनो भय, वींछी साप अजगर-आदिनी बीकथी चित्त शान्त न रहे. तेम संसारमां पण आधिव्याधि उपाधिथी क्षण पण आराम नथी. एक वात पते नहिं त्यां बीजी जागे, 'मा छंवडुनी माफक एक पछी एक चिन्ता उठतीज होय, आवा दुःखदायि संसारथी छुटवा कोण न इच्छे ? कोने वैराग्य न थाय संसारना जुदा जुदा चितार विचारवा माटे श्री यशोविजयजी उपाध्यायजी महाराजे रचेल 'अध्यात्मसार' नो बीजो ‘भव स्वरूप चिंता' अधिकार खास वांचवा भलामण छे. आवा-भयंकर भववनथी भय पामता आत्माने वैराग्यनी शीळी छांयज शांति आपनार छे. माटे तेना आश्रये जवू ने भीतिथी बचq. (३८) - (३९) चोथी एकत्व भावनाज्ञान-दर्शन-चारित्रस्वरूपी एक ज आत्मा छे नि:संग, बाह्य भाव छे सघळां एमां स्वामीयतानो नहीं छे रंग, जन्म जरा मृत्यु ने कर्मफळोनो भोगवनारो एक, एम विचार करता जाग्यो नमिराजने चित्त विवेक. विवेचन- 'एगो हं नत्थि मे कोइ' एक Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ५७ एवाद्वितीयोऽहम् आ अने आ जातिना अन्य सूत्रो आत्माने बळवान बनावे छे. आत्मा विचारे के जगतमां कोई कोईनुं नथी तारूं कर्यु तारे भोगववानुं छे. तुं एकलो आव्यो छो ने एकलो जवानो, आ देखातां बाह्य पदार्थोमां तारूं कांई नथी. जन्मतां कांई लाव्यो नथी अने मरतां साथे लइ जवानो नथी. तो पछी वचमां शा माटे मारू तारूं करी दुःखी थाय छे. महापुण्ये मळेल मानव जन्ममां तारूं जे छे, तेनी संभाळ ले. तारो ज्ञान गुण-एक ने अद्वितीय छे. तेने खीलव, तारामां अजोड दर्शन-श्रद्धा-सम्यक्त्व-गुण छे. तेने पुष्ट कर, तारामां अनन्य चारित्र छे ते केळव, विचार कर ! तुं निःसंग छे ए तारुं नि:संग-निरावरण स्वरूप मेळव, तें करेला कर्मोनुं फळ तने ज मळशे बीजो एमां भाग पडावा नहिं आवे. तो पारका माटे शाने तुं पाप करे छे. नमिराजा-आ एकत्व भावना-भावीने संसार पार पाम्या हता. एक हजारने आठ राणीओ हती. एक वखत राजाना माथामां सख्त वेदना थई, ते कोई रीते शांत न पामे. तेना पर चन्दननुं विलेपन करवा माटे राणीओ चन्दन घसती हती. ते घसतां परस्पर कंगण भटकावाथी अवाज थतो हतो. राजाने ते अवाज सहन न थयो. राणीओए सौभाग्यना चिह्न तरीके एक कंकण राखी बीजा काढी नाख्या. - राजाए पूछt के : हवे अवाज केम नथी आवतो. कह्यु के, बीजा कंकणो काढी नाखी-एकएक कंकण राखेल छे माटे अवाज नथी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ श्री वैराग्य शतक थतो. नमिराजा भावनाओ चड्या के कोलाहल-अवाजखळभळाट ए एक बीजाना सम्बन्धेज छे, अन्यना योगथी ज आत्मा आटलो दुःखी छे, मझा एकलामां छे. शांति एकलामां छे. आराम एकलामां छे. हुं एक छं. मारो गुण एक छे. हुं तेने संभाळु, तेने खीलवू, एम विचारी नमिराजाए १००८ राणी राज्यपाट खटपट ने सम्बन्ध मात्रनो त्याग करी प्रत्येक बुद्ध थई, साधुपणुं ग्रहण कर्यु ने इन्द्रे परीक्षा करी तो पण पोतामां द्रढ रही छेवटे पोतापणुं पूर्णपणे प्राप्त कर्यु. एज प्रमाणे एकत्व भवना भावी कल्याण साधो ने परमज्योतिमां एकमेक बनी जाव. एज (३९) (४०) पांचमी अन्यत्व भावनाजेम नलिनीमां जल नित्येभिन्नरहे छे आपस्वभाव, तेम शरीरे चेतन रहे छे अन्यपणुं ए रीते भाव. भेद ज्ञान निश्चळ झळहळतुं सर्व भावथी ज्यारे थाय. तजी ममता ग्रही समता चेतनतत्क्षणमुक्तिपुरीमां जाय. विवेचन-हे आत्मन् ! आ सर्व पदार्थोथी तुं जुदो छे ने ते सर्व ताराथी जुदा छे. तेनी साथे तारे कांई लागतुंवळगतुं नथी. पाणीमां कमळ जेम जुदं रहे छे. तेम तारा शरीरमां पण तुं छे. शरीर ए तुं नथी. तुं जुदो छे. तुं परलोकमां जइश त्यारे शरीर अहिं पडयुं रहेशे, ज्यारे शरीरनी ए दशा छे तो अन्य पदार्थोनुं पूछवू ज शुं ! कोई Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ श्री वैराग्य शतक तारूं नथी. ज्यारे तुं यथार्थ समजीश ! के हुं सर्व बाह्य भावथी भिन्न छं. त्यारे बाह्य पदार्थोमां तने जे मारा पणुं छे ए छुटी जशे ने समभाव खीलशे, तारी ममता विदाय थशे ने समता तेने स्थाने आवशे, ने ए समता तने शीघ्र शिवपुरमां लई जशे 'भेदज्ञानान्मुक्ति' ए वेदान्तिओना वचन- रहस्य आ अन्यत्व भावना विशद रीते समजावे छे, आमां तेनो समावेश थई जाय छे. ए भेदज्ञान-अन्यत्व भाव केळववा प्रयत्नशील बनवू ने भवथी छुटवू एज आ भावना- रहस्य छे. (४०) (४१) छठी अशुचि भावनाछिद्र शतान्वितघट मदिरानो मद्यबिन्दुओ झरतो होय, गंगाजळ्थी धोवे तो पण शुद्ध करी शकशे शुं कोय ? देह अशुचि छे छिदान्वि मलमूत्रादिकनो भंडार, न्हाओ धोवो चन्दन चरचो तो पण शुद्ध नहीं ज थनार. विवेचन-आत्मा नहिं करवाना कामो शरीरने माटे करे छे ने दु:खी थाय छे. शरीरनो मोह चेतन, चैतन्य नाश पमाडे छे. जीवननो मोटो काळ शरीरनी सेवामां वीते छे. धर्मार्थ शरीरनुं रक्षण कर जोईए तेने बदले शरीरने माटे सर्वस्वनो भोग आपवा तैयार थाय छे. ते शरीरमां छे. शुं ! एनो कदी विचार को शरीर एटले अशुचिनो भंडार, शरीर एटले मळमूत्रादिनो खजानो, शरीर एटले गंधातुं खाबोचीयुं, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक दारुना घडाने-कोहवेली मादक वस्तुथी भरेल कुंभने जेने सो छिद्र होय, ने-दरेक छिद्रमांथी वास मारती मदिरा झरती होय, शुं ! ते साफ करी शकाशे ! तेने माटी लगाडो. गंगाना पाणीमां धोवो पण बहार काढो एटले हतुं ए- ए ! एवी कायानी स्थिति छे. पुरुषना नव द्वारे ने स्त्रीना बार बारणेथी अशुचि वह्याज करे छे दिवसमां दस वखत साफ करो, गमे तेटला पाणीथी धोवो, साबु लगाडीने स्नान करो, तेना पर तेल फुल-अत्तर लगावो, चंदननो लेप करो पण घडीकमां बधी वस्तु बगडी जशे. सारामां सारी वस्तु खाधी होय-पण तेनो विकार केवो थई जाय छे. ए आ अशुचिमय शरीर पर मोह ! ने तेने माटे कुकर्मो ! 'असारात् सारमुद्धरेत निःसारसार वगरना पदार्थमांथी पण सार ग्रहण करवो, ए न्याये आ असार शरीरथी सार-धर्म करवो, ए आ अशुचि भावनानो सार छे.' (४१) (४२) सातमी आश्रव भावना ___(शार्दुल विक्रीडित) ज्यां आ जीव अनुभवी सुखदुःखो कर्मीशने निझरे, त्यां तो आश्रवशत्रुओ क्षणक्षणे कर्मो घणाए भरे. मिथ्यात्वादिक चार मुख्य रिपुओ रोकी शकाये नहीं, ने आ चेतन कर्मभार भरीओ जाये न मुकित महीं. विवेचन-आश्रव एटले आत्मामां कर्मर्नु आवq. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक आश्रव ए आत्म-सरोवरमां कर्मपाणी आववानुं द्वार छे. करेला कर्म भोगव्या सिवाय छुटता नथी. अनन्तानंत कर्मथी मुक्त थवा चेतन सुख ने दुःख अनुभव्याज करे छे. घणा अशुभ कर्म खपाववा नारक वगेरेमां घणा काळ सुधी दुःख भोगवे, वळी थोडा शुभ कर्मनो उदय थाय त्यारे सुख अनुभवे ने एम करी पहेला बांधेला कर्मो ओछा करे न करे, एटलामां आश्रवे बीजा कर्मोथी आत्माने बांधी ज दीधो होय क्षणे क्षणे पळे पळे समये समये आश्रवद्वास आत्मा सात-आठ कर्म बांधतो ज होय. हे चेतन ! ते आश्रवने विचार. वारंवार याद राखजे के : एज तारा भयंकरमां भयंकर शत्रुओ छे, एणेज तारुं सर्वस्व लुटीं लीधुं छे. चार रूपे तारी पाछळ पडया छे. (१) मिथ्यात्व, ते तने सत्तत्त्व उपर श्रद्धा-आस्था थवा नथी देतुं (२) अविरति, ते तने पाप प्रवृत्तिओथी अटकतो रोके छे. (३) कषाय. ते तने क्रोध, मान, माया ने लोभ करावे छे. (४) योग, तेथी तुं निरंतर अशुभ विचार-वाणीने वर्तन कर्याज. करे छे, आ चारे तारा कट्टर दुश्मन छे. ते तुं ज्यां सुधी निर्बळ छो, त्यां सुधी ताराथी रोकाशे नहिं. केटलीक वखत ए ४२ रूपे तारा पर हल्लो करी तने कर्मथी भरी दे छे. ५ इंद्रिय. ४ कषाय. ५ अव्रत. ३ योग ने २५ क्रियाओ. ए ४२ ने पराधीन पडेल तुं मुक्तिमां जई शकतो नथी. तुंतेने वश थई जा छो, माटे बराबर समज के आश्रव ए मारा दुश्मन छे. वारंवार गोखीने Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्री वैराग्य शतक याद करी ले, के आश्रवनुं आ स्वरूपने मारे तेने युद्धमां जीतवाना छे. एनो विजय कर एटले बस ! तारो बेडोपार! उठ ! उभो था, तेना कबजामांथी छुटो थई, तेना माथामां फटको लगाव, जोजे पाछो न पडतो, बस एक वखत एना उपर काबु मेळवी ले. तुं चेतन ने ए जड, ए तारा पर सत्ता चलावे ने तुं एनो नचाव्यो नाचे ! ए न बने-कदी न थाय. तारे एने हठावे ज छुटको, चाल, मेदाने पड. युद्ध मचावजंग मचाव, विजयश्री वरी तारी ऋद्धिनो स्वामी बन. (४२) (४३-४४) आठमी संवर भावना - (सवैया) सम्यक्त्वे मिथ्यात्वद्वार ने संयमथी अविरति रोकाय, चित्ततणी स्थिरतानी साथे आर्तरौद्रध्यानो नव थाय. क्रोध क्षमाथी मान मार्दवथी माया आर्जवथी झट जाय, संतोष सेतु बांध्यो लोभसमुद्र कदी नवविकृत थाय. गुप्तित्रयथी मन वचनने कायाना योगो रूंधाय, एम आश्रवना द्वारो सघळां संवरभेदे बंध ज थाय. संवरभावना इणविध भावी जो आचार विषेय मूकाय ? तो शुं? सघळां संसृतिनां दुःखथी आचेतनमुक्त न थाय ? विवेचन-हे चेतन ! तने आश्रवने जीतता न आवडतुं होय, तुं पाछो पडतो होय, तुं मुंझातो होय तो संवर भावना Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ श्री वैराग्य शतक विचार, संवर साथे मैत्री बांध, तेनी सलाह प्रमाणे वर्तन कर. ते तारी बधी मुंझवण. टाळी देशे. आश्रव करतां संवरनुं बळ विशेष छे. ए एक एक आश्रवने बंध करी देशे. मिथ्यात्वने सम्यक्त्व दुर करशे. अविरतिने सत्तर प्रकारना संयम हटावशे. आर्तध्यान अने रौद्रध्यान मनोवृत्तिने स्थिर करवाथी नहिं थाय, अथवा धर्मध्यानने शुकूल ध्यान ध्याववाथी नहिं थाय. क्षमाथी क्रोध जीताशे. मृदुतानम्रताथी मन-अभिमान दुर थशे. ऋजुता-सरलताथी माया नाश पामशे लोभनुं नाम ज न ल्यो. ए भयंकर खाडी छे. ए कोईए पूरी नथी. जेम जेम ए पुरवा जाय, तेम तमे ए ऊंडीने ऊंडी ज जती जाय छे. माटे तेना पर संतोष सेतु तृप्ति-संतोषनो पुल बांधी पेले पार पहोंची जवाशे. मनवचनने कायानी प्रवृत्तिओ मन गुप्ति-वचन गुप्ति ने काय गुप्तिथी रोकाशे. सन्मार्गे वाळी लेवाशे. ५७-संवरनी सहायथी ४२-आश्रवने बंध करी शकाशे. आश्रवना बारणा बंध करवानी संवर ए कळ छे, ५समिति-३-गुप्ति १०यतिधर्म १२-भावना २२-परीषह, ने ५-चारित्र-ए सत्तावन संवर छे. एक वखत एनो अनुभव करी जोवो. जोई ल्यो तमारा केटला दुःखो नाश पामी जाय छे. संवर भावनाने यथार्थ समजी वर्तनमा उतारो, तो संसारना दुःखमात्र जोत जोतामां चाल्यां जशे, ५७ संवरमांथी एक पछी एकने सादी आश्रवने हठावो ने मोक्ष मेळवो ने सुखी थाव. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्री वैराग्य शतक (४५) नवमी निर्झरा भावना तप्तवह्निनां ताप थकी जेम स्वर्णमेल ते थाये दूर, द्वादशविघतपथी आ आत्मा कर्मवृन्द करे चकचूर. अणिमादिकलब्धिओ एनुं आनुषङिगिककार्य गणाय, द्दढप्रहारी चार महाहत्याकारी पण मोक्षे जाय. विवेचन - तुं संवरथी नवा आवता कर्मोने तो रोकीश पण तारा आत्मामां अनन्त कर्म पडया छे. तेनुं शुं ! ए कर्मनो कचरो ए कर्मजाळ - कर्मोनी ए निबिड गांठो एमने एम नहिं खसे, ए भोगवतां तारो आरो नहिं आवे, ए दूर करवा निर्झरा भावना भाव, तेनी मैत्री कर, तेनी सेवना कर. एथी निबिड कर्मो बळीने खाख थई जशे . पापोनुं पायश्चित्त कर. गुणिनो विनय बहुमान कर, महात्माओनी सेवा भक्ति कर, सूत्र ज्ञानीना वचनोनुं श्रवण चिन्तन कर, शुभ आलम्बन लईने ध्यान धर, आलम्बन वगर आत्माने ध्याननी धारामां चडाव. कायानी माया छोड़ी नवकार मंत्रना जापमां लागी जा. लोगस्सना मोटा मोटा काउस्सग्ग कर, आगार राखी मर्यादा बांधी चारे आहारनो सर्वस्वनो त्याग कर, भूख करतां ओधुं भोजन ले, ३२ कोळीयाने बदले पांच सात केवळ ओछा खा, इच्छा उपर काबु मेळव. खावानी लालसा ओछी कर, रसनुं वर्जन कर. विकृति घी, दूध, दहिं, गळपण तेल तळेल खरेखर Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक विकृति छे, तेने वर्जीदे, काय क्लेश सहन कर, आतापना ले. लोचादि कष्टोथी डर नहिं. एथी शरीरनी मूर्छा ओछी थशे, इन्द्रियो गोपव, तेने उन्मादमां न मुक, तेनुं दमन कर, आ बारे तप तने निर्झरा भावनामय करशे, तप रूप वज्रथी मोटा पहाड जेवां कर्मना जथ्थाओ भांगीने भुक्का थई जशे, तेनुं चूर्ण थई ते कयांय उडी जशे. तुं हळवो, फुल जेवो थई जइश, लब्धिओ रिद्धिसिद्धिओ तो तने एनी मेळे आवी मळशे, गाय, ब्राह्मण, स्त्री ने बाळक एम चार चार महाहत्या करनार द्रढप्रहारी जेवा पण तपने प्रभावे निर्झर भावनाने बळे मोक्षमां पहोंची गया. तो तारे चिन्ता शी ! तुं तो एवो पापी नथी. बस हृदयथी निर्झरा भावनाने तपने आराध ने कल्याण कर. (४५). (४६) दशमी धर्म भावनासूर्यचन्द्र उगे ने, वरसे जलधर, जग जळमय नवथाय. श्वापद जनसंहार करे नहीं वह्निथी नव विश्वबळाय, श्रीजिनभाषित धर्मप्रभावे इष्टवस्तु क्षणमां य पमाय, कसगाकर भगवन्तधर्मने कोण मूर्खमनथी नवच्हाय, विवेचन-कारण वगर कार्य न ज थाय' ए सनातन सिद्धान्त छे. सूर्य ने चंद्र नियमित उगे छे ने प्रकाश करे छे. तेनुं कारण शुं ! नारकीनी माफक अहिं अंधकार सदाकाळ नथी रहेतो ए शाथी ! वखतसर वादळां वरसे छे, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्री वैराग्य शतक ने लोकोने आनंद थाय छे. एमां शो . हेतु छे ! लवण समुद्रनी एक शिखा-पाणीनो उछाळो भरतक्षेत्रने पाणीमय करी दे तेम छे, छतां एम केम नथी बनतुं ! सिंह वाघवरू वगेरे जंगली-हिंसक प्राणिओ मानव जातने केम मारी नाखता नथी ! दानावल मोटी मोटी आगो-अग्निना उत्पातो आखा जगतने बाळीने भस्मीभूत केम करतां नथी ! आ बधानुं कांई कारण होवू जोईए. देखाता कारणो-अन्यथा सिद्ध छे-नकामां छे, लुलां छे. देखाता हेतुओ सेंकडो वखत निष्फळ निवड्या छे ने निवडे छे. ए सर्व- प्रबळ कारण कोई होय तो ते धर्मनो प्रभाव छे. धर्म प्रभावे जगतमां शान्ति छे. सुख छे, आराम छे. ज्यां धर्मनो प्रभाव नथी. त्यां युद्धो मचे छे. अतिवृष्टि अनावृष्टिना उपद्रवो थाय छे चोथा आरामां धर्मनो प्रभाव वधु हतो तो त्यारे सुख शान्ति पण वधु हता पंचम काळमां धर्म-घटी गयो छे. तो सुख-शान्ति पण तेवां नथी. वळी छठ्ठा आरामां धर्म जोवा नहिं मळे तो सुख पण नहिं देखाय, कुदरत पण धर्मने आधीन छे. अधर्मिनी कुदरत पण विफरेली होय छे एवो महाप्रभावपूर्ण-धर्म श्रीजिनेश्वर भगवन्ते प्ररूप्यो छे, उपदेश्यो छे ते अभिष्टपूरक, वांच्छितदायक, कामितपूरण कल्पतरू समान श्रीजिन धर्मने कोण एवो मूरख होय के न चाहेन इच्छे. तेनी आराधनामां न जोडाय, सर्व समजु जन धर्मभावनाने आ रीते विचारे ने तेने सेवी सुख मेळवे. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ - श्री वैराग्य शतक (४७) अगीयारमी लोकस्वरूप भावनाकटिपर स्थापित हस्तप्रसारितपाद पुरूषना जेवो जेह, षड्द्रव्यात्मक लोक अनादिअनन्तस्थिति धरनारो तेह. उत्पत्तिव्यय ध्रौव्य युक्त ते ऊर्ध्व अधोने मध्य गणाय, लोकस्वरूप विचार करतां उत्तमजनने केवल थाय. - विवेचन-लोक एटले चौद. राजलोक-जीव अने पुदुलने रहेवानुं स्थान. जीव अने पुदुलना परिभ्रमणनी मर्यादा, लोकनी बहार जीव के पुद्गुल न जइ शके, ते बन्नेने चालवामां, स्थिर करवामां, रहेवामां ने नवाजुना ओळखवामां सहाय करनारा, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय ने काळ ते पण लोकमांज अलोकमां तो केवळ आकाश, ने ते पण अनंत-अपार, न कोइ तेमां जइ शके के रही शके एवं. देखीती बधी धमाल लोकमां, एक राज पहोळी ने चौद राज लांबी सनाडी ते पण लोकमां ते लोकना त्रण विभाग ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, ने अधोलोकबीजा शब्दोमां कहीए तो स्वर्ग-मृत्यु ने पाताळ, तेमां ऊर्ध्वलोक सात राजमां कांईक अल्प-ऊंचो ने वधारेमां वधारे पांच राज पहोळो. मध्य लोक १८०० योजन ऊंचो अने एक राज पहोळो, अधो लोक सात राज ऊंचो ने वधारेमां वधारे सात राज पहोळो. ऊर्ध्वलोकमां बार देवलोक. नवग्रैवेयक पांच अनुत्तर सिद्ध शिला वगेरे छे. मध्य लोकमां असंख्य Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ श्री वैराग्य शतक द्वीप समुद्रो - नदी - तळाव, द्रह, सरोवर पर्वत वगेरे छे ने अधो लोकमां सात नारकी भवनपति - व्यन्तर वगेरेना आवास आदि छे. आ लोकनी कल्पना वैशाख संस्थाने ऊभेला, पुरूषना जेवी छे, ते आ प्रमाणे : बन्ने पग पहोळा करी ने केड पर हाथ राखीने स्थिर रहेल पुरुषनुं संस्थान - वैशाख कहेवाय छे. तेना पगथी मांडी केड सुधी, नारक आदि अधो लोक आवे. केडने स्थाने मध्य लोकने तेथी उपर ऊर्ध्व लोक आवे. आ लोक अनादि अनंत छे पण परिवर्तन शील होवाने कारणे उत्पत्तिवाळो स्थिर ने विनासी पण कहेवाय छे. आ लोकना स्वरूपनो विचार करतां आत्मा कर्म खपावी लोकान्त मेळवे छे, केवळ ज्ञानिओ मोक्ष जतां पहेलां आयुष्य करतां शेष कर्म विशेष होय ते समुद्घात करी, आत्म प्रदेशोथी लोकने भरी दे छे. आ लोकना विचारमां सर्व विचारणाओ समावी शकाय छे. आ लोकनुं विस्तारथी स्वरूप जाणवानी इच्छावाळाए क्षेत्रसमास संग्रहणी - सूत्र, लोक प्रकाश, वगेरे शास्त्रो ऊंडाणथी समजवा-भणवा भलामण छे. (४७) (४८) बारमी बोधिदुर्लभ भावना प्रथमनिगोद पछी स्थावरता त्रसता पंचेन्द्रियताहोय, मनुष्यपणुं पामीने धर्मश्रवणथी समकित पामे कोय. सुरमणिसुरघट सुरतरुमहिमाएनी पासे अल्पगणाय, बोधिरननी दुर्लभता ते एकजीभथी केम कहाय. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक - विवेचन-सम्यक्त्व दर्शन-बोधि देवगुरुने धर्म उपर श्रद्धा सत्तत्व पर आत्म विश्वास ए अपूर्व चीज छे, जेनी जगत्मा जोड नथी. जेनो महिमा चिन्तामणि रत्न कामकुंभ, कल्पतरु, कामधेनु करतां केइ गुण अधिक छे. एना महिमा जेटलो मोटो छे तेवी तेनी प्राप्ति पण मुश्केल छे. ए वस्तु रमतमां मळती नथी. ते मेळववा माटे आत्माए प्रबल पुरुषार्थ फोरववो जोईए मोहनो सखत सामनो करवो पडे छे. अनादि-अनंत काळथी निगोदमां भमतां भमतां बादर एकेन्द्रियमां-पृथ्वी, पाणी, अग्नि वायु, वनस्पतिमां असंख्य काळ रखडी, बेइन्द्रिय-तेईन्द्रिय-चउरिन्द्रियमांसंख्याता काळसुधी भ्रमण करी. तिर्यंच पंचेन्द्रियना पशुपंखी आदिना भवो करी-मनुष्यभव पामे, ते पाम्या पछी पण आर्यदेश, आर्यकुल, सद्गरुनो योग, धर्मनुं श्रवण वगेरे ज्यारे थाय ने तेना उपर रुचि जागे ! त्यारे आत्मा समकित पामे, पण समकित पामे एटले तेनो बेडो पार ! समकित पाम्या पछी अवश्य अर्ध पुदगल परावर्तमां ते मोक्ष मेळवे. समकित पाम्यो एटले ए परमपद- पगथीयुं चडतां शिख्यो. कदाच पडी जाय तो फरीथी चडे पण तेने चडतां आवडी गयुं एटले ते छेवटे छेक पहोंचवांनो ज. समकित मेळववा माटे पडती मुश्केलीओनो अने तेना प्रभावनो कहेतां पार आवे तेम नथी. एक जीभथी तो ए गाई शकाय ज नहि. जगत्ना जीव मात्र समकित पामो. पामीने तेने अक्षय करो Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक क्षायिक समकिती बनो अने अक्षय सुखने मेळवो, आ भावनानी विचारणा छे-अहिं अनुप्रेक्षा-बार भावना पूरी थाय छे. आ बार भावनामां विश्वनी सर्व विचारणाओ समाई जाय छे. कोई एवं तत्त्वज्ञान नथी, कोई एवं पदार्थ ज्ञान नथी, कोई एवी वस्तु नथी के जे आ बार भावनामां न होय, आ भावनाओ भावी एणे सर्व भाव्यु. माटे ऊंडाणथी आ भावनाओने विचारो ने आत्महित साधो. (४८) __(४९) हवे. चार परा भावनानुं स्वरूप दर्शावाय छे. शास्त्रमात्रनो सार कहो, सर्व ग्रंथोनुं रहस्य कहो, सर्व उपदेशोनुं फळ कहो. तो ते आ चार भावनाओ छे. आ भावनाओथी आत्माना असाध्य व्याधिओ नाश पामे छे. आ भावनाओथी प्राणीमात्र मुक्त बनी शके । आत्मशरीरने पुष्ट करवा माटे आ भावनाओ रसायण समान छे. भावनाओ आत्माने धर्म ध्यान साथे जोडी दे छे, तेमां. प्रथम मैत्री भावना. हितचिंतनथी सर्वसत्त्वनी साथे चेतन मैत्री जोड, वैर विरोध खमावी दइने ईर्ष्या अन्धापाने छोड. मातपिताने बन्धु रूपे सर्व जीव संसारे होय, द्वेषभावना विण आ जगमां सबळोशत्र छे नहीं कोय. विवेचन-हे चेतन ! तुं शा माटे बीजाने तारा शत्रु समजे छे ! ताये कोई शत्रु नथी, तारुं कोइए बगाडयुं नथी. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक तारं बगाडनार तुं पोते छो. तारी परभावमां आसक्ति छे, तेथी तारूं बगडे छे, बीजा तो निमित्त मात्र छे. तुं श्वान वृत्तिनो त्याग कर, ने सिंहवृत्ति धारण कर लाकडीने बचका न भर एमां ताएं कैं नहिं वळे ते लाकडीना मारनारने ओळख ने तेना पर धस ! तने दुःखी तारा कर्म करे छे, तेनो नाश कर, तुं स्वभावमां रमतो था, तने आपो आप समजाशे के: मेंज माएं खराब कर्यु छे. त्यारे तने बीजा कोई दुश्मन नहिं लागे, अन्य सर्व तने तारा मित्र लागशे. प्राणीमात्रनुं हित चिन्तव, बधा तारा बन्धु छे, तेना प्रत्ये मित्रभावे वर्तन कर, जेना जेना प्रत्ये तें झघडा कर्या होय, गाळागाळी-मारामारी करी होय, वेरविरोध लडाई टंटामां मजा माणी होय, ए बधाथी क्षमा याची ले, माफी मागी ले, बधाथी छुटो था, सर्वने क्षमा आपी छुटा कर. तुं कोण ! तुं चेतन ! समजु, ज्ञानी, तने आ झघडा वगेरे शोभे ! तुं इर्ष्याथी-द्वेषथी अन्ध बन्यो हो, तो ते इर्ष्या-द्वेषनो नाश कर. तेने तिलांजलि दे. देखतो था, विचार कर के हुं कोनी सामे बोलुं छं ने हाथ उगामुं छु. कोनुं खराब चितवं छु. जेनी सामे करे छे, ते तारा मातापिता छे. एक वखत तेओए तने पाळी पोषीने मोटो करेल छे. ते तारा भाईभाडं छे, एक वखत ते सर्व साथे तुं रम्यो छे. तुं सर्वनी साथे कोईने कोई संबंधथी जोडायो छे. तेनुं ज खराब चिंतवतुं तने शोभे ! तुं बधानो मित्र बन ने बधाने तारा मित्र बनाव. ते माटे चार Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्री वैराग्य शतक विचार शांत चित्ते तारा मनमां उतार. (१) तारे केटलुं जीवq छे ! थोडा जीवनने माटे शा माटे बधानी आंखे चडु, बधानी सारप शा माटे न लडं (२) आ सर्व मारा संबंधिओ छे. तेमनी साथे लडवू मारे उचित नथी. (३) माएं खराब मारा कर्मथी थाय छे माटे तेने दूर करें बीजानी साथे बाझवाथी शुं वळशे, (४) बीजा जीवो पण कर्माधीन छे. तेमनो मूळ स्वभाव विशुद्ध छे. तेओ पोताना स्वभावमां आवे. तेओ पण कर्म मुक्त बने अने सुखी थाय. - आ चार विचारो जो हृदयमां बराबर ठसी जशे. तो कोई कोईनो शत्रु नथी, सर्व सर्वना मित्र छे. ए समजातां वार नहिं लागे. सर्व सर्व- कल्याण इच्छो अने परस्पर मैत्री केळवो. (४९) . (५०) बीजी प्रमोद भावनाजिह्वा डाही थईने गुणीनां गुणतुं प्रेमे करजे गान. अन्यकीर्तिने सांभळवाने सज्ज थजो हे बन्ने कान, प्रौढलक्ष्मी बीजानी निरखी नेत्रो तुम नव धरजो रोष, प्रमोदभावना भावित थाशो. तो मुजने तुमथी संतोष विवेचन-हे आत्मन् ! बीजानुं सुख जोई सुखी था. बीजाने सुखे दुःखी शा माटे थाय छे ! बीजाने आगळ वधतो जोई बळे छे केम ! बीजानी सुख-संपत्ति देखी माथु कुटीश तो पण तारा हाथमां कांई नहि आवे, तेम तेनुं कांई ओर्छ नहि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ श्री वैराग्य शतक थाय, शा माटे नहिं गांठसे गिर पडा, नहि कीसीसे छीन, देतां देखा ओरको, मुखडा भया मलीन जेवू करे छे, बधेथी आनंद लेतां शीख, बीजाने सारा जोई राजी था, गुणनो प्रेम कर, कोई दान देतुं होय, कोई ब्रह्मचर्य पाळतुं होय. कोई तप करतुं होय, कोई भावना भावतुं होय तो ते जाणी तुं हर्षित था, प्रमुदित था. तारी जीभने कहे के गुणनी प्रशंसा करे. डाही थईने गुणिना गुण गावा लागे कानने कहे के तमे बीजानी कीर्ति सांभळवा , तैयार थाव, अन्यनी प्रशंसा सांभळी संकोचाव नहि पण उंचा थाव आंखने पण बीजानी संपत्ति देखी राजी थवा शीखव, बीजाने सारा काम करतो जोई नेत्रने प्रफुल्लित-विकसित थवा केळव, शा माटे ए आंख बीजा- सारू जोई शकती नथी. केम मींचाई जाय छे. केम फरी जाय छे. एनी ए बधी टेव भूलावी दे. एने कहे के तमे राजी थशो तो तमाराथी हुं पण राजी थईश. तोज मने तमाराथी संतोष छे. गुणानुरागथी-गुण प्रेमथी, प्रशंसाथी आत्मामां गुण आवे छे. गुणी थवानुं परमसाधन गुणने गुणीनी अनुमोदना छे. प्रमोद भावना छे. सर्वे प्रमुदित थाव, सर्वे प्रमोद भावना भावितान्त:करण बनो ने सर्वे परम आनंदमां निमग्न रहो. (५०) (५१) त्रीजी करुणा भावना जन्म जरामृत्युनां दुःखो अहोनिश सहेतुं विश्वजणाय तन धन वनिता व्याधिनी चिन्तामां सारो जन्म गमाय, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक श्रीवीतराग वचन प्रवहणनो आश्रय जो जनथीय कराय, तो दुःखसागर पार जईने मुक्तिपुरीनां सौख्य पमाय. ७४ विवेचन संसारमा सबडता कोई पण आत्माने जोईने, भवचक्रमां भमता कोई पण जीवने अवलोकीए, कर्मने पराधीन कोई पण चेतनने तपासीए, तो ते दु:खी ज देखाशे, दुःखथी विमुक्त कोई नहि लागे. शरीरनां, मनना, जन्मना, जराना, मरणना, आधि, व्याधि-उपाधिना दुःखो सौ कोईने वळगेला छे, पोताना अने परना सर्व दु:खो दूर करवानुं परम साधन 'करुणा' भावना छे. कोईने पण दुःखी जोई हृदय पीगळी जाय, ए दुःख जोई न शकाय, चित्त द्रवी जाय, मनमां एम थाय के : एनुं दुःख नाश पामे, ए सुखी थाय, माराथी बनता प्रयत्ने हुं तेनुं दुःख दूर करुं. बाह्य दुःखो करतां आत्माने आन्तरिक दुःखो खुब दुःखी करे छे. फरी फरी तेमांथी नवा ने नवा दुःखो जन्म पामे छे. ते दूर करवानी खास जरूर छे. करू णावाळो आत्मा-विश्वना सर्व जीवोनुं बाह्य के आन्तर दुःख धनथी ने सदुपदेशथी दूर करवा. असमर्थ छे, ते सर्व दुःखनो नाश करवानो फक्त एक ज उपाय छे. ने ते करुणानो विचार, विचार बळ ! सर्वे बळ करतां चडीयातुं छे. भावनानी ताकात बधी ताकात-करतां अधिक छे, जो मनमां एमज रमतुं होय के आ सुखी थवो जोईए. तो थाय ज ! केम न थाय ? माटे हंमेश विचारखुं के : सर्वे सुखी थाय, बधा दुःखो नाश - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक पामो, दुःख मुक्त थवा सर्वे वीतराग भगवन्तना वचनने अनुसरो. आवी करुणा . भावना भाववावाळो आत्मा पोताने प्राप्त थयेल साधन संपत्तिथी बीजाने सुखी करवा प्रयत्न करतो रहे छे ने भावना-बळे, पोते परम सुख मेळवी बीजाने सुखी करे छे. (५१) (५२) चोथी माध्यस्थ्य भावना कर्मतणे अनुसारे जीवे सारां नरसां कार्य कराय, राग द्वेष स्तुति निन्दा करवी तेथी ते नव युक्त गणाय. बळात्कारथी धर्मप्रेम वीतरागप्रभुथी पण शुं थाय, उदासीनता अमृतसरनां पान थकी भवभ्रान्ति जाय. विवेचन - जगतना जीवमात्र कर्माधीन छे. पोते करेल कर्मने अनुसारे ते प्रवर्ते छे. सारा-बूरा कार्यो करे छे, सुखी दुःखी थाय छे. कोईने सुखी जोई ! आने में सुखी को छे. ए माराथी आगळ वध्यो छे. एवी अभिमाननी वृत्ति धारण करवी ए पाप छे ए अनर्थकारी छे. एज प्रमाणे कोईने दुःखी जोई-में आने आम करवा कह्यु हतुं, छतां तेणे ते प्रमाणे न कर्यु ने दुःखी थयो. मारू मान्यु ज नहिं. इत्यादि खेद करवो ए पण उचित नथी, युक्त नथी. एथी पण अहित थाय छे. ए बन्ने रागद्वेषनी छाया छे. बीजानु हित करवा सन्मार्ग बतावो, ने ए एने अनुसरे, ने सुखी थाय तो ते जाणीनेजोइने राजी थाव, न अनुसरे, उंधे मार्गे जाय ने दुःखी थाय Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्री वैराग्य शतक तो विचारो के - ए जीव प्रबल कर्मने आधीन छे. करुणापात्र छे. पण तमारा मनने मलिन न करो, सर्व शक्तिमान्-वीतराग परमात्मा पण पराणे धर्म करावता नथी. तीर्थंकर भगवन्तो एकांत हितकारिणी देशनां देता होय छे. जे कदी अफळ नथी जती छतां केटलांक महाकर्मी आत्माओने ए नथी रूचती. एथी शुं ! प्रभुने ए आत्माप्रत्ये न तो अरुचि थाय न तो राग थाय मध्यस्थभाव उदासीनता, तटस्थवृत्ति केळववी घणी ज मुश्केल छे. जेटली मुश्केल छे एटली ज केळवाया बाद लाभदायक छे. संसारमा शिव सुखना आस्वादनी छाया आ उदासीन भावमां रहेली छे. आ भावना केळवाय एटले भवचक्रना परिभ्रमणनी पूर्णता थाय छे. सर्वे समभावमां मध्यस्थ्य भावनामां लीन बनो ने परमपदने पामो. मैत्री, प्रमोद, कारुण्य अने मध्यस्थ्य ए चार भावना जेणे साधी तेणे सघर्छ साध्युं छे, ए सिवायर्नु सर्व अफळ छे. उखर भूमिमां खारापाटमां अनाज वाववा जेवू छे, ए ऊगे तो नहि पण वावेलुं एळे जाय. एज प्रमाणे भावना वगर जे कांई करवामां आवे ए बधुं नकामु जाय छे, माटे अंत:करणने भावनाथी रंगी शुद्ध बनावी धर्म-आत्महित करवामां प्रयत्नशील थq. इति 'वैराग्यशतके' भावनास्वरूप - विवेचकः परिच्छेदः परिपूर्णः ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ॥ अथ संसारासारता = वर्णनोधिकारः ॥ ( हरिगीत ) (५३) चेतन ! प्रमोदनो त्याग कर : असार आ संसारमां नथी सौख्य के शान्ति जरी आधि उपाधि व्याधिओथी आ बधी दुनिया भरी. एम जाणतो पण जीवतुं आळस अरे रे, केम करे ? कल्याणकारी धर्म जिननो केम तुं नव आदरे ? ७७ विवेचन - हे जीव ! हे आत्मन् ! तुं आळस केम करे छे, प्रमादमां शा माटे पडयो रहे छे. तारे सुख जोईए छे ने, तुं शान्तिने इच्छे छे ने, ए आ संसारमां नथी, संसार असार छे. दुःख विना बीजुं कांइ त्यां नथी, दुनियामां द्रष्टि नाख कोईने मनमा संताप. कोईने कुटुंबना उपताप तो कोईने शरीरे रोगनी महापीडाओ, दुःख - यातना सिवाय कांई नजरे नहिं चडे. ए देखवा छतां एथी डरवा छतां एमां ने एमां केम पडी रह्यो छे उठ ! ऊभो था ! आळसने खंखेरी नाख, तने बचावनार - दुःखथी छोडवनार, कल्याणकारि श्री जिनेश्वर प्रभुनो धर्म छे. तेनुं शरणुं ले ! तेनी आराधना कर एमां आदर श्रद्धा राखी उद्यम कर ने सुखी था. (५३) (५४) भोग अने विलासना विचारोमां आयुष्यने न गुमावो Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ श्री वैराग्य शतक धन पुत्र प्रभुता लाडी गाडीचित्तमां नित्य चिंतवे आजे मळे काले मळे एम उर्मिओ उरमां धरे, पण अंजलिना जलपरे जीव आवखुं तारूं घटे ते केम तुं जाणे नहीं डहापण भरी बुद्धि छते विवेचन - हे चेतन ! तुं विवेकी छो, समजु छो, अक्कलवाळो छो. छतां जीवनने नकामुं केम वेडफी रह्यो छो. तारा मननी स्थिति जो ! तुं केवा विचारो करे छे. तने थाय छे के खुब धन मेळवुं, लखेसरी कोट्याधिपति बनुं ! पैसादार कहेवरावु, अनेक पुत्रोनो पित्ता थउं. मने बापुजी ! बापुजी ! कहेतां बाळको बाझी पडे, एवी स्थिति अनुभवुं. शेठ - श्रीमन्त अधिकारी, मोटा मोटा बिरूदोने धरनारो बनुं. अनेक रूपवती युवान स्त्रीओ करूं, घोडागाडी मोटरगाडीमां फरू, अरे ! मोटो राजा थउं ! हुकमो छोडुं. विलासमां रच्यो पच्यो रहूं. एवा ने एवा विचारो तारा मनमां उद्भवे छे, आ बधुं आजे मळशेकाले मळशे, एम चित्तमां चिन्तव्या करे छे तरंगोमां तणाये जाय छे, पण ए सर्व फांफां छे. एमने एम तारू आयुष्य चाल्युं जाय छे. खोबामां अंजलिमां रहेलां पाणीनी जेम, तारुं जीवन घटतुं जाय छे एनो तुं केम विचार करतों नथी ! पुण्य वगर तने कांई नहि मळे, पुण्य कर-कंई पण आशा राख्या वगर सुकृत कर; तने बधुं मळशे ने परिणामे शाश्वत सुख पण मळशे. (५४) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ श्री वैराग्य शतक (५५) शुभ करणी शीघ्र करो-तेमां क्षण पण विलम्ब न करो. जे काल कर होय शुभ ते आज कर उतावळो, 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' ए सिद्धात जाण खरेखरो नव सांजनी पण वाट जो कल्याणकारी कार्यमां हे बन्धु पामरजीवनी ज्यम सुखदसमयो हारमां. विवेचन : हे बन्धु ! तने धर्म करवा विचार थयो छे. तने तारूं हित करवानी भावना जागी छे. तुं कल्याण साधवा ऊभो थयो छे. तो हवे विलंब न कर, कोईनी पण प्रतीक्षा - राह न जो; जे करवू होय ते जल्दी करी ले. एक शाश्वत सत्य तारा मनमा बरोबर ठसावी द्वे के : श्रेयांसि बहु विघ्नानि' सारा कार्यमां सेंकडो अंतरायो आवे छे' दुर्जनो तुं विलंब करीश तो तारी मनोवृत्ति डहोळी नाखशे, तारा धर्म कृत्यमां हजारो पथरा नाखशे माटे वखत न गुमाव, काल करवानुं होय ते आजे करी ले, काल कोणे देखी छे. सवारनुं सवारे ज करी ले. सांजे करीशुं - घडी पछी करीशं. एम मुदत न पाड, गयेलो समय फरी नहिं आवे; आ तारूं शुभ चोघडीयुं छे ए साधी ले ! पछी पस्तावो थशे, पामरात्मानी जेम-अज्ञानी जीवनी माफक सुखदायि समय हारी जईश, पछी विचार करीश ए काम नहिं लागे. माटे जे शुभ कार्य कर, होय ते शीघ्र कर ने सुखी बन. (५५) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० श्री वैराग्य शतक (५६) संसारनुं स्वरूप महाविचित्र छे, एक पलमां बधुं पलटाई जाय छे. जोडे रम्यां जहेनी अतिशय प्रीतथी जोडे जम्यां, जोडे निशाळ विषे जतां परलोकमां ते पण गयां. सवारमा जोयेल ते पण सांज नव देखाय छे, हे मित्र ! आ संसारनो केवो विचित्र स्वभाव छे. विवेचन - हे मित्र ! आ विश्वनी माया अकळ छे. जगतनी स्थिति न समजाय एवी छे, संसारनो स्वभाव महाविचित्र छे, जेनी साथे तुं रमतो हतो. क्रीडा करतो हतो, खुब स्नेहथी भोजन करतो, निशाळमां जई भणतो, बाग बगीचामां हरतो फरतो विलास माणतो. एक क्षणमां ए व्यक्ति अलोप थई जशे. परलोकमां पहोंची जशे, तारा देखतां देखतां ए गुम थई जशे. तुं क्यांय हईश ने ते चाली जशे. समाचार सांभळी तने आंचको लागशे; पण आ दुनियानी माया एवी ज छे. सवारमां तुं मळ्यो होईश ने सांजे तने खबर मळशे, के अमुक भाई गुजरी गया, तुं एम कहीश के : हे ! पण हे शुं ? संसारनी स्थिति ज एवी छे. कोईनी कोईने खबर नथी पडती. माटे हे सखे ! एवा मायावी संसारथी - जादुगरना जादु जेवा जगतथी छूटो थवा प्रयत्न कर. तेनी भ्रम जाळमांथी मुक्त थई एकान्त शान्त स्वस्थ ने स्वच्छ सुख देनारा-धर्मने आराधी परम सुखने मेळव. (५६) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक (५७) व्याधि वृद्धावस्था ने मरण ए त्रण भयंकर चोरो तमारा जीवन धनने लूटे छे, माटे - जागो ने भागो. आ जागवानो समय छे त्हेने विषे तुं कयुं सुवे, आ नासवानां समयमां शाने वळी बेसी रहे. तुज जीवन धनने लुंटवा त्रण तस्करो पूंठे पड्या, एक रोग बीजी जरा त्रीजो मृत्यु ए सौने नडयां. विवेचन - हे चेतन ! तारूं जीवन धन लुटाई रह्यु छे. तारी शरीर सम्पत्ति चोराय छे. तारी देहशक्ति वेडफाई छे, ए चोरनार एक जण नथी. पण त्रण जण छे, सामान्य नथी पण महान छे. तेने कोई महात करी शक्युं नथी. तेथी वखते तुं चेती जा ! ऊंघमां न रहे, जागृत था एनो सामनो न कर पण तारूं बचाववा तैयार था. बेसी न रहे, धर्मपंथे चडी जा ने चालवा मांड, उतावळे पगे चाल, दोड.! जेटलो मार्ग कपाय तेटलो त्वराथी काप. निर्भय स्थान घणे दूर छे. बेसी रहीश के ऊंघी जईश तो रोग, घडपण ने मरण ए त्रण चोरो तने पकड़ी पाडशे, तने लुंटी लेशे., तने दुःखी करशे माटे झडपथी आगळ वध ने सुरक्षित स्थळे पहोंची जा. तुं मार्गे चढीश एटले तने निराबाध मुकामे लई जनारा विमान, वायु ने विजळीथी पण वधारे वेगवाळा विनय वैयावच्च स्वाध्याय विरति, संयम-तप वगेरे वाहनो Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ श्री वैराग्य शतक मळशे. तेमां बेसी जजे. बरोबर साचवीने बेसजे जेथी पडी न जवाय. ए वाहनो तने एकदम - एक क्षणमां आ त्रणे चोरो ज्यां न पेसी शके एवा स्थाने पहोंचाडी देशे, माटे ऊंघ त्यजी आळस छोडी. ऊभो थई मार्गे चडी जा ने चालवा मांड, कल्याण कर. (५७) (५८) परभवे जतां पहेलां धर्मनुं भातुं बांधी ल्यो, जेथी आगळ उपर हाथ घसवानो वखत न आवे. आ काळरूपी रेंटने शशी सूर्य वृषभो फेरवे, दिनरात रूप घटमाळथी तुज जीवन धनने संहरे पण परभवे पाथेय सरखां धर्मने नव आदरे हा हाथ घसतो जइश चेतन मधतणी माखी परे विवेचन - हे चेतन ! जो, आ अहिं जो शुं थइ रह्युं छे, ते तपास ! तारो जीवनरूप जळथी भरेलो कूवो उलेचाय छे-ते खाली कराय छे तेने कांठे काळरूप अघट्ट (रेंट) चाले छे चोवीश कलाक चाले छे. साठे घडी चाले छे. सेकन्ड पण-समय पण पोरो खातो नथी. तेने फेरवनारा बे महान वृषभ - बळद छे. वाराफरती ए जोडायाज करे छे, ए थाके एवा नथी एनां नाम छे, सूर्यने चंद्र. ए चाले छे ने दिवस ने रातरूपी घटमाळ फरे छे. ने तेमां भराई भराई तारूं जीवन धन घटतुं जाय छे. जोत जोतामां ए घटी जशे ने Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक परिमित जीवन पूरू थशे, ए जीवन एज तारो आधार छे. ए खाली थशे एटले तारे पण बीजे जवू पडशे. त्यां रस्तामां तने कोई सहाय नहिं करे तुं क्यांय नरक तिर्यंच आदि खाडामां गबडी पडीश माटे धर्मने कर, सुकृतने साथे लेतो जा, ए सुखडी छे, ए सहायक छे, ए तने पडतो बचावशे, ए तने आगळ जवामां मदद करशे. नहि तो मधमाखीनी माफक हाथ घसवा पडशे, पीधुंये नहि ने दीधुंये नहि, खाधंय नहिं ने खवराव्यु नहिं, एमने एम बधुं वेडफाइ जशे माटे जेटलुं सधाय एटलुं साधी ले. पहेलेथी चेत जेथी पाछळथी पस्तावू न पडे. (५८) (५९ थी ६१) कराल काळना झपाटामांथी कोई छूटतुं नथी धर्मने आराधो ने सुखी बनो. जे शरीरनुं सौन्दर्य नीरखी चित्तमांहे तुं हसे हेनेज ज्यारे काळ रूपी नाग झेरीलो डसे ते समे कोई कळा नथी के कोई पण औषध नथी नथी मन्त्र तंत्र विज्ञान एवं थाय रक्षण जेहथी शेषनाग ए छे नाळq ने पृथ्वी ए तो पुष्प छे, छे पर्वतो ते केसरा सर्वे दिशाओ पत्र छे. माणसरूपी मकरन्द छे एने अनादि काळथी, आ काळ-भमरो चूसतो संतोषने धरतो नथी. दिन-रात छिद्र गवेषतो छाया तणे ब्हाने फरे, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक . आ काळरूप पिशाच पापी छळ करीने संहरे, एना झपाटामां पडेलो झरी झरीने मरे हा हा ? करी नहीं धर्म सिद्धि एम पस्तावो करे ॥ विवेचन - काळ ए काळो नाग छे, ए भयंकर झेरी छे, एनुं झेर-विष कोई रीते उतरे एवं नथी. एवी कोई कळा नथी. एवं कोई ओसड नथी. मंत्र-तंत्र के विज्ञान एवं कोई नथी के जे आ नागना झेरथी बचावे. ए नाग कोईने छोडतो नथी. एक सरखो सर्वेने डसे छे, तुं तारा रूपथी मलकातो होइश. तारा सौन्दर्य- तने अभिमान हशे. तारा शरीर माटे तने गौरव हशे, पण ते कयां सुधी? काळ फणीधरना एक झपाटा साथे बधुं खलास. त्यां तारूं कांई नहि चाले, माटे धर्म कर. काळ ए काळो भमरो छे. ए अनादि काळथी माणस-प्राणी-रूपी मकरन्दने-पुष्परसने चूस्या करे छे पण धरातो नथी, पृथ्वी ए पुष्प-फुल छे. तेनी-नाळ-दांडी छे. शेषनाग, पर्वतो ए केसरा-कळीओ छे ने दिशाओ ए पांदडां छे. ए पुष्पमां पराग-रस कोई होय तो ते प्राणी छे ने चूसनार भ्रमर ए काळ छे, माटे काळथी चूसावा करतां हित साधवामां तत्पर बन. काळ ए पापी पिशाच छे, ए अत्यन्त बिहामणो छे. एने कोईनी पण-जरी पण दया नथी. छायाना छलथी - पडछायाने बहाने ए हमेशा बधानी साथेने साथे ज रहे छे, जराक नबळी पडयो के उपाडी ले छे. ए लाग शोधतोज Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ श्री वैराग्य शतक फरे छे, वखत आवे के तरत ते प्राणीने पोताना झपाटामां लई ले छे, एना झपाटामा फसायेलानो केमे करी छुटकारो थतो नथी-झुरी झुरीने मरे छे. त्यारे एने थाय छे के पहेलां ए चेत्यो नहि. पहेलां चेत्यो होत तो आ वखत न आवत. पण पाछळथी शुं वळे, माटे हे चेतन ! हजु काळनो सपाटो नथी लाग्यो त्यां सुधीमां चेती जा ! ने धर्माराधन करी ले. काळ पण धर्मथी डरे छे. धर्मनी जेने सहाय छे तेने ते पण विशेष पीडा आपतो नथी. माटे धर्मने साध ने धर्मनी मददथी काळथी बची सुखी था. (५९-६१) (६२) कर्मनी परतन्त्रता एज खरी परतन्त्रता छे, ए महादुःखदायिनी छे, एथी मुक्त थवा प्रयत्न करो. चणी बोर मूळा मोघरीनी जातिमां पण तुं गयो, विष्टातणो कीडो थयो थई शेठ नोकर पण थयो, एम विविध कर्मवशे करी संसार नाटक संचर्यो. हा ! मित्र ! तुं परवशथकी दुःखी थयो दुःखी थयो. विवेचन - हे मित्र ! तुं कर्मने वश छो. कर्मराजा तने जेम नचावे छे तेम तुं नाचे छे. नटनी जेम भवनाटकमां जुदा जुदा वेष भजवे छे. तुं चेतन अने कर्मजडं, तारा उपर ए जडनी सत्ता, ए तने चणीबोर तुच्छफळ, मूळाना कांदा, मोघरी, सुघरी, वाघरी वगेरेमां जईने रहेवार्नु कहे तो तारे रहेQ पडे. अरे ! कीडो बनावी विष्टामा राखे तोय तारे मुंगे Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक मोढे रहे पडे ने सहेवू पडे. तारूं कांई चाले नहि. ए तने घडीमां शेठ बनावे ने घडीमां नोकर बनावे. तुं केटलो परवश छो, ए तने दुःखी दुःखी करी मूके तो पण तुं चूंकेचां न करी शके, आ तारी हीनपत छे, तारे लाजवू जोईए- तारे शरमावq जोईए, तुं ऊभो था, जडने उखेडी नाखवा सामनो कर. तारूं वीर्य फोरव. तने विजय मळशे, तुं मुक्त थईश ने सदाने सुखी बनीश. (६२) (६३) सगां ने संबंधिओ सर्वे स्वार्थना छे, एनो स्नेह तजवो एज श्रेयस्कर छे. माता पिताने पुत्र पुत्री बन्धुओ भार्या तथा, मित्रो सगां व्हालां संबंधी शरीरनां छे सर्वथा, स्मशानमां ए देहने बाळी रुवे छे स्वार्थने, ' आ स्वार्थना संसारमां शो स्नेह लाग्यो छे तने विवेचन - हे जीव ! आ संसारमा तारूं कोइ नथी. जरा विचार करीश तो तने ए वात बरोबर समजाशे. तने कोई कहेतुं हशे के आ मारो छोकरो, मारा बापुजी. मारा पिताजी, मारा मोटा भाई, मारा स्वामिनाथ, अमारा परमस्नेही-मित्र अमारा कुटुम्बी-सम्बन्धी-सगांव्हालां नातीला छे, पण ए कथनोमां तुं मुंझातो नहि. ए सर्व स्वार्थना वचनो छे. ज्यां सुधी तारूं शरीर युवान छे, तुं महेनत मजुरी करी बधाने कांईने कांई आपे छे. तारा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ८७ शरीरथी तेओने सुख-पोषण मळे छे त्यां सुधी, पण ए शरीर लथडयु-अटक्यु, महाव्याधिओमां पटकायुं त्यारे तारूं कोई सगुं थवा नहिं आवे. भयोथी बचावनारू तारूं कोई नथी. छेवटे तारा देहने शरीरने मसाणमां - प्रेतवनमां-स्मशानमां लई जई बाळी देशे ने पोताना स्वार्थ माटे मोटी पोक मुकी रुदन करशे. आवा केवळ स्वार्थथीज भरेला संसारमां तुं केम मोह्यो छे ! तेनो स्नेह छोडी परमार्थनी साधना कर. संसारनो राग त्यजी वैराग्य पन्थे वळ, दुःखजाळनो अन्त लाव ने अपूर्व सुखनो भोगी था (६३) (६४.) संसारनां सम्बन्धो सर्व विनश्वर छे. दुर्गतिमां पडता बचावनार एक जिनधर्म छे, एज सत्य छे-एज शाश्वत छे. हे मुग्ध जीव ! विचार आ संसारमा तारू कोण छे ? सर्वे सगां तुजने त्यजी अथवा त्यजीने तुं जशे ? वीतरागभाषित धर्म केवल ते समे साथे थशे, दुर्गतिके रां कूपथी तत्काल तेज बचावशे. विवेचन-हे भोळा जीव ! जरी तो विचार, जे संसारमां तुं पडी रह्यो छे तेमां तारू छे कोण ? आ सगां व्हालांने तुं तारा माने छे ! ए तारो भ्रम छे ताएं ताराथी कदी पण विखुटुं न ज पडे. ताराथी जुदुं पडे ए तारू नहिं. जेने तुं तारूं पोतानुं मानी बेठो छो, ए एक वखत तने छोडी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक चाल्युं जशे, अथवा ए बधाने छोडीने तुं चाल्यो जईश, कोई तारी साथे नहिं आवे, माटे ए बधुं तारं नथी, पारकुं छे. जो तारू काई होय तो ते एकज छे, ने ते छे धर्मजिनेश्वर भगवाने उपदेशेल धर्म एज तने नहिं छोडे, तुं ज्यां जईश त्यां ए तारी साथे रहेशे, तारू रक्षण करशे, दुर्गतिना खाडामां तने नहिं पडवा दे, तारो बचाव करशे. माटे बधा विकल्पो छोडीने ते धर्मने आराध. तेने मारो समजी तेनी सेवा कर, तेनी साधना कर, ए एकज सत्य छे एम विचार ने तेने मित्र बनाव ने सुख मेळव. (६४) (६५) कर्म ए बेडी छे, संसार कारागार (जेल) छे हे चेतन ! तुं ए बेडीओने तोड ने मुक्त था. अडकर्मरूपी बन्धने बंधाई कारागारमां, संसारमांहे तुं सडे छे मोहना साम्राज्यमां, ए बंधनोने आत्मबळथी वीर थईने तोडशे, तो मुकित ना साम्राज्यने तुं आत्म साथे जोडशे. विवेचन-हे आत्मन् ! तुं वीर था. तुं बहादूर बन, तारूं शौर्य अजमाव, तारूं आत्मबळ फोरव, तारी शक्ति वापर, कारण के तारूं साम्रज्य लुटायुं छे, तुं अनादिकाळथी मोहराजानो केदी बन्यो छे. एणे तने संसाररू पी जेलमां-कारागारमा पूरी राख्यो छे. तुं भागी न Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक जा माटे आठ आठ बेडीएं बांध्यो छे. ते बेडीओ घणीज मजबुत छे. तेना नाम अनुक्रमे आ छे. १. ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयुष्य, ६ नाम, ७ गोत्र, ८ अन्तराय, ए आठे 'कर्म' एवां नामे ओळखाय छे, अहिं मोहराजा तारी पासे मजुरी करावे छे. तने दुःख दे छे, तने मारे छे, पीटे छे हवे तुं धर्मराजानी सहाय ले, तुं पोते वीर थई मोहराजानो सामनो कर. आ आठे बेडीओ तोडी नाख ! तारूं सामग्रज्य सुखथी भरपूर छे. 'मोक्ष' नामे ए ओळखाय छे. आ बेडीओ तुटशे एटले तुरत मोहराजा पलायन थई जशे ने तने तारूं राज्य मळी जशे, हवे विलम्ब न कर. आत्मबळ फोरख ने मुक्त बन. (६५) (६६) धर्ममां विघ्न करनारा क्षण विनश्वर स्त्री, . कुटुम्ब ने दोलतनो त्याग करो. जे लक्ष्मीमां ललचाईने तुं धर्म करणी नव करे, ने जे सगां व्हालांकृते तुं श्वानवृत्ति आदरे, जे विषय सुखनी लालचे ललना सदा चित्ते धरे, ते सर्व क्षणनाशी खरेखर पत्र-जलबिन्दु परे. विवेचन-हे चेतन ! लक्ष्मीनी लालच, सगांव्हालांनो मोह, स्त्रीनो स्नेह, विषयसुखनी लालसा अने चोवीसे कलाक आ सर्वनी झंखना ए तने धर्म करवा नथी देतां. आ सर्वमां लपटायेलों तुं धर्मने जाणे जाणतो पण नथी.पण Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . श्री वैराग्य शतक ए बधां क्षणिक छे. विजळी जेवां चपळ छे, कमळना पांदडापर रहेला पाणीना टीपानी पेठे जोतजोतमां सुकाई जनारा छे, खरीने नाश पामनारा छे. जे जुवानीमां तुं धर्म साधवाने समर्थ छो तेमांज तुं मोहान्ध, कामान्ध, बनी धर्मने विसारे छे. तुं मूर्ख छ, चिरस्थायि-हितदायि धर्मने छोडी भोगविलासमां कुटुम्बनी आळपंपाळमां न छाजतां कर्मो करे छे, श्वाननी जेम भान भूले छे रासभनी जेम भार वहे छे, दुःखी थाय छे, समज,. कांईक तो समज ? क्षणनाशी ए सर्वनो मोह छोडी दे. ने शाश्वत सुखनी शोधमां नीकळ, धर्म कर ने सदाकाळ आनन्दमां विचर. ६६. (६७) दुनियाथी अपमानित थयेला हे वृद्धो ! विचारो ! मरण नजीक छे. वैराग्यने शरणे जाव, ने सुखी थाव. हे वृद्ध ! तुज यौवनदशाने शक्ति सघळी कयां गई ! तुज अंगनी शोभा तणी हा हा दशा आ शी ? थई ? लाळा झरे तुज मुख थकीने मश्करी लोको करे, ते जोईने पण वृद्ध तुं वैराग्यने के म नादरे. विवेचन-हे वृद्ध ! तें कैंक जोयुं कैंक अनुभव्युं, सुख दुःख कैंक वेठ्यां संसारमां कोईपण स्थळे तें सार देख्यो ? हवे शा माटे तेमां रीबाय छे शा माटे सडे छे, शा माटे दुःखी थाय छे, तारी पोतानी स्थिति जोईने पण तने Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ "श्री वैराग्य शतक केम वैराग्य थतो नथी. एक वखत तने तारी ताकात माटे अभिमान हतुं चालतो त्यारे धरती ध्रुजती, शरीरनुं सौन्दर्य जोई जोई तुं मलकातो, बोलतो के हसतो त्यारे तारी बत्रीशी नाची उठती, तुं सर्वने प्रिय हतो. आजे तारी कई स्थिति छे. तारी ए युवानी चाली गइ, तारं कौवत नाश पाम्युं. तने बेसतां - उठतां पण मुशीबत पड़े छे. तारा अंग गळी गयां छे. चामडीमां करचली पडी छे. नाकमांथी श्लेष्मा नीकळे छे मोमांथी लाळ झरे छे. लोको तने इच्छता नथी. तने बनावे छे, मश्करी करे छे. शा माटे एवी मानहीन स्थितिमां पडी रह्यो छे. हवे तारे कई लालसा छे. अडगं गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥ एवी कई आसा तने सतावे छे ! तारा घरवाळाने पण तुं भारभूत लागे छे, ए लोको रोज मनमां विचार करे छे के :हवे आ डोसो मरे तो सारू तो पण तुं शा माटे ए बधांने वळगी रह्यो छे. हवे धोळा आव्या छोडी दे बधांने, ऊभे पगे नीकळी जा. नहि तो आडे पगे बांधीने काढशे. नीकळवू छे ए नक्की छे तो पछी केम नीकळतो नथी. वैराग्य वासित बन ने संसारने छोडी दई सुखी था. ६७ (६८) मोह राजा आ चेतनने चोरनी माफक मारे छे. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक घनकर्मरूपी बन्धनो बांधी अरे दस्युपरे, चेतन ! तने आ मोहराजा भवनगरमां फेरवे विडम्बना पामे घणीने विविध दुःखोने सहे, निःशरण आ संसारमा शो सार छे ते तुं कहे ? विवेचन :- हे चेतन ! तने आ संसारमा शो सार लागे छे ! तने बचावनार अहिं कोण छे ? तु असहाय छो, तने कोईनुं शरण नथी, तारूं कोई रक्षक नथी. जे मोहने लईने तुं संसारने चाहे छे, ते मोहज तारो मोटामां मोटोदुष्टमां दुष्ट शत्रु छे. ए तने निबिड कर्मना दोरडा-बंधनोथी बांधीने आ संसार-नगरमां चोरनी माफक फेरवे छे, तने मारे छे, दुःख दे छे. पीडे छे. छतां तुं तेने छोडतो नथी, मोहने हठाव, मोहनो सामनो कर. अहं (हुं) मम (मारू) आ मंत्रथी तने मोहे पोताने ताबे को छे, तेनी सामे तुं नाहं (हुं [देह-ए] नथी) न मम (मारू कांई नथी) ए मंत्रनो जाप जप, एथी मोह दूर भागशे ने तुं विजयी थईश. मोह जीतायो एटले बस ! तने तारूं सर्वस्व मळशे ने तुं परम सुख पामीश . (६८) (६९) मानवजन्म कोहीनुर हीरो छे ते पामीने धर्म करो तोज ए सफळ छे. सर्वज्ञ करुणागार प्रभुए लाख चोराशी कह्यां आ जीवने उत्पन्न थवानां स्थान बहु दुःखे भर्या, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ए सर्व स्थानोमां अन्नती वार चेतन आथड्यो, कर धर्म मानव-जन्महीरो आज तुज हाथे चडयो. विवेचन-आ जीवने उत्पन्न थवानां स्थळ चोराशी लाख छे. तेने चोराशी लाख जीवायोनि कहेवामां आवे छे. 'सात लाख' प्रतिक्रमणमां बोलाय छे तेमां एनी गणत्री करावी छे. ए सर्व स्थानमां दुःख ने दुःख ज छे, वास्तविक सुख तो कोई स्थळे नथी अनंत काळथी परिभ्रमण करतो आ अहं ममेतिमन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत् । अयमेव हि नञ्पूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् ॥ जीव ए दरेक स्थाने अनंत वखत जन्म्ये ने मर्यो छतां तेनो छुटकारो न थयो फक्त मानवजन्म ज एवो छे के ज्यांथी आ जीव जन्म-मरणना चक्रावामांथी छुटी शके छे. मुक्त बने छे, सर्व संकटनो अंत लावे छे, नरजन्म चिंतामणि तुल्य छे. माटे ए जन्म पामीने हे चेतन ! तुं धर्म कर, मूर्ख ब्राह्मणनी जेम कागडाने उडाववामां ए रत्नने न फेंकी दे, विषयो कागडा जेवा छे, तेमां आ जन्म न गुमाव. एक मोटा अंधारीया महेलमां एक जणने पूरेल, ते महेलने चोराशी लाख बारणा हता. एक द्वारज एवं हतुं के: - ज्यांथी ए बहार नीकळी शके, बाकी बधा बंध हतां. अंदर पूरायेल प्राणीने त्यां खूब दु:ख हतुं एटले ए बहार नीकळवा घणां फांफां मारे पण मार्ग , मळे, तेने एक द्वार खुल्लुं छे तेनी खबर पडी बधे बारणे भमतो भमतो खुल्ला Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ श्री वैराग्य शतक बारणा पासे आव्यो त्यारे ! तेने मनमां विचार आव्यो, के आंधळा माणसो केम चालता हशे ! हुं ए प्रमाणे चाली शकुं के नहि ? एटले आंख मीचीने चालवा लाग्यो. एटलामां ए खुल्लु द्वार चाल्युं गयुं ने पुनरपि-पुनरपि (फरी फरी) एनो ए ज चक्रावो एने रह्यो. माटे हे चेतन ! तुं आ नरजन्म पामी आंधळानु अनुकरण न करतो. नहि तो तारो अंतज नहिं आवे. आ उघाडु बारणुं छे. नीकळी जा संसारमाथी ने सुखी था. संयम लई शिवपदने पाम (६९) (७०) कुटुंबिओ कोई कामना नथी. एमां जीवन गुमावq ए तद्दन निष्फळ छे. बहु जातिओमां भ्रमण करतां सर्व संबंधो कर्यां. माता पिता बंधु पणे तुज सर्व सत्त्वो सांपड्या, पण कोईथी अद्यापि तुज रक्षण कदीए नव थयु. हे जीव ! तारूं जीवन सवि एळे गयुं एळे गयुं. विवेचन- हे आत्मन् ! तुं कुटुंबना मोहे,माता पिताभाईभाडं-पुत्र पत्नी आदि परिवारना रागे संसारमा पड्ये रहेतो हो. तो ते राग छोडी दे. ए तारो मिथ्या मोह छे. दरेक जीव तारा कुटुंबि संबंधी छे. तुं अनंतकाळथी भमे छे ने दरेकनी साथे कोईने कोई संबन्धथी जोडायो छे. ए कोई तारा कोईपण काममां नथी आव्या उलटुं एना संबंधने लईने तुं दुःखना खाडामां गबडी पडयो छे. एनी पलोजणमां तुं Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक तारूं कांई साधी शकयो नथी. तारूं कर्तव्य तुं भूली गयो छे, तारूं जीवन तें एळे गुमाव्युं छे. निष्फळ कर्यु छे तारा आत्माने दुःखथी छोडाववो ए तारूं मुख्य कर्तव्य छे ए माटे तें शुं कर्यु ! बधाने पडवा दे खाडामां ! तुं तारूं साधी ले तारा हितमां सर्व- हित समायुं छे. माटे जीवनने सफळ बनाववा माटे धर्मपंथे वळ ने सुख मेळव. (७०) (७१) मरण समये 'मा मा' करे नहि वळे, धर्म करशो तो सुखी थशो. जेम अल्पजलमा माछली निःशरण थईने तरफडे तेम जीवन अन्ते जीव आ पीडाय छे व्याधि वडे, मा मा करे कोई करूण स्वरथी अश्रुनी धारा वहे देखे सगा व्हालां तथापि कोई दुःख न संहरे. विवेचन-आ जीवने दुःख आवे त्यारे, मरणकाळ नजीक आवे त्यारे, अनेक व्याधिओ-रोगो थया होय त्यारे, असह्य वेदना थाय छे. ए वेदनाथी ए कल्पांत रुदन करे छे. आंखमांथी आंसुनी धारा वहे छे, करुण स्वरथी 'ओ मा' 'ओ बाप' एवी चीसो-बुमो पाडे छे. जेम ओछा पाणीमा माछली फफडे-तरफडे तेम आ जीव हाथ पग घसे छे-पछाडे छे, ए असहाय-नि:शरण-अनाथ स्थितिमां मुकाय छे. तेने बचाववा कोई समर्थ नथी, मा बाप, स्त्री-पुत्र, सगाव्हाला बधा जोई रहे छे. कोई तेनुं रजमात्र दुःख ओछु Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक करी शकतुं नथी, ए दुःखथी बचावनार कोई होय तो ते धर्म छे. धर्मने आराध्यो होय तो आवां दुःखो आवतां नथी ने आवे छे तो सहनशीलता रहे छे, ने अंते परम सुख मळे छे. माटे धर्म करने सुखी था. आ वात 'अनाथी' मुनिना द्दष्टांतथी आबेहुब-यथार्थ समजाय छे, ते माटे श्री. उत्तराध्ययन सूत्रनुं वीसमुं -महानिर्गठिज्ज' अध्ययन वांचq. सांभळवु ने विचारीने हृदयमां उतार, (७१) (७२) स्त्रीस्नेह अने पुत्रप्रेम-दुःखदायी छे. एने सुखदायी मानी दुःखी न थाव. आ पुत्र मुज सुख हेतु छे आ स्त्री सदा सुखदायिनी मत जाणजे एम मन विषे ए बुद्धि छे दुःखदायिनी एम मानता कै नारकी ने कैंक तिर्यंचो थयां. नरजन्महीरो हाथथी हारी गयां हारी गयां. विवेचन-हे चेतन ! तने कोईए भुलाव्यो छे, ऊंघे रस्ते चडाव्यो छे, भ्रममां नाख्यो छे. तुं सुखनी शोधमां फरे छे तने मोहराजाना दलालोए स्त्रीथी सुख मळशे-पुत्रथी सुख मळशे धन-भोग विलासो, एशआरामथी सुख मळशे. वगेरे समजावी तेनी पाछळ तने पागल करी दीधो छे, तुं ए बधुं साचुं मानी एनी पाछळ गांडानी माफक भमे छे. पण एमां सुख नथी. ए तल नथी. रेतीना कण छे, एमांथी तेल नहि नीकळे गमे तेटलुं पीलीश, पण कांई नहि वळे. तारी जेवा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ९७ सेंकडो लाखो, करोडो प्राणीओ एमने एम दुःखी थया. अनंतानंत जीवो हतुं एथी विशेष दुःख पाम्यां, नरकने तिर्यचंना खाडामां गबडी गया. हाथमां आवेल नरजन्मसुखदायी अवतार-कल्पवृक्ष जेवो भव - हारी गया, गुमावी बेठा, हाथ घसता चाल्या गया. माटे हे जीव ! ए भ्रमने छोडी देने साचा सुखने देनार धर्मने आराध. (७२) (७३) संसारना संबन्धोने तात्विक द्रष्टिए विचारो, तमने जरूर ए खारा लागशे ने एथी वैराग्य थशे. माता मरी स्त्री थाय छे ने स्त्री मरी माता बने, थाये पिता ते पुत्रने जे पुत्र तेज पिता पणे, एक जन्ममां पण जीव आ बहु रंगथी रंगाय छे, कुबेरसेन परे अरे ? पीडाय छे पीडाय छे. विवेचन - हे जीव ! तने पूर्वजन्मनुं ज्ञान नथी, तारी बधी अज्ञान चेष्टा छे, नहिं तो तने स्त्रीनी साथे भोग भोगववां केम गमे ! जे स्त्रीने तुं आलिंगन करवा इच्छे छे ते एक वखत तारी माता हती. एक जन्ममां तुं एनी गोदमा रह्यो हतो. एना खोळामां रम्यो हतो, एनुं दूध पीने मोटो थयो हतो. आजे बधुं तुं भूली गयो छे तने कई पण याद नथी. आ बधा आत्मा साथे तारे बधा संबंधो बंधाया छे, एक जन्मनी माता, ए बीजा जन्ममां स्त्री थाय Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ श्री वैराग्य शतक छे. आ जन्मनी स्त्री अन्य जन्ममां माता बने छे. एक भवनो बाप ए बीजा भवमां पुत्र थाय छे ने पुत्र ए अन्य भवमां पिता थाय छे. अरे ! जुदा जुदा भव ने जन्मनी अपेक्षा तो दूर रही पण एक ज जन्ममां आ जीव बीजा जीव साथे जुदा जुदा अनेक सम्बन्धो-सगपणथी जोडाय छे, कर्मनी स्थिति महा विचित्र छे, कुबेरसेन एक जन्ममा अढार संबंधे बंधायो हतो, ते वात आ प्रमाणे छे. मथुरा नगरीमां कुबेरसेना नामे वेश्या हती, तेणे एक वखत युगलीया (जोडकां) ने जन्म आप्यो. बन्नेनी आंगळीमां वींटी पहेरावीने यमुना नदीमां मूकी दीधां, सौरीपुर पासे तणातां तणातां आव्या त्यारे बे मित्रोए बन्नेने काढ्या. पाळीने मोटा कर्यां, कर्मयोगे ते बन्ने कुबेरदत्त ने कुबेरदत्ता भाई-बहेन एक बीजा जोडे परण्या, बेनने पोतानो स्वामी पोतानो बन्धु छे ए वातनी जाण थतां वैराग्य आव्यो. तेणे दीक्षा लीधी ने साध्वी बनी, कुबेरदत्त एकदा व्यापारने कारणे मथुरा गयो. पोतानी माता-वेश्यानी साथे विलास करतां त्यां एक बाळक थयुं, पेली साध्वीने अवधिज्ञानथी आ वातनी खबर पडी. तेणे आवीने ते बधांने आ हकीकतथी वाकेफ कर्या, कुबेरदत्ते दीक्षा लीधी कुबेरसेना वेश्या श्राविका बनी. संसारनी आवी विचित्रता छे माटे हे चेतन ! संबंधोनी जंजाळमां न फसा ते छोडी ज्ञानीना साचासंबंधो बांधी मुक्त था. (७३) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक (७४) विश्वमां एवं कोई स्थळ नथी के ज्यां आ जीवे जन्म-मरण न कर्यां होय. चोराशी लख योनी विषे नथी कोई योनी विश्वमां नथी जाति के कोई कुळ एवं जीव न गयो जेहमां, वळी स्थान पण एवं नथी आकाश के पाताळमां ज्यां जन्ममरणो नव कर्यां बहुवार श्वासोश्वासमां. विवेचन-हे चेतन ! जन्म मरणना दुःख ए सर्व करतां भयंकर 'दुःख छे, एथी अधिक कोई दुःख नथी. तारो जन्म मरण करतां हजु पार न आव्यो. 'पुनरपि जननं-पुनरपि मरणमू' वळी जन्मवू ने वळी मरवू. एमने एम चाल्या ज करे छे. जन्मवाना स्थळ चोराशी लाख, ए बधे तें जन्म लीधां. बधी जातिमां, ऊँचा-नीचा कुळमां दरेक स्थानोमां तें अनुभव कर्यो, आकाश-पाताळ के पृथ्वीमां एवी कोई जग्या नथी के ज्यां ते जन्म मरण न कर्यां होय. एक वखत तारी ए दशा हती के : - तुं एक श्वासोच्छवासमां १७ा वखत जन्म मरण करतो. हजु तने ए जन्म मरणथी कंटाळो नथी आवतो ! आवे छे तो शा माटे जन्म मरण वधे. एवा आचरण करे छे. जन्म मरणथी छूटवा प्रयत्न कर. धर्म कर. संसारनी माया छोडी संयम लई परमपद मेळव के फरी तारे जन्मवानो के मरवानो वारो न आवे. (७४). Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्री वैराग्य शतक (७५) विषयो सेववाथी विषयो वधे छे पण घटतां नथी, घीथी अग्निनी जेमजे विविध विषयो भोगव्यां बहवार ने जे जे वम्यां परभावमां पकडाईने ते ते अरे पाछा ग्रह्यां, पण विषयसुखनी लालसा तारी हजीए नव मटी शुं सींचता तथी कदीए अग्निनी ज्वाला घटी. विवेचन-हे जीव ! आ कामदेवना बाणथी हणाईने परभावमां पकडाईने -मोहमां मुंझाईने तुं विषयोने झंखे छे. तने एम थाय छे के एकवार आ विषयो भोगवी लऊं एटले मन शांत थई जशे. तृप्ति थशे. पण मूढ ! आ विषयो तें एक वखत नहि अनंती वखत भोगव्या तोय तारी एनी एज दशा छे. विषयो भोगववाथी घटता नथी पण उलटाना वधे छे तेनाथी छुटवानो फक्त एकज उपाय छे. विषय वैराग्य-वासनाओनो त्याग-इन्द्रिय वशीकरण (१) घी होमवाथी अग्निनी ज्वाळा शांत थती नथी पण वधे छे तेम भोगो भोगववाथी कामवासना घटती नथी पण वधे छे. माटे हवे कामाग्निमां भोगरू पी घी न होमो ए आपो आप शमी जशे. भोगनो त्याग करोने योगने आराधो, (७५) १. न जातु काम : कामाना मुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवत्म, भूय एवाभिवर्धते ।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ श्री वैराग्य शतक (७६) स्त्री मोह-विषय लालसा - धनेच्छा ए सर्व लाकडाना लाडु जेवा छे, ए नहि खावामां ज सार छे. छे स्त्री खरेखर शस्त्र ने आ बन्धुओ बन्धन खरे, ने विषय सुख छे विष समा दोलत वळी दो-लत अरे, एम जाणीने हे मित्र ! मारा विरम आ संसारथी आ लाकडानां लाडवामां रसतणो छांटो नथी. विवेचन:-हे मित्र ! आ संसारने असार समज संसारमा छे शुं ! संसारनी चार चीज तने मोह पमाडी रही छे. पण ए चारे भयंकर छे. तने फसावनारी छे-तारूं अहित करनारी छे, तेमां प्रथम मोहक चीज छे. स्त्री, ए स्त्री नथी पण साचे ज शस्त्र छे-कामदेव- अमोघ अस्त्र, तेनाथी हणायेल तुं तारूं कंईपण करवा समर्थ नहिं था. बीजी छे बन्धुं परिवार, एनो मोह महाबंधन छे, एनाथी बंधायेल तुं दुःखी थईश पण छुटी शकीश नहि, संसारमा खेंचनारी त्रीजी चीज छे, विषय सुख. पण ए ? ए झेर छे, हालाहल छे-कातिल कालकूट छे, किंपाकना फळनी जेम मीठा लागशे पण तने मारी नाखशे, ने चोथी चीज छे दोलत, धन, संपत्ति पण ए दोलत दो-लत ज छे. ए आवे छे. त्यारे तारी छातीमां लात मारे छे. तुं एवो तो अक्कड थईनेछाती काढीने फरे छे के तने कांई पण सूजतुं ज नथी. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्री वैराग्य शतक ने जती वखते पाछळ-वांसामा लात मारे छे. तुं एवो वांको वळी जाय छे के ताराथी ऊंचं पण जोई शकातुं नथी. माटे हे बधुं ! आ संसारने छोडी दे एमां न फसा ? ज्यां सुधी एमां नथी पडयो त्यां सुधी एम थाय छे के:-एमां कांईक मजा छे, पण एमा पडेलाने पूछी जो के ए केटला पस्ताय छे. ए लाडवो दूरथी पीळो देखाय छे पण एमां कांई नथी. ए लाकडाना जेर - भूसानो लाडवो छे. ए नहिं खावामां ज सार छे, खाधा पछी एप्तावो थशे, स्वाद तो नहि आवे पण ए मोंमां एवो तो पाटो जशे के बीजुं पण तने खावा नहिं दे. मुख साफ करतां तारो दम नीकळी जशे. माटे संसारमा न पड ने शाश्वत सुखना परम साधनभूत संयमने स्वीकार. (७६) (७७) परने माटे पाप करो छो पण ते भोगववाना तमारेज. एमां कोई भाग नहिं पडावे. जे कुटुंबने माटे करे छे विविध कर्मो होशथी. पण कर्मने उदये कुटुंबी कोई तुज साथी नथी. आव्यो अरे तुं एकलो ने जइश पण तुं एकलो, ने परभवे दुःखी सुखी वा थइश पण तुं एकलो. विवेचन-हे जीव ! तुं जनम्यो त्यारे शुं लईने आव्यो हतो ! आ धन, दोलत, कुटुंबपरिवार बधुं शुं साथे लईने आव्यो हतो ? ना, मरीने परभवमां जईश त्यारे आमांगें Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १०३ कंईपण तारी साथे आवशे ! ना, त्यारे जे तुं जन्मतां साथे लाव्यो नथी, मरतां साथे लई जवानो नथी. मरीने गया पछी पाछो अहिं जोवाने आववानो नथी. तारो बाप जोवाने नथी आव्यो तो तुं शुं जोवाने आववानो ! जे आदिमां नथी अंते नथी तो थोडा समयने माटे 'मारूं मारूं' करीने शा माटे वचमां दुःखी थाय छे ! एने माटे शा माटे क्रूर कर्म करे छे ! जे कुटुंबने माटे तुं साचां जुठां-आरंभ समारंभ-व्यापार धंधा करे छे. एथी तने महा कर्मो बंधाय छे. संपत्तिनो भोगवटो बधां करे छे पण ए कर्मो तो तारे एकलाने ज भोगववा पडशे. एमां कोई भाग पडाववा नहिं आवे, 'नैगम एक नारी धूती पण, घेबर भुख न भांगी, जमी जमाई पाछो वळीयो, ज्ञानदशा तब जागी' जेवी तारी स्थिति थशे माटे जो परभवमां सुखी थर्बु होय तो अत्यारे ज चेती जा, पारका माटे पापो न कर, पुण्यकरणी कर. धर्माचरण कर ने सुखी था. (७७) (७८) आत्मा एज आत्मानो शत्रु छे ने मित्र छे. तुज शत्रु के तुज मित्र एवी कोईपण व्यक्ति नथी. त्हारा विना आ विश्वमा ए कोई पण शक्ति नथी. संसारमा संसक्त एवो तुंज त्हारो शत्रु छे, स्वभावमां रमतो खरेखर तुं ज त्हारो मित्र छे. विवेचन-हे आत्मन् ! तने आ विश्वमां केटलाएक जीवो शत्रुरूप लागे छे ने केटलाएक मित्र लागे छे. पण Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्री वैराग्य शतक ए तारो मिथ्या मोह छे. भ्रम छे, तारो कोई मित्र नथी ने शत्रुओ नथी, तारूं भलु के बुरू करवानी कोईमां शक्ति नथी, तारू सारूं के नरसु करवा तुं ज समर्थ छो सुखी थर्बु के दुःखी थर्बु तारे आधीन छे. संसारमां-परभावमां आसक्ति धरीश तो दुःखी थईश, तुं ज तारूं बगाडीश. स्वभावमां रमीश-आत्मा रमणता केळवीश तो सुखी थईश, ने तारा आत्मानो उद्धार करीश. माटे पुद्गल रमणताने छोडी दईने आत्म रमणताने केळव. (७८) (७९) धर्म अने धर्मिजनो सामेनो बकवाट ए ___ महामिथ्यात्व- तांडव छे. मिथ्यात्वविषधर विष चडे छे जे समे आ आत्म ने, श्रद्धांग थाय शिथिल ने थाये प्रमादी ते समे, निन्दे विशेषे धर्मीजनने नास्तिकोने संग्रहे, खुल्ला करे मर्मो गुरू नां पापवृत्ति ने वहे. विवेचन-ज्यारे आ आत्माने मिथ्यात्वरूपी नाग डसे छे ने तेनुं झेर चडे छे, मिथ्यात्व पिशाच वळगे छे, मिथ्यात्व भूत भराय छे. त्यारे तेनुं श्रद्धाशरीर शिथिल थई जाय छे, ए खवाई जाय छे, नाश पामे छे, तेने प्रमादनो आवेश आवे छे. ए नाचे छे, कुदे छे, नहिं बोलवानुं बोले छे, ने नहिं करवानुं करे छे. धर्मात्माओने निंदे छे भांडे छे, अछतां दूषणो मूके छे. पापात्माओनो नास्तिकोनो परिचय करे छे तेने पोषे Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १०५ छे, तेनी वातो साची माने छे. धर्मगुरुने माटे उपजावी काढेली साची जूठी, न करवानी वातो करे छे. जनतामाथी तेमना प्रत्येनी पूज्य - बुद्धि ओछी करवा प्रयत्न करे छे, अने एकान्त पाप प्रवृत्तिमां राच्यो माच्यो रहे छे. अंते घोरपाप बांधी दुःखी थाय छे. माटे हे चेतन ! ए मिथ्यात्व तारी पासे न आवे, तने तेनो वळगाड न लागे ए माटे सचेत रहेजे. सम्यक्त्वने दृढ करजे ने सुखी थजे. (७९) (८०) शान्तचित्तरूपी समुद्र पण विषयवासना रूपी वायुथी खळभळी उठे छे. - जेम प्रबलपवने शान्तजलधि पण अतिशय खळभळे, तोफानमां आवी तरंगी प्राण ने धन संहरे तेम चित्त - जलधि विषय वृत्ति वायुथी डोळाय छे. सद्बुद्धि नौका बहु गुणोनी साथ तळीये जाय छे. - विवेचन-प्रशान्त महासागर पण प्रबळ पवननुं जोर होय तो काबुमां नथी रहेतो, खळभळी उठे छे. तोफानमां आवी जाय छे मोटा मोटा मोजाओ उछाळी वहाणोने आगबोटोने - नौकाओने डुबाडी दे छे. माल-मिल्कत ने मुसाफरोनो नाश करे छे. एज प्रमाणे मन ए एक महासागर छे. चित्त ए स्थिर समुद्र छे. सद्बुद्धिरूपी नाव अनेक गुण रत्न भरेलुं तेमां तरे छे. बुद्धिमान आत्मा ए कप्तान छे. तेनी एक सरखी गति त्यां सुधी रहे छे. के : ज्यां सुधी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्री वैराग्य शतक विषयवृत्तिरूपी वायु वा'यो नथी, जो ए वायु जाग्यो तो बधी बाजी ऊंघी वळी जशे. ए चित्तसागर जछळवा मांडशे, सद्बुद्धि नौकाने ऊलटावी नाखशे, कप्तानने पण बेकाबु बनावी देशे. ने बधां नीचे तळीए जईने बेसशे. माटे ए वायु न वा'य एनी हे चेतन ! सावचेती राखजे ए तारे आधीन छे, विषयवासनाने नाबुद करो ने सद्बुद्धि नावमां बेसी पार पडो, गुणरत्नने साचव ने वधारो-सुखी थाव. (८०) (८१-८२) मळेल सामग्री सर्व अल्पकाळ माटे छे, माटे श्रेयः करो, श्रेयः करो. संध्या समयनां वादळा सरखी समृद्धि जाणवी, जीवन दशा पण पाणीना बुद्बुद समी निर्धारवी, नदी वेगनी जेवी जुवानी केटला वरसो रहे, विचारीने हे जीव ! तारू श्रेय शेमां ते कहे. गुलाबकेरूं पुष्प आ शुभगन्धथी बहेकी रह्यं. जनचित्तने खेंची रह्यं रूप रंगने रसथी भर्यु, स्पर्शे सुंवाळू पण अरे क्षणवारमा पलटाय छे, जो जीव ? नेत्रो खोलीने जे पगतळे चगदाय छे. विवेचन :- संसारमां कई चीज शाश्वत छ ! कई चीज एक सरखी रहे छे ! कई चीज बदलाती नथी ! क्षणवारमा बधुं फरी जाय छे. एकज दृष्टांत ल्यो. खीलेलं गुलाब- फुल केवी सुगंध फेलावे छे, तेमांथी केवी मीठी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १०७ सौरभ-सुवास प्रसरे छे. तेनी पांखडीओ, तेनो ओछो लालरंग उज्जवळ रूप, आंखने एकदम आकर्षी ले छे. ते जोवामां चक्षुओ चोंटी जाय छे. तेनो स्वाद पण जीभने मिष्ट लागे छे, स्पर्श पण कोमळने रेशम जेवो सुंवाळो छे. पण आ बधुं केटला वखतने माटे ! क्षणवारमां तो पलटाई जाय छे, एक रात वीते छे ने ते जोवू गमतुं नथी, ते करमाई जाय छे. तेना रूप-रस-रंग-स्पर्श-गंध बधां फरी जाय छे. जे माथे चडतुं एज पगे चगदाय छे. हे चेतन ! आ गुलाबना पुष्पनी ज आ स्थिति छे, एम न समजतो. बधानी एज स्थिति छे, आ समृद्धि-धन सम्पत्ति आजे छे ने काले नथी-सांजना वादळानी माफक तेने वीखरतां वार लागती नथी. आ जीवन ए पाणीना परपोटाना जेतुं छे. एने फुटतां वार नही लागे जोतजोत्तमां फूटी जशे. जीवनदशा पूरी थशे. आ युवानी ए पण चाली जशे. तुं ज, कहे ए केटला वरस रहेशे ! पांच पच्चीश वर्षमां तुं जुवान मटी बुढो बनीश. ए जवानी छे माटे जवानी ज. ए नक्की छे, माटे हे आत्मन् ! विचार करीने कहे के आ विनश्वर वस्तुमां मोहावु ए हितकर छे ! के एनो मोहत्यागी हित करवा तैयार थq ए! कल्याण करवा उभा थवं, आत्माना श्रेय माटे कटीबद्ध थq, एज उचित छे. आजे जे देखाय छे तेमांनुं काले कांई नहिं होय माटे सधाय तेलुं साधी लो ने आत्माने सुखी बनावो (८१-८२) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्री वैराग्य शतक (८३) जो मोक्षमां जवा इच्छा होय तो विषय रूपी झेरी झाडनी छायामांये न बेसो. मुक्ति नगरमां जो जवा इच्छा हृदयमां छे तने. विश्रान्ति लेतो नव घडीए विषय विष वृक्षो तळे, छाया य तेहनी सत्त्वनाशक भ्रान्तिकारक थाय छे. पछी मुकित पथमां जीवथी पगलुं य नव मुकाय छे. विवेचन-हे चेतन ! तने संसार दुःखथी भरेलो समजायो छे. तुं तेथी कंटाळ्यो छे. सुखथी भरेल मुक्ति पुरीमां जवा तने इच्छा थई छे. तेथी तें तेनो रस्तो लीधो छे-तुं मार्गे चडयो छे. हवे तने एक सूचना करवामां आवे छे. ए तुं भूलतो नहि. अहिंथी जतां रस्तामां तने थाक लागशे. रस्तो कांई नानो सूनो नथी, पन्थ लांबो छे. तने विश्राम लेवानुं मन थशे, ते वखते तुं थाक खावा ज्यां त्यां बेसी न जतो, विचारीने बेसजे. रस्तामां मोह राजाए डगले ने पगले झेरी झाडो वाव्या छे. तेनुं नाम छे. 'विषयवृक्ष' एनी नीचे तो तुं भूलेचूके पण न बेसतो. एनी छायामां बेसीश तो पण तने तेनुं झेर चडशे, तारी बधी शक्ति हणाई जशे, तारी चेतना नाश पामशे पछी तुं मुंझाइश. तने भ्रम थशे के हवे आम जवानुं के तेम. पछी मुक्ति मार्गमां तो ताराथी एक डगलुं पण आगळ वधी शकाशे नहिं तने ए झेरनुं घेन चडशे ने तुं त्यां ने त्यां पड़ी रहीश माटे ए Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १०९ वृक्षोथी दूर दूर चालजे ने मुक्ति मार्गमां आगळ वधजे. जेटलो ए वृक्षथी छेटो रहीश तेटलो जल्दी मुक्तिनगरमां पहोंचीश आ शिखामण-भूलतो नहिं. शेठनी शिखामण झापा सुधी एवं करतो नहि बस-जा चाल्यो जा-आगळ वधने शिवसुखने अनुभव. (८३) इति संसारासारतावर्णनोऽधिकारः संपूर्णः । अथेन्द्रियपञ्चकविषयासक्तसत्त्वदुःखवर्णनम् ॥ (८४) स्पर्शनेन्द्रिय वश दुःखी हाथी. निर्जनवने निर्भय थईने विलसतो स्वेच्छा थकी, खावा तरूनां किसलयोने पान झरणां जल थकी, ते हस्ती वननो पण प्रहारो अंकुशोना जे सहे. स्पर्शनवशे थई रांकडो बहु भारने माथे वहे. विवेचन-इन्द्रियवश प्राणी बहु दुःखी थाय छे. एक एक इन्द्रियने आधीन थयेल पराधीन दशामां मुकाय छे. पांच इन्द्रियोमां प्रथम-स्पर्शनेन्द्रिय छे, तेना विषयमां आसक्त थवाथी घणां कष्टो सहन करवा पडे छे. एक स्पर्शनेन्द्रियने कारणेज हाथी जेवू श्रेष्ठ प्राणी परवश बने छे, मोटा मोटा जंगलमां-वनमां इच्छा प्रमाणे फरता हाथीने कोईनी बीक नथी. झाडना पान-फळ खावा, झरणाना पाणी पीवा ने मरजी प्रमाणे वर्तवं. जेने कोई कांई करी शके नहिं. एवां हाथीने पण स्पर्शनेन्द्रियना मोहथी पकडावू पडे छे. तेने पकडवा माटे Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्री वैराग्य शतक : एक मोटो खाडो खोदवामां आवे छे. तेना छेडा उपर एक हाथणी-(बनावटी) ऊभी राखवामां आवे छे. तेनुं आलिंगन करवा-तेना स्पर्श सुखनो अनुभव करवा हाथी आंधळो बने छे, दोडतो आवे छे ने खाडामां जंपलाय छे. महावतो तेने पकडे छे, बांधे छे. अंकुशोना प्रहार करे छे. तेना माथे अंबाडी-उपडावे छे. अरे लाकडा पण खेंचावे छे. ते परवश थई बधु सहन करे छे. माटे हे चेतन ! स्पर्शनेन्द्रियने वश थई हाथीनी माफक दुःखी न थतो (८३) (८५) रसनेन्द्रियमां लोलुप बनी मरण पामतां माछला. अतिचपल ऊंडा जलरूपी निर्भय गृहे वसतो हतो, स्वजातिसंगे रंगथी रमतो हतो सुख पामतो, ते मच्छ पण हा ? हृदयभेदक रीतथी य हणाय छे, जिह्वा विना ए कष्टमां कहे कोण कारण थाय छे. विवेचन-मोटा मोटा सरोवरोमां-अगाध-जलमां-जेनुं तळीयुं पण न देखाय एवा सागरमा रहेता माछलाओ मच्छीमारना हाथमां सपडाय छे मरणने शरण थाय छे जाळमां पकडाय छे. एमां जीभनी लोलुपत्ता एज निमित्त भूत छे. लोटनी गोळीयो बनावी तेमां लोढाना कांटा भरावी पाणीमां नाखवामां आवे छे ते खावानी लालचे माछलांओ ते लोटनी गोळीओ मुखमां ले छे ने गळामां Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १११ कांटा भराई जई मरण पामे छे, ए मरण पामेला माछलानी स्थिति पण जोई न शकाय एवी होय छे. आ बधां दुःखमां कारण कोई होय तो ते एक जीभ ज छे. माटे हे जीव ! जीभने वश न थतो पण जीभने वश राखजे तो सुखी थईश (८५) ( ८६ ) नासिका वश कमळ बन्धमां बंधातो भमरो. झंकारना शब्दे करी दिग्देश जेह गजावतो, पुष्पोतणा रस चूसतो चालाक शीघ्रगति छतो. ते मधुप बन्धन पुष्पनुं गजकर्णनी लातो सहे, जो नासिकाने वश पडीने झुरी झुरीने मरे. विवेचन - हे आत्मन् ! घ्राणेन्द्रियने पराधीन ! नासिकाने वश-सुगन्धमा लोलुप बनीने तुं घणा कष्टमां पडे छे. जे भमरो गुंजारव करी दशेदिशा झंकारथी भरी देतो, सहजपण अवाज थाय तो एकदम उडी जतो पुष्पोना पराग रस चुसीने आनंद पामतो एज भमरो सांज सुधीमां पुष्पनी गंधमां- कमळनी सुवासमां आसक्त बनी त्यांनो त्यां चोटी रहे छे. सूर्य आथमे छे ने कमळ बीडाई जाय छे. तेना कोशमां- बंधमां भ्रमरो पुराई जाय छे नीकळी शकतो नथी. विचार करे छे के रात जशे ने सवार पडशे. सूर्य उगशे ने कमल खीलशे एटले हुं उडी Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्री वैराग्य शतक जईस पण एटलामां तो वनगज आवीने भमरा सहित कमळने पेटमां पधरावी दे छे जो ए गंधमां लुब्ध बनी त्यां बेसी रह्यो न होत तो तेने आम झुरीझुरीने मरवानो वखत न आवत, माटे हे चेतन ! तुं पण गन्धमां लोलुप न बनतो (८६) (८७) चक्षुरिन्द्रियमां आसक्त-मरण पामतुं पतंगीयुं पतंग पचरंगी रूपाळ गगनपथमां गाजतुं, आघातथी के स्पर्शथी क्षणवारमा ऊडी जतुं. थई नयनने वश ते बिचारूं ज्योतमां झंपलाय छे, एम जाणीने पण शीद चेतन ? नयनने वश थाय छे. विवेचन-हे चेतन ! रू पनी पाछळ गांडा बनी तें तारूं केटलुं गुमाव्युं छे, तेनो विचार कर, पारकी स्त्रीना रूप जोवामां तें केटलीय वखत जान-माल खोया छे. तुं पायमाल थयो छे. ए अनर्थनी परम्पराथी बचवा माटे तो सुरदासे पोतानी आंखो फोडी नाखी हती. एमां ने एमां रूपसेन भवोभव दु:खी थयो हतो. हवे तो ए आंखने रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं, भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङकजश्री : । इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे,, हा हन्त ? हन्त ? नलिनी गज उज्जहार ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ११३ काबुमां राख ! पारका रूप जोवाथी मनोविकार वधवा सिवाय बीजुं तारा हाथमां कांई आवतुं नथी. आ पतंगीयानी दशा जो केवू मनोहर देखाय छे. जरा चपटी वगाडीये के अडीये तो तरत ज ऊडी जाय छे, आकाशने पण अवाजथी गजावे ने पोताना पंचरंगे रम्य बनावे छे पण ए दीवानी ज्योति जोईने भान भूले छे. ए लालने पीळी शिखामां मोहाय छे. एमां पोताना देहने होमी दे छे मरण पामे छे. माटे हे चेतन ! तुं शा माटे नयनने वश थाय छे ! तारी आंखथी महात्माओना दर्शन कर, सारूं सारूं दर्शन कर, नासिका पर आंख स्थिर कर-ध्यान धर पण रूपमां न फसा. नहि तो तारी पण पतंगीया जेवी दशा थशे. माटे आंख पर काबु मेळव (८७) (८८) मृग अने सर्पो-कर्णेन्द्रिय वश बनी दुःखमां पडे छे. (शार्दूल विक्रीडित) रहे गाढनिकुंजमां विहरवू निर्भीक थईने वने, सहेवू ना कदीए कटुवयणने, ना देखq दुष्टने, जे'हने तेह मृगो य श्रोत्र वशथई खोवे अरे प्राणने, ने सर्पो य थई सुशब्दरसिको, केवा पडे बन्धने. विवेचन-कान अने मनने गाढ संबंध छे. कान द्वारा पेसता शब्दो सीधा मन उपर असर करे छे, पांचे इन्द्रियोमां Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्री वैराग्य शतक कान एक एवी इन्द्रिय छे. के जे बंध करी शकाती नथी. शब्दने आधीन आखं जगत छे. मोहक शब्दो सांभळी प्राणी रागमां फसाय छे. ते अप्रिय सांभळी द्वेष करे छे. माटे हे चेतन ! आ बन्ने प्रकारना शब्दो न सांभळवा पडे एवी स्थितिमां रहे. धर्मश्रवणमां श्रवणेन्द्रियने रोकी राख, जो शब्दने वश थयो तो हरण अने सर्प जेवी तारी दशा थशे. वनखंडमां विचरतो कोईथी भय न पामतो कोईना प्रहार के कठोर शब्दने नहिं सहेतो दुष्टने जोवानो पण प्रसंग न पामतो-मृग मोरलीने-मधुर गायनने वश थई पोताना शत्रु पासे दोडी जाय छे. बंधनमां पडे छे. प्राणने खोवे छे. दरमां रहेवा, निरांते सुवा- कोईनी पण परवा नहिं करवानी एवा सर्पो -जेना फुफाडाथी पण माणस धूजी जाय एवा मणिधर नागो पण - बंसीना स्वरने वश बनी भान भूले छे. मदारीने आधीन थाय छे. तेना नचाव्या नाचे छे. निर्विष बनी लोही लुहाण थाय छे. अधूरा आयुष्ये मरे छे माटे आत्मन् ! तुं पण जो श्रोत्रेन्द्रिय - कानने परवश पड्यो तो तारी पण एज दशा छे माटे कान पर काबू राखी-सुखी थजे. हे जीव ! आ पांचे तो एक एक इन्द्रियने परवश पडी प्राण खोवे छे तो तने पांचे इन्द्रियोना तेवीस विषयोमां गाढ आसक्ति छे तेथी तारी केटली दुर्दशा थशे तेनो विचार कर, विचार करी आसक्ति ओछी कर-आसक्तिने सर्वथा छोडी दे. जो संसारथी डरतो हो ! ने मोक्ष मेळववाने इच्छतो हो ! तो इन्द्रियोनो विजय Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ श्री वैराग्य शतक करवामां तारू द्दढ वीर्य-अखुट बल फोरव. पतङ्गभृङ्गमीनेभ-सारङ्गा यान्ति दुर्दशाम् । एकैकेन्द्रियदोषाच्चेद्, दुष्टस्तैः किं न पञ्चभिः ॥ बिभेषि यदि संसारा मोक्षप्राप्ति च काक्षसि । तदेन्द्रियजयं कर्तुं , स्फोरय स्फारपौस्त्रम् ॥ इति पञ्चेन्द्रियविषयासक्तसत्त्वदुःखवर्णनम् । अथ ज्ञटित्यात्मश्रेयस्करणप्रेरणाधिकारः (८९ थी ९३) मरण ए नक्की छे. गयेलो समय पाछो आवतो नथी. माटे प्रासाद छोडी आत्मकल्याण करवा कटिबद्ध बनो. (हरिगीत) . . भयपामीने मृत्यु थकी तुं शीद घर संताय छे, मौक्तिकप्रमुखनी भस्म शाने शक्ति माटे खाय छे, भयभीतने ए मृत्युराक्षस नव त्यजे पण जन्मने, जे नव भजे त्हेने त्यजी कर जन्मनाशक यत्नने, मृत्युतणी साथे नथी मैत्री करी तें मानवी, तेहना भयोथी रक्षनारी छे सुरंगो क्यां नवी,. निश्चय नथी कीधो मरणनां समयनो ज्ञानी कने, शाथी कहे छे आ स्थितिमां काल करीशुं धर्मने जे दिवस ने जे रात्रिओ तुज जीवनमांथी जाय छे. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्री वैराग्य शतक क्रोडो उपाये कोईथी कदीए न एह पमाय छे. अपूर्व अवसर आ बधो एळे गुमावे शीदने निद्रा त्यजीने स्वस्थ कर तुज चित्तने तुजचित्तने तृणाग्र-जल- बिन्दु समुं छे जीवनने आ वैभवो, समुद्र जलकल्लोल ज्युं देखाव दे छे नवनवो, पत्नी प्रमुखनो प्रेम ते पण स्वप्नना सम जाणवो. समस्त आ संसार जाणो लाकडानो लाडवो. ( शार्दूलविक्रीडित ) मोटुं मंदिर ने विनीततनयो लक्ष्मी न खूटे कदी, ने क्ल्याणकरी वधू - विरहने मित्रो शके ना सही, मानी विश्व सुरम्य एम पडतां संसारमां कैं जनो, जाणीने क्षण नष्ट संग त्यजता कैं संत ए सर्वनो. , विवेचन- हे चेतन ! तुं मरणथी भय शा माटे पामे छे. तारे मरवुं ए चोक्कस छे. जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु-ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादप्रतिहार्ये ऽथ को हि शोचितुमर्हति ॥ जन्मेलानुं मरण नक्की छे ने मरेलाना जन्म नक्की छे. माटे जेमां फेरफार न करी शकाय एवा विषयमां शोक करवो, ए कोने उचित छे ! अर्थात् शोक करवो नकामो छे, तारे आ शरीर एक वखत त्यजवानुं छे. एने तुं गमे तेम साचवीश तो'य छोडवुं पडशे, तारे ए शरीरथी शुं करवानुं छे, तेनो ते कोई दी विचार कर्यो ? चोवीश Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ११७ कलाक शरीरनी सेवामां काढे छे. ए दुबळु न पडे मादुं न पडे. मरी न जाय, ए माटे तने रातदिवस चिंता रहे छे. एथी डरतो तुं मोटा मोटा महेलोमां भराय छे, दवा खाय छे, रसायण, वाजीकरण, पौष्टिकआहार, मोतिअभ्रक, लोह, ताम्र, सुवर्ण वगैरेनी भस्मो वापरे छे, पण बधुं शा माटे ! गमे तेम करीश, गमे तेटलो मरणथी डरीश, मरण न आवे, माटे काळ पासे कालावाला करीश तो पण ए तने नहिं छोडे तारे काळनी साथे कांइ सगपण नथी, ए कांई तारो मित्र के सगो नथी थतो. एनाथी बचवाना कोई गुप्त स्थान नथी सुरंगोथी खोदायेला भोयराओ नथी के ज्यां तुं भराई जइश तो त्यां ए नहि आवी शके. तुं गमे त्यां होइश तो पण त्यांथी ए तने लई जशे. तो शा माटे पुदगलानन्दी बन्यो छे. शरीरने मारूं मारूं करी एनी पाछळज शा माटे मरी फीटे छे. एज शरीरथी एवा प्रयत्नो कर. जेथी तुं अजर-अमर बनी जाय, तारे फरी जन्म-मरण न करवा पडे. शरीर ए साधन छे, तारूं श्रेय करवाना काममां आवे तोज ए कामनुं जे साधनथी साध्य-सिद्धि न थाय ए साधन पण शुं कामर्नु ? माटे धर्म पहेला ने पछी शरीर, धर्ममां-आत्महितमां खामी न पहोंचे एटली ज शरीरनी संभाळ ले. तारूं आयुष्य कयारे पूरूं थशे एनी तने खबर नथी, मरण क्यारे आवशे. एनुं तने ज्ञान नथी, कोई ज्ञानी पासे तें नक्की नथी कर्यु के,तुं आटला वर्ष जीववानोज छे, जोतजोतामां चाल्यो जईश, आवी स्थितिमां एम केम कहे छे Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ श्री वैराग्य शतक के 'काले धर्म करीशुं' काल कोणे जोई छे. धर्मराजा जेवाने पण कालनी खबर नो'ती तो तारूं शुं गजुं छे. धर्मराजा युधिष्ठिर पासे एक ब्राह्मण दान लेवा आव्यो हतो. राजाए कडं के काले आवजे. भीमसेनने खबर पडी, तेणे विजयघंट वगाड्यो. युधिष्ठिरे बोलावीने पूछ्युं के भाई ! आपणे कोनो विजय कर्यो छे के आ विजय घंट वगाडयो छे ! भीमे हसीने उत्तर वाळ्यो के आपे मृत्युनो चोवीश कलाक माटे विजय कर्यो छे माटे, राजाए पूछयु :- कई रीते ? भीमे कह्यु - आपे आ ब्राह्मणने काले दान लेवा आववानुं कर्तुं छे. तेथी आप काल सुधी अवश्य जीववाना छो, नहिं तो एक क्षणनी पण मुदत केम अपाय. युधिष्ठिरे तुरतज ब्राह्मणने दान आपी विदाय कर्यो ने समज्यां हे चेतन ! ज्यारे धर्मराजा जेवा मुदत आपवा समर्थ न हतां. तो ताराथी धर्म करवामां घडीनो पण विलंब केम कराय ? जे दिवस के जे रात्रि तारा जीवनमांथी जाय छे ते पाछी आवती नथी. जे समय गयो ए गयो ! तारों अपूर्व अवसर एमने एम चाल्यो जाय छे. ए निष्फळ न गुमाव, ऊंघमांथी उठ ! तारा मनने ठेकाणे लाव तारा चित्तने जागृत कर, जेटलुं सधाय तेटलुं साधी ले, आ जीवन-आ वैभवो, आ स्त्री परिवारनो प्रेम-ए सर्व तने नवा नवा लागे छे. पण ए घासनी सळी पर रहेला पाणीना बिंदु जेवा छे. तेने सुकातां वार नहिं लागे, ए खरी जशे ने नाश पामशे. ए सर्व स्वप्न लीला छे. आंख ऊघडया पछी कांई नहि जणाय. आ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ११९ संसार लाकडानो लाडवो छे. एमां कांई मजा नथी. कोई माणसो संसारने स्वर्ग गणावे छे, कहे छे के:-मोटा मोटा महेलो रहेवाने, विनयवन्त ने आज्ञांकित पुत्रो, अखूट लक्ष्मी, सेवा करती अने सुख-दुःखमां भाग लेती स्त्री - पत्नी क्षण पण छुटा न पडे एवां मित्रो, खावुं पीवुं, एशआराम, मोजमजा ए सर्व संसारमां छे. संसारने ज सर्वस्व मानी - मनावी, कैंक जन संसारमां पडे छे ने पाडे छे तेथी ऊलटुं कोई सज्जनो ! आ बधुं क्षणिक छे, आपात रमणीय छे. परिणामे दुःखदायी छे. एम समजी संसारनी मायाजाळमां फसाता नथी, संसारने नरक समजी तेमांथी नीकळी जाय छे. संतोना चरणनुं शरण ले छे, संत बने छे. परम सुख मेळवे छे. माटे हे आत्मन् ! तुं पण ए संतोने ज· अनुसरजे, मोहमां मुंझातो नहिं जीवनने सार्थक करवा एक समयने पण प्रमादमांं गुमावतो नहि, आत्मकल्याण करी परमपदना अविचल आनंद पामी अनंत सुख मेळवजे. (८९ थी ९३ ) ॥ इति झटित्यात्मश्रेयस्करणप्रेरणाधिकारः ॥ अथात्महितकरविचारणानिस्पणम् । (९४ थी १००) आ सात श्लोकमां आत्म विचारणा बताववामां आवे छे, आमां आत्मा क्रमिक विकासनी इच्छा करे छे, शार्दुल विक्रीडित जेवा उदार छंदमां आत्मविकासनी Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० . त्पय छ. श्री वैराग्य शतक भावना अहिं सुंदर रीते भाववामां आवी छे के ए सुकतो मोढे करी. वारंवार बोल्या करवानुं मन थाय ज्यारे ज्यारे ए श्लोको बोलीए छीए, त्यारे तेनुं चित्र सामे खडं थाय छे. दरेक भव्ये आ भावनाना श्लोको कंठे करीने सवार-सांज बोलवा विचारवा ने ए दशा प्राप्त करवा प्रयत्न करवो एज आनु रहस्य छे-तात्पर्य छे. (शार्दूल विक्रीडित) साक्षात् श्री जिनदेवने निरखशं, कयारे अहो ! नेत्रथी ने वाणी मनोहारि चित्त धरशुं क्यारे कहो प्रेमथी श्रद्धा निश्चल धारशुं जिनमते, श्रेणीकवत् के समे, ने देवेन्द्र वखाणपात्र थईशुं, क्यारे सुपुण्ये अमे ? १ क्यारे देव चलायमान करवा, मिथ्यामति आवशे, ने सम्यक्त्व सुरत्ननी अम विषे, साची परीक्षा थशे, कयारे पौषधने ग्रही प्रणयथी, सद्भावना भावशुं, ने रोमांचित थई तपस्वीमुनिने, क्यारे पडी लाभशं? २ सवैराग्यरसे रसिक थईने, दीक्षेच्छु क्यारे थशें, ने दीक्षा ग्रहवा मुनीश्वर कने, क्यारे सुभाग्ये जशुं सेवा श्रीगुरुदेवनी करी कदा, सिद्धान्तने शिखशुं ने व्याख्यानवडे समस्तजनने, कयारे प्रतिबोधशुं ३ गामे के विजने सुरेन्द्रभवने, ने झुपडे क्ये समे, स्त्रीमां ने शबमां समानमतिने क्यारे धरीशुं अमे, Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १२१ सर्प के मणिमाळमां कुसुमनी, शय्या तथा धूळमां, क्यारे तुल्य थशुं प्रफुल्लित मने शत्रु अने मित्रमां. ४ योगाभ्यास रसायणे हृदयने, रंगी असंगी बनी, क्यारे अस्थिरता त्यजी शरीरने, वाणी तथा चित्तनी आत्मानंद अपूर्व अमृतरसे, न्हाई थशुं निर्मळां. ने संसार समुद्रना वमळथी, क्यारे थशुं वेगळां. ५ क्यारे सिद्धगिरि पवित्रशिखरे, जइ शांतवृत्ति सजी. सिद्धोनां गुणनो विचार करशुं. मिथ्याविकल्पो त्यजी. वासीचंदनकल्प थई परिसहो, सर्वे सहीशं मुदा, आवी शांत थशे अहो अमकने, शत्रुसमूहो कदा ६ श्रेणी क्षीणकषायनी ग्रही अने, घाती हणीशुं कदा, पामी केवलज्ञान सर्वजनने, देशुं कदा देशना. धारी योगनिरोध कोण समये, जाशुं अहो मोक्षमां, एवी निर्मळ भावना प्रणयथी, भावो सदा चित्तमां. ७ विवेचन-आ साते श्लोकोनो अर्थ स्पष्ट छे. पहेलां बे. श्लोकमां विशुद्ध गृहस्थ धर्मनी भावना छे. एवो अपूर्व अवसर कयारे आवशे, के श्री जिनेश्वर प्रभुने समवसरणमां देशना देता साक्षात् देखीशं. ए त्रिलोकनाथना दर्शन करी नेत्रने निर्मळ बनावीशुं, बंने आंखोने पवित्र करीशं. एमनी जगदुद्धारिणीकल्याणकारिणी-मनोहारिणी वाणी सांभली श्रोत्र-कान पावन करीशुं. ए हितकर उपदेश मनमा ठसावी मनने विशुद्ध बनावीशुं, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ - श्री वैराग्य शतक एमना त्रिकाला-बाधित वचनपर अविचल श्रद्धा धरशुं, श्रेणिक महाराजानी माफक ए श्रद्धाथी कदी पण चलायमान नहि थईए. ए प्रभुनी तन-मन-धनथी सेवा बजावीशुं, देवो ने देवेन्द्रो पण अमारा ए पुण्योदयनी-ए भक्तिनी-ए श्रद्धानी प्रशंसा करशे, मिथ्यात्विदेवो इंद्र-महाराजाना वखाणथी अमारी इर्ष्या करशे, अमने डगाववा घणा प्रयत्नो करशे, पण अमे नहिं डगीए, अमारूं सम्यक्त्व रत्न साचवी राखीशं. अमारी दृढता निहाळीने देव पण पाछो पडशे. छेवट खुशी थई मिथ्यात्वनो त्याग करी अमारा वखाण करशे, अमे प्रभुने हाथे देशविरति-बारव्रत लईशं. अखंडपणे ए व्रतोतुं पालन करीशं पर्वतिथिए बनशे तो हमेश पौषधमां रहीशं. पारणे विधिपूर्वक मुनिने वहोरावीने-तपस्वी श्रमणने पडिलाभीने पछी पारj करीशं. वहोरावतां अमे अमारा आत्माने धन्य भाग्य गणीशं. अमारा रोमराय विकसित थशे, अमारो जन्म सफळ लेखाशे, . अमाएं जीवन सार्थक समजाशे, अमारे आंगणे पांच दिव्य । प्रगटशे. अमारो आनंद समाशे नहिं. अगीयार प्रतिमा वहन करीशं. साधु धर्मनी तुलना करीशं. संसार अमने खारो लगाशे, एमांथी क्यारे छुटाय एमज विचारीशुं, संसारना कार्य तो न छुटके करीशुं, ए पण डरतां डरतां करीशं. एमां अमारां मनने लेपवा नहिं दइए. अने अवसर मळे संसारने सर्वथा छोडी देवा तैयार रहीशुं ने ए रीते आदर्श गृहस्थ जीवन जीवीशं. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ श्री वैराग्य शतक त्रीजा श्लोकमां मुनिधर्मपाप्तिनी भावना अमारो आत्म-वैराग्य रंगे रंगाईने-साचा वैराग्य रसथी रसिक थईने 'क्यारे दीक्षा मळे-क्यारे दीक्षा मळे' एवी तीव्र . भावना भावशे, दीक्षानी उत्कट इच्छा जागशे, अमारा मातापिता, सगां-संबंधी अमने सहमत थशे. अमारी इच्छाने वधावी लेशे. अमारी भावनानुं अनुमोदन करशे, दीक्षानो अजोड वरघोडो चडावी वाजते-गाजते गुरु महाराज पासे जईशं. गुरु महाराजने अमारो संसारथी उद्धार करवा विनवीशं. दीक्षा देवा विनंति करीशुं, चतुर्विध संघ समक्ष गुरु महाराज अमने दीक्षाविधि करावी साधुवेश आपशे. रजोहरण-धर्मध्वज, ओघो लईने अमे नाची\-कूदीशुं. अहोभाग्य समजीशं. ए अमारी अमूल्य घडी हशे. अपूर्व समय हशे, अमने अनन्य उल्लास हशे. दीक्षा लइने गुरुनिश्राए विचरशुं, गुरु आज्ञाए रहीशुं, क्षण पण प्रमाद नहि करीए, गुरुमहाराजनी सेवामां-मुनिओना विनय वैयावच्चमां-भक्तिमां जरीपण आळस नहिं राखीए स्वाध्यायमां, भणवामां. शास्त्र शिखवामां उद्यमी बनीशं. गुरु महाराजनी कृपाथी सर्व शास्त्रनुं ज्ञान मेळवीशुं, तेमना प्रसादथी श्रुत ज्ञाननो पार पामीशुं, सिद्धांतनी चावीओ मेळवीशुं, उत्सर्ग अने अपवादने जाणीशुं आगमो भणीशुं ने भणावीशुं पाट पर बेसी व्याख्यान आपीशुं, सभा गजावीरों, मेघ जेवी गर्जनाथी-मधुर स्वरथी जनताना चित्तनुं आकर्षण Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्री वैराग्य शतक करीशं. समस्त लोकोना मनमां वीतराग भगवानना वचनो ठसावीशुं व्रत-नियमोमां जनताने जोडीशुं प्रतिबोध करी संयम आपीशं, अनेक जीवोने दीक्षा आपी परिवार वधारीशं, गुरु महाराजश्रीनी पट्टपरंपराने अखंड अने दीपती करीशं. शेठे रोहिणी स्त्रीने वखाणीने सर्व अधिकार सोप्या हतां तेम अमने गुरु महाराज पण वखानी सर्व सत्ता समर्पण करशे, अमे तेओश्रीनो बोजो हाथीनी माफक वहन करीशुं तेओश्रीनो भार संभाळी लईशं. गच्छने साचवी लईशं, तेओश्रीने चिंताथी मुक्त करीशं, ए प्रमाणे सिंहनी जेम संयम-चारित्र-दीक्षा लई सिंहनी जेम पाळीशुं ने आत्माने उज्जवळ बनावीशं. चोथा श्लोकमां समतानी भावना छे. साध धर्ममां प्रगति करी अमे अमारा आत्माने समताभाव- शिक्षण आपीशु राग-द्वेषने निर्मूळ करवा प्रयत्न करीशुं, मोटा नगरमां के निर्जन जंगलमां, देवभवन जेवा विशाळ-मनोहर महेलमां के नानीशी झुपडीमां अमने भेदभाव नहि रहे, प्रीति के अप्रीति नहि थाय. स्त्रीमां रूमझुम-रूमझुम चालती ललित ललनामां के शबमां-मरी गयेल मृतकमां अमने समानता रहेशे, स्त्रीमां मोह नहिं थाय ने मृतकमां घृणा नहिं थाय, सर्पमां-झेरी नागमां अने मणिनी माळामां Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १२५ साचा मोतीना नवलखा हारमां कुसुमनी शय्यामां - फुलनी पथारीमां अने धूळमां, माटीमां, कचरामां स्नेह के अप्रेम नहिं थाय. शत्रु अने मित्रमां, प्रशंसक अने निंदकमां, अमने कोई वखाणे के कोई गाळ दे, ते बंनेमां अमे एक सरखा रहीशुं, बधा पर एक सरखी प्रसन्नता धारण करीशुं, रागद्वेषने वश नहि बनीए. ने समभावमां लीन रही आत्माने अपूर्व गुणोथी समृद्ध बनावीशुं. पांचमां श्लोकमां मन, वचन अने कायाना योगोनी स्थिरता केळववानी भावना छे. समभाव केळवाया बाद कायानी प्रवृत्तिओ छोडतां शिखीशुं, कायाने असत् प्रवृत्तिओथी सदन्तर दूर राखीशुं., कायानी स्थिरता केळवी, वाणी उपर काबू मेळवीशुं. मिष्ट अने हितकारी, ने ते पण प्रयोजन होय तो ज बोलीशुं. मिथ्या वचन तो प्राणान्ते पण नहिं बोलीए पछी अतिशय चंचळ चित्तने वश करीशुं. ध्याननी धारामां मनने जोडी दइशुं, योगाभ्यास रूपी रसायणथी हृदयने रंगी दईशुं, लोकोनो संग त्यजी- एकांतमां जईने रहीशुं त्यां चित्तने स्थिर करवा प्रयत्न करीशुं, आत्मामां अपूर्व आनंद प्रगट थशे ते अमृत रसना निर्मळ निर्झरमां- स्वच्छ झरामां स्नान करीशुं, हृदयना बधा मेल धोई नाखीशुं. स्फटिक जेवा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्री वैराग्य शतक विशुद्ध-स्वच्छ ने निर्मळ थईशें, पछी संसारनी कोईपण माया अमने मुंझवशे नहिं. संसार समुद्रना कोई वमळमां अमे फसाईशुं नहिं. दुनियानी कोईपण लालचमां लपटाशुं नहि अने ए दशामां आत्माने जागृत राखीने आत्माने सर्व बंधनोथी मुक्त करवा विचार करीशुं ने प्रयत्न सेवीशुं. छठ्ठा श्लोकमां आत्मानी परमोच्च स्थिति ने अनशन दशा प्राप्त करवानी विचारणा छे. ज्यारे आत्मा संसारना सर्व मोहथी मुक्त बनशे पछी छेलं जीवन सिद्धिगिरीजी गिरिनारजी जेवा परम पवित्र पर्वत पर जईने वीतावीशुं, ज्यां अनंत आत्माओए मोक्ष मेळव्यु छे, एवा उन्नत शिखर पर रही, कायाने - शरीरने वोसरावी दईशं, शरीरने गमे ते थाय तेनी परवा नहिं करीए, आत्मामां सिद्धना गुणोनुं ज चिंतन करीशुं, मिथ्या-विकल्पो एक पण मनमां न आवे तेनी काळजी राखी सिद्धनी साथे तन्मय थईशुं, देवताना, माणसोना के पशुओना गमे तेवा उपसर्गो थाय तो पण सिद्धना ध्यानथी चलायमान नहिं थईए, शांतभावे सर्व परिसहो सहन करीशं, वासी चंदन जेवा थईशं, जेम बावना चंदन पोताने कापनार पोताना पर प्रहार करनार कुहाडीने पण सुगंधी बनावे छे. तेम अमे पण अमने दुःख देनारने शांत करीशु. अमारां शत्रुओ पण अमारी शांत Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री वैराग्य शतक १२७ दशा देखी शांत बनशे, अमारा आगळ मोर ने साप साथे नाचशे, उंदर बिलाडीनी पुंछडी आमळशे, बकरी वाघनुं मोढुं चाटशे, हरण ने सिंह सामसामा बेसी वातो करशे, देवो अने दानवो परस्पर भेटशे, अमारी शान्तिथी बधा उपर असर थशे. जीवमात्र अमारी दृष्टिमां वैरभाव छोडी देशे, अमे शांत थईशुं अने बीजाने शांत करीशुं. सातमा श्लोकमां तेरमा-चौदमा गुणस्थानके चड़ी मुक्ति मेळववानी भावना छे. उपर बताव्या प्रमाणेनी अमारी ज्यारे प्रशान्तवृत्ति थशे. एटले अमे गुणस्थानकनी श्रेणी उपर चडीशुं, चारे प्रकारना कषायनो नाश करीशुं, क्षपक श्रेणिए आरोहीशुं, उत्तरोत्तर शुक्लध्यान वधारे वधारे विशुद्ध ध्याइशें, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीयने अंतराय ए चारे घाति कर्मने चकचूर करीशुं. घाति कर्मनो नाश करी केवळज्ञान मेळवीशं. तीर्थंकर पदवी वरीशं. समवसरणमां बेसी देशनां देशुं सहज पण ग्लानि धार्या वगर उपदेश आपी भव्यात्माओनो उद्धार करीशुं, शुक्ल ध्याननी मध्य धाराए आत्माने स्थापन करी धर्म प्रवृत्तिमांज राच्या रहीशं, पछी छेवटे मन वचन कायाना सर्व योगो, रुंधन करी बाकी रहेलां बधां कर्मोनो क्षय करी, पांच हुस्वाक्षर बोलाय तेटला Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२८ __श्री वैराग्य शतक काळ सुधी चौदमा गुणस्थानकनो अनुभव करी मोक्षमां जईशुं, अनंत अव्याबाध अक्षय सुखने मेळवीशुं, सिद्ध स्वभावने पामीशुं, कृतकृत्य बनी ज्योतिमां ज्योति भेळवी दईशं. एवो समय क्यारे आवे के अमारी आ सर्व भावना सफळ थाय. हे भव्य आत्माओ ! आवी भावना हमेशा हृदयमां भावो मनमां विचारो, चित्तमां चिंतवो, दिनानुदिन वर्णवेल भावना प्रमाणे उत्तरोत्तर गुणवृद्धि करतां सिद्ध-बुद्ध ने मुक्त बनो एज भावना. ___श्रीमान् नेमिसूरीशनी, कृपादृष्टिथी आज; आ वैराग्य शतक रच्यु, स्वपर श्रेयने काज ॥१०॥ ॥ इति वैराग्यशतकं सम्पूर्णम् ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक ॥ ॐ अहँ नमः ॥ परमार्हत श्री कुमारपाल-भूपाल विरचित आत्म-निंदाद्वात्रिंशिकानो अनुवाद. (हरिगीत छंद) सर्वे सुरेंद्रोना नमेला मुकुट ते'ना जे मणि, तेना प्रकाशे झळहळे पदपीठ जे तेना धणी, आ विश्वनां दुःखो बधाये छेदनारा हे प्रभु ! जयजय थजो जगबंधु ! तुम एम सर्वदा इच्छु विभु ! (२) वीतराग हे कृतकृत्य भगवन् ! आपने शुं ? विनवू, हुँ मूर्ख छु महाराज जेथी शक्तिहीन छतां स्तवं, शुं अथिवर्ग यथार्थ स्वामिनुं स्वरूप कही शके, पण प्रभो ! पूरी भक्ति पासे युक्तियो ए ना घटे. हे नाथ ! निर्मल थई वस्या छो आप दूरे मुक्तिमां तोये रह्यां गुण ओपता मुज चित्तरूपी शुक्तिमां, अति दूर एवो सूर्य पण शुं आरसीना संगथी, प्रतिबिंब रूपे आवीं अहिं उद्योतने करतो नथी ? प्राणि तणां पापो घणां भेगा करेला जे भवे, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्री वैराग्य शतक क्षीण थाय छे क्षणमां बधां ते आपने सारे स्तवे, अति गाढ अंधारा तणुं पण सूर्य पासे शुं गजें, एम जाणीने आनंदथी हुँ आपने नित्ये भजु. शरण्य ! करुणा सिंधु ! जिनजी ! आप बीजा भक्तना महामोह व्याधिने हणो छो शुद्ध सेवासक्तनां, आनंदथी हुं आप आणा मस्तके नित्ये वहुं, तोये कहो कोण कारणे ए व्याधिना दुःखो सहुं. संसार रू प महाटवीना सार्थवाह प्रभु ! तमे, मुक्तिपुरी जावा तणी इच्छा अतिशय छे मने, आश्रय कर्यो तेथी प्रभो ! तुज तोय आन्तर तस्करो. मुज रत्नत्रय लुटे विभो ! रक्षा करो रक्षा करो. बहु काळ आ संसार सागरमां प्रभु ! हुं संचर्यो, थई पुण्य राशि एकठी त्यारे जिनेश्वर ! तुं मळ्यो, पण पाप कर्म भरेल में सेवा सरस नव आदरी, शुभ योगने पाम्या छतां में मूर्खता बहुए करी. आ कर्मरूप कुलाल मिथ्याज्ञान रूपी दंडथी, भव चक्र नित्य भमावतो दिलमां दया धरतो नथी, करी पात्र मुजने पुंज दुःखनो दाबी दाबीने भरे Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १३१ विणआप आ संसार कोण रक्षा कहो एथी करे ? (९) कयारे प्रभो ! संसारकारण सर्वममता छोडीने, आज्ञा प्रमाणे आपनी मन तत्त्वज्ञाने जोडीने, रमीश आत्म विषे विभो ! निरपेक्ष वृत्ति थई सदा त्यजीश इच्छा मुक्तिनी पण सन्त थईने हुं कदा ? (१०) तुज पूर्णशशिनी कान्ति सरखा कान्तगुण द्दढ दोरथी अतिचपल मुज मन वांदराने बांधीने बहु जोरथी, आज्ञारूपी अमृत रसोना पानमां प्रीति करी, पामीश परब्रो रति क्यारे विभावो विसरी हुं हीनथी पण हीन पण तुम चरणसेवाने बळे. आव्यो अहीं उंची हदे जे पूर्ण पुण्य थकी मले, तोपण हठीली पापी कामादिकतणी टोळी मने, अकार्यमा प्रेरे पराणे पीडती निर्दयपणे (१२) कल्याणकारी देव ! तुम सम स्वामी मुज माथे छते, कल्याण कोण न संभवे जो विघ्न मुज नव आवते, पण मदन आदिक शत्रुओ पूंठे पडया छे माहरे, दूरे करू शुभ भावनाथी पापीओ पण नव मरे Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्री वैराग्य शतक संसाररूप समुद्र मां भमता अनादिकाळथी, हुं मार्नु के आप कदी मुज दृष्टिए आव्या नथी नहींतर नरकनी वेदना सीमा विनानी में प्रभु ! बहु दुःखथी जे भोगवी ते केम पामुं हुं विभु ! (१४) तलवार चक्र धनुष्यने अंकुशथी जे शोभतुं. वज्र प्रमुख शुभचिन्हथी शुभभाववल्ली रोपतुं, संसारतारक आपर्नु एवं चरणयुग निर्मलु, दुर्वार एवा मोह वैरीथी डरीने में श्रयं, (१५) निःसीम करुणाधार छो, छो आप शरण पवित्र छो, सर्वज्ञ छो निर्दोष. छो ने सर्व जगना नाथ छो, 'हुं दीन छु हिम्मत रहित थै शरणे आव्यो आपने, आ कामरूपी भिल्लथी रक्षो मने रक्षो मने (१६) विणआप आ जगमां नथी स्वामी समर्थ मळ्यो मने, दुष्कृत्यनो समुदाय मोटो जे प्रभु मारो हणे, शुं शत्रुओनुं चक्र जे बहु दुःखथी देखाय छे, विण चक्र वासुदेवना ते कोई रीत हणाय छे. (१७) प्रभु ! देवनां पण देव छो वळी सत्य शंकर छो तमे, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ श्री वैराग्य शतक छो बुद्ध ने आ विश्वत्रयना छो तमे नायकपणे ए कारणे आन्तर रिपु समुदायथी पीडेल हुँ, हे नाथ ! तुम पासे रडीने हार्दनां दुःखो कहुं. (१८) अधर्मना कार्यो बधां दूरे करीने चित्तने, जोडुं समाधिमां जिनेश्वर ! शान्त थै हुँ जे समे, त्यां तो बधाये वैरीओ जाणे बळेला क्रोधथी, · महामोहनां साम्राज्यमां लई जाय छे बहुजोरथी. . . (१९) - छे मोह आदिक शत्रुओ म्हारां अनादि काळना, एम जाणुं छु जिनदेव ! प्रवचनपानथी हुं आपना तो ये करी विश्वास एनो मूढ में ढो हुँ बर्नु. ए मोहबाजीगरकने कपिरीतने हुं आचरूं (२०) ए राक्षसोनां राक्षसो छे क्रूर म्लेच्छो एज छे, एणे मने निष्ठुरपणे बहुवार बहु प्रीडेल छ, भयभीत थई एथी प्रभु ! तुम चरण शरणुं में ग्रह्यु जगवीर ! देव ! बचावजो में ध्यान तुम चित्ते धर्यु. (२१) कयारे प्रभो ! निज देहमां पण आत्मबुद्धिने तजी, • श्रद्धाजळे शुद्धि करेल विवेकने चित्ते सजी, सम शत्रु मित्र विषे बनी न्यारो थई परभावथी, Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्री वैराग्य शतक रमीश सुखकर संयमे क्यारे प्रभो ! आनंदथी. (२२) गतदोष गुणभंडार जिनजी ! देव म्हारे तुं ज छे, सुरनरसभामां वर्णव्यो जे धर्म म्हारे तेज छे. एम जाणीने पण दासनी मत आप अवगणना करो, आ नम्र म्हारी प्रार्थना स्वामी तमे चित्ते धरो. - (२३) षड्वर्ग मदनादिक तणो जे जीतनारो विश्वने अरिहंत ! उज्ज्वल ध्यानथी त्हेने प्रभु जीत्यो तमे, अशक्त तुम प्रत्ये हणे तुम दासने निर्दयपणे ए शत्रुओने जीतुं एवं आत्मबळ आपो मने . (२४) समर्थ छो स्वामी ! तमे आ सर्व जगने तारवा, ने मुज समा पापी जनो नी दुर्गतिने वारवा, आ चरण वळग्यो पांगळो तुम दास दीन दुभाय छे हे शरण ! | सिद्धि विषे संकोच मुजथी थाय छे ? (२५) तुम पादपद्म रमे प्रभो नित जे जनोनां चित्तमां सुर इन्द्र के नरइन्द्रनी पण ए जनोने शी तमा ? त्रण लोकनी पण लक्ष्मी एने सहचरीपेठे चहे, सदगुणोनी शुभगन्ध एना आत्म माहे महमहे. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ श्री वैराग्य शतक (२६) . अत्यन्त निर्गुण छु प्रभो ! हुं क्रूर धुं हुं दुष्ट छु, हिंसक अने पापे भरेलो सर्व वाते पूर्ण छु, विण आप आलंबन प्रभो ! भवभीमसागर संचरूं, मुज भवभ्रमणनी वात जिनजी ! आप विण कोने करूं? (२७) मुज नेत्र रू प चकोरने तुं चन्द्ररू पे सांपडयो, तेथी जिनेश्वर आज हुँ आनंद उदधिमां पड्यो, जे भाग्यशाळी-हाथमां चिंतामणी आवी चडे, कई वस्तु एवी विश्वमां जे तेहने नव सांपडे. । (२८) - हे नाथ ! आ संसार सागर डूबता एवा मने , मुक्तिपुरीमां लई जवाने जहाजरूपे छो तमे, शिवरमणीनां शुभसंगथी अभिराम एवा हे प्रभो ! मुज सर्व सुखनुं मुख्य कारण छो तमे नित्ये विभो ! जे भव्य जीवो आपने भावे नमे स्तोत्रे स्तवे, ने पुष्पनी माला लईने प्रेमथी कंठे ठवे, ते धन्य छे कृतपुण्य छे चिन्तामणी तेने करे, वाव्यो प्रभो ! निजकृत्यथी सुरवृक्षने एणे गृहे. (३०) हे नाथ ! नेत्रो मींचीने चलचित्तनी स्थिरता करी, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक एकान्तमां बेसी करीने ध्यान मुद्राने धरी. मुज सर्व कर्म विनाशकारण चिन्तवू जे जे समे, ते ते समे तुज मूर्ति मनहर, माहरे चित्ते रमे, (३१) उत्कृष्टभक्तिथी प्रभो ! में अन्यदेवोने स्तव्यां. पण कोईरीते मुक्तिसुखने आपनारा नव थयां, अमृत भरेला कुम्भथी छोने सदाए सींचीए, आंबातणां मीठा फलो पण लींबडा कयांथी दीये ? (३२) भवजलधिमांथी हे प्रभो ! करू णा करीने तारजो, ने निर्गुणीने शिवनगरनां शुभसदनमां धारजो, आ गुणीने आ निर्गुणी एम भेद मोटा नव करे, शशी सूर्य मेघपरे दयालु सर्वनां दुःखो हरे. (३३) (शार्दूल विक्रीडितम्) पाम्यो छु बहुपुण्यथी प्रभु ! तने. त्रैलोक्यना नाथने, हेमाचार्य समान साक्षी शिवना, नेता मल्या छे मने एथी उत्तम वस्तु कोई न गणुं, ज्हेनी करूं मांगणी मांगुं आदर वृद्धि तोय तुजमां, ए हार्दनी लागणी, (३४) जाणी आहत गूर्जरेश्वरतणी, वाणी मनोहारिणी, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक श्रद्धासागर वृद्धिचंद्र सरखी, संताप संहारिणी, हेनो आ अनुवाद में स्वपरना कल्याण माटे कर्यो, श्रीमन्नेमिसूरीश सेवनबळे, जे भक्तिभावे भर्यो. इतिश्री परमार्हत जीवदया प्रतिपाल कुमारपालभूपाल विरचितात्मनिन्दा द्वात्रिंशिकाया गूर्जर गिरायां पद्यानुवादः समाप्तः ॐ नम श्रीपार्श्वनाथाय ॐ नमः श्रीगुरुनेमिसूरये दृष्टान्तावली. (दुहा) सुरनरसेवित जिनपति, श्री सेरीसापास, प्रगट प्रभावी प्रणमतां, पूरे मननी आश आ काळे आ भरतमां, युग प्रधान समान, गुरुवर नेमिसूरीशनुं, धरीने हृदये ध्यान. रचशुं दृष्टान्तावली, सज्जन मुख शणगार, जे भणतां सुख उपजे सूक्त रत्नावलीसार. चन्द्र विनानी ज्युं निशा, सुस्वर विण ज्युं गान, वाणी विणदृष्टान्त युं, नव पामे सन्मान. १३७ १ २ ३ ४ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्री वैराग्य शतक मोटा हित माटे बने, थोडो पण गुणीसंग, अल्प लवणथी अन्न ज्युं, स्वादु बने छे चंग.. ५ पर संपत्ति देखीने, पवित्र जन हरखाय, नभ निर्मळता निरखतां, स्वच्छ शरदजल थाय. ६ दुर्भाग्ये दुःखकर बने, सज्जन संग सुजात, पेखो कपूर संगथी, श्रीफळ जळ विष थात. ७ पापी पाप तजे नहीं, ककडा करीए तोय शिरहीन राहु पण ग्रहे, पूर्ण चन्द्रने जोय.. ८ सज्जन छंडी मूर्खनर, दुर्जन पासे जाय, . मूकी मधुर द्राखने, काग निंबोळी खाय. ९ अति परिचय जे करे, मान रहित ते थाय, देखो मलये बावना-चन्दन इन्धण थाय. १० उत्तमने उत्तम मळे, त्यां धर्मोन्नति थाय, गंगा यमुना संगथी, तीर्थ प्रयाग मनाय. ११ लघु पण पीडे पुष्टने, पामी स्थान विशेष, मच्छर हाथी कानमां, पेसी पडावे चीस. १२ सारगये जन श्रेष्ठने, बोले बुरा बोल, तेल गये तल देखीये, लोक कहे छे खोळ. १३ प्राणान्ते पण नव तजे, पोताना जे होय, शुष्कसरे सूकाय छे, पंकज पंक्ति जोय. १४ दुर्मुख क्षणमां क्षीण करे, जन्मतणो पण प्रेम, तन्दुल तुषनी मित्रता. मूशळ विनाशे जेम. १५ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक स्थळभेदे तेजस्विता हित अहित निदान, दर्पणमां मुख देखवा, खड्गमां खोवा प्राण. मलीनमनुज पण सन्तने, संगे शोभे मित्त, आजण आज्यं आंखमां, दीपे एही ज रीत. सार विनाना दिवस ते, सुकृत विण जे जाय, अंक विनाना बिंदुओ, संख्यामां न गणाय. १८ निर्बळतामां मित्र पण, दुःखनुं होय निदान, दीप सहायक वायु पण दीप विनाशक प्राण. " गुण विना पण विश्वमां, भयथी कैक मनाय, नागपूजना सौ करे, हंस गरूड तजाय. ज्युं मृग हणवा पारधी, सुस्वर गाय सदाय, दुःख देवा युं दुष्टथी, मीठां वेण वदाय. व्हेचण नीरने क्षीरनी, कैक मच्छथी थाय, पण प्रसिद्धि हंसनी, जश पुण्येज गवाय. दुर्बळने दु:ख दे सर्व, सबळ कने नव जाय. वाघ सिंह वरू छंडीने, देखो छाग हणाय. भिन्न दृष्टिए एक पण भिन्नभिन्न जणाय, योगी कामी कुतरे, शब स्त्री मांस मनाय. आश्रय पामी दुर्जनो, आश्रय नाशक थाय, देखो कीडा काष्ठनां, काष्ठ ज कोरी खाय जे कारज न्हानां करे, ते नव म्होटे थाय, ज्यां कीटीका संचरे, त्यां शुं हाथी जाय. , १३९ १६ १७ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्री वैराग्य शतक २७ ३१ मुखमा लाडु मुकतां, वंशमां कोण न थाय, मुख लेपे मीठो ध्वनि, मृदंगथी पण थाय. शोक भराये चित्तमां, रोवुं हितकर थाय, ज्युं छलकातां सरतणां, खुल्लां द्वार कराय. क्रोडो यत्न करो भले, जाति स्वभाव न जाय, सींचो छो'ने दूधथी, नींब न मधुरो थाय २९ सज्जन दूर गये छते, दुर्जन बहु देखाय, सूर्य चन्द्रनां अस्तमां, खजुवो ज्युं मलकाय. योग्यात्माने ऋद्धिओ, स्वयं स्वाधीन थाय. जेम नदीओ विनव्या विना, उदधि आधीन थाय. घर देखाड्यं लुब्धने, दुःखनुं कारण थाय, विश्वामित्र वशिष्ठनी, धेनु, लेवा धाय., ३२ वखते विमला वारता, होय बाल समीप, सूर्य प्रकाशी नव शके, तेह प्रकाशे दीप. ३३ प्राय असार पदार्थनो, अति आडंबर होय, कांसानो रणकार जे, ते शुं कनके जोय. पर संपत्ति देखीने, दाजे दुर्जन दील, टाणे तरुवर सौ फळे, शुं न सूकाय करीर. स्वयं सही दुःख अन्यने, शान्ति आपे संत, ताप सही पण पान्थने, तरुवर शान्त करंत. गुरु कर्मीने धर्मनी, करणी नीरस जणाय, खाखरानी खीसकोलीओ, आंबांने नव च्हाय. २८ ३० ३४ ३५ ३६ ३७ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ श्री वैराग्य शतक . स्वीय महत्वने साचवे, पण्डित म्होटे यत्न, श्रीफळ जलने संग्रहे, त्रण वडे जयुं रत्न. ३८ प्रथम प्रवृत्ति पुरुषनी, प्रसिद्धि कारण थाय, प्रथम तेजथी, लोकमां, उज्वल पक्ष मनाय. ३९ सन्त स्वभाव तजे नही, छोने दईए छेह, जेम जेम घसीए कपूरने, तेम सुगन्धि देह. ४० मान हानिमां वीरने, योग्य विदेश प्रयाण, द्वीपान्तरमां संचरे, तेज रहित जेम भाण. ४१ भाग्यशालीओ भोगवे, करे एकळु कोय, मधमाखी मध मेळवे, खाय अनेरा कोय. ४२ वखते वस्तु तुच्छ पण, वल्लभ अतिशय थात, भोजन अन्ते तृणसळी, एहिज अहीं दृष्टान्त. ४३ लखो यत्न करो भले, दुर्जन नव पलटाय, सोमण साबुए धोवतां, काग सफेद नव थाय. ४४ तेजस्वीने तुच्छ नर, अनर्थ कारण होय, आंसु पडावे आंखथी, तुच्छ तणखलुं जोय. ४५ काळा मुखना मानवी, काढयां कदीए न जाय, काप्यां काळां केश ते, फरीफरी पंण थाय. ४६ अनवसरे गुणग्राहिता, दुःख- कारण थाय, गीत रसीक थई मृग जुओ, मोत समीपे जाय. ४७ दुःख दीये सुख आपवा, पवित्र नर जे होय, कर्पूर आपे शीतलतां, आंसु पडावे तोय. ४८ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्री वैराग्य शतक पगले पगले पामीर, पापी धरमी कोक, घर घर काग निहाळीए, कोकिल पक्षी स्तोक. ४९ दुर्जन वचनो अवसरे, सज्जन हितकर थाय, प्रयाण समये वाम खर, भूकयो भलो मनाय. लघु पण जेह कलानिधि, तेह लहे बहुमान, बीज तणां शशीने नमे, जनता ए एंधाण. ५१ स्थानभ्रष्ट पण शिष्टनर, पामे अधिकुं मान, राजाने माथे चडे, मणि मूकीने खाण. पंडितनी साथे रह्या, मूर्खो पण पूजाय, कोयल टोळे कागडां, कोयल एम मनाय. ५३ प्राये पापी पापमां, होय प्रेम करनार, लींबडे वायसनी रति, छंडिने सहकार ५४ स्वार्थ साधवा लोकमां नीच जनोय मनाय, रक्षण करवा धान्यनुं, भस्म यथा जळवाय. सज्जनसंकटमां पड्ये, दुर्जन बहु हरखाय, मींचाये नरनेत्र जब, तब घुवड विकसाय. ५६ सन्त स्वभाव तजे नहीं छोने दईए छेह, फरी फरी जल उकाळीएं, तोपण शीतल देह. ५७ निर्धन नरने नव भजे, स्वार्थी नर जे होय, पुष्प पूर्ण पलासने, भ्रमर न सेवे कोय. ५८ संत संगथी कठिण पण, हैयुं कोमळ थाय, शशी संगे जो जळथकी चन्द्रकान्त भींजाय. ५९ , ५० ५२ ५५ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १४३ उन्नतना आश्रय विना, उन्नत केम थवाय, वृक्षाश्रय विण वेलडी, शुं आकाशे जाय. ६० समकितविण करणी सवी, भारभूत गणाय, पाया विनाना महेलमां, कहो कोण रहेवा जाय. ६१ ज्ञान क्रिया बन्ने मळे, कार्यसिद्धि तव थाय, .. अंध पंगु संयोगथी, नगरी जेम पमाय. ६२ वासण पण चळके नहि, वीण घसारे मित्त, माणसनुं कहेवं किश्युं, एह विचारो चित्त. ६३ सूरि प्रतिष्ठित विश्वमां, पत्थर पण पूजाय, गुरु श्रीनेमिसूरीशथी, अमृत अमृत थाये. ६४ ॥ इति दृष्टान्तावली संपूर्ण ॥ त्यारे तुं शुं करीश ? संयोजक : मुनिश्री परमप्रभविजयजी महाराज बुद्धिमान मानव ! शरीर रोगथी घेराई जशे. व्हालाओना उपायो अफळ जशे, वैद्य डोकटरो पोताना छेल्ला उपायो अजमावी हाथ खंखेरशे, सौ स्नेहीओ गमगीन बनशे, त्यारे तुं शुं करीश ? श्वास घुटाशे, नाडीओना धबकारा जुदा हशे, कोई अनेरा ज भणकारा वागता हशे, दशे दिशामां नांखी नजर नहि पहोंचे, त्यारे तुं शुं करीश? पापना पोटला बांधी पेदां Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ श्री वैराग्य शतक करेला पैसा बंगला मोटर बगीचा कारखानाओथी पलकमां सदाने माटे जुदा पडवानो अवसर आवी लागशे, त्यारे तुं शुं करीश ? अथवा तो माथे टाल पडशे, कानथी ओछु संभळाशे, आंखे बराबर सुझशे नहिं, पाणी टपकया करशे, नाकमांथी लींट चुया करशे, मोढामांथी लाळ चाली जती हशे, उधरस अने दमथी छाती भराई गई हशे, हाथ पगनी शक्ति नरम पडशे. कम्मर वळी गई हशे, लाकडीना टेका विना चालवू भारे थई. पडशे. सहु हड हड करशे, सर्वथा परवश बनी पडशे, जीवन अकारूं लागशे स्वभाव चीडीयो बनी जशे अने एके धारणा सफळ नहि करी शकाय, त्यारे तुं शुं करीश ? विचारक प्राणी ? आवं बधुं बनतुं रोज नजरे देखाय छे, जगतना जीवोनी आवी स्थिति बनती तारामां जोवामां आवे छे. जुवानीना जोरमां अने धनवान पणानी मदांधतामां महालनाराना बुरा हाल थता नजरे जोवाय छे. तारी आ दशा नहिं आवे, एवा भरोंसे रखे बेसी रहेतो. विषय अवस्था वखते दीनता न आवे, पोकार न करवा पडे अने अशांतिमां पण शांति अनुभवाय ए माटे अत्यारथी कांईक विचार करी ले. पाणी पहेलां पाळ बांधनार समजदार गणाय. पाळ बंधी नहि अने पाणी भरायुं, तळाव फाटयुं अने धोध चारे बाजु वहेवा मांडया ते वखते पाळ नहिं बंधाय, धार्यु मनमां Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १४५ रही जशे. मनोरथो माटीमां मळी जशे. आशा निराशामां फेरवाई जशे. ते वखते पस्तावानो पार नहि रहे माटे सारी अवस्थामां मळेली शक्तिओनो सदुपयोग करी लेवा माटे दृढ विचार कर. सर्व अवस्थामां काम आवे अने सर्व स्थळे निश्चित बनावे एवं भातु भरी ले. प्रमाद निद्रामांथी धर्म जागरणमां आवी जा. पछी कोईपण अवस्था तने सतावशे नहिं, सदा सुख अने शांति तने छोडशे नहिं, पूरेपूरा आनंदने अनुभवनारो बनी जईश माटे आजने आज तुं विचार कर. तुं कोण छु, कयांथी आव्यो छु, अहिं आवता पहेलां तुं क्या हतो. अनंत काल कई स्थितिमां केवी केवी रीते भटकयो. चारे गतिमां पैराधीनपणे केटला केटला दुःखो तें सहन कर्यां, जन्म पहेलां गर्भकालमां नव नव मास केवा दुःखो भोगव्यां. तेटलो काल बीभत्स स्थानमां ऊंघे मस्तके रहेला एवा तारी कई कई दशाओ थई. केवा मलीन आहारो तें कर्यां, कर्माधीन तें केटलुं सहन कर्यु, जन्म वखते तारी केवी तुच्छ दशा थई. भवो भवमां अनेक दुःखो सहन करी पापमां मस्त बनी जे मेळवेली सामग्रीमांथी तुं साथे | लई आव्यो, शुं करवा आव्यो छु. शुं करी रह्यो छु. विषयोनी वासनामां भान भूलेल आत्मा कर्म भोगवती वखते तारी शुं दशा थशे, Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्री वैराग्य शतक तेनो तुं आजने आज विचार कर. सो वर्ष पहेलाना अहिं कोई देखाता नथी. जातस्य ध्रुवं मृत्युं तो ते कयां गया, शुं लई गया. केवी दशामां गयां. तेओना शरीरनुं शुं थयुं, तेमनी साथे कोण गयुं, तेओनी मालमिल्कतनी शी दशा थइ, तेमना नाम निशान पण क्यां गयां. ते तरफ तुं दृष्टि कर. तो क्षण पछी तारे शुं थशे तेनी तने खबर नथी. पचास सो वर्ष थतां तारे पण जवू पडशे. 'God's mill grinds slow but sure. - तो तुं कयां जईश. निर्दोषने त्रास आपी. असत्योनी जाळो बीछावी, विश्वासुओने ठगीने अन्याय अने प्रपंचोथी मेळवेली सामग्रीमांथी साथे शुं लई जईश. त्यां तारूं शुं थशे, व्याधि के मरण वखते अहिं पण कोई तने शरण आपी शके तेम नथी तो परलोकमां ए क्यां अने तुं कयां? ज्यां भेगा मळवापणु पण नथी तो तारी दुर्दशामां भागीदार कोण थशे तेनो तुं आजने आज विचार कर. पौद्गलिक (धन अने विषय) सामग्री गमे तेटली मळी जाय, जेम रंक राजा बनी जाय तो पण तेने संतोष थतो नथी अने अधिक अधिक धन माटे महा पापो करी लोमान्धो नैव पश्यति दुर्दशा भोगवे छे तेमज विपुल भोगो मळवा छतां शांति नहि पामतो Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैराग्य शतक १४७ आत्मा अधिक अधिक वार दुष्टता सेवे छे जेथी विषम दशाने प्राप्त थतो दुःखनो ज अनुभव करी मानवताने वेची भवो भव रखडे छे, तेम आ आत्मा गमे तेटलुं मळे तो पण धरातो ज नथी. जेम जेम भोगो वधता जाय छे तेम तेम तृष्णा वधती ज जाय छे अने अंते कंचन अने काम माटे दुर्ध्यानथी मरी दुर्गतिमां भयंकर दुःखोनो अनुभव करे छे. माटे आ मानव भव थोडा कालना अने अंते नाश थनारा तुच्छ विषयोनी पाछळ महा पापो करी तारा भावि अनंत कालने भयंकर न बनाव पण सम्यक् धर्मनी आराधना वडे सकल दुःखोनो नाश करी तारूं साचुं सचिदानंद स्वरूप प्राप्त कर. मानव भव पांच पचास वर्षना एक भवना ज सुख माटे नथी पण सामे रहेल अनंत कालने सुधारी लेवानुं (सरवैयुं काढवानु) अमूल्य साधन छे ते तुं भूली न जा. आज, कालने जवाबदार छे. माटे काल न बगडे तेनो तुं आजने आज विचार कर, माटे विवेकी बनी शरीर धन काम भोगादि पुद्गल सामग्रीनी तृष्णा छोडी तारा स्वरू पनो विचार कर. सुख तारा स्वरूपमां छे, बहारथी नहि मळे, बीजानो दोष जोवामां राची माची रहेलो तुं तारा पोतामां रहेला अनेक दोषो तरफ दृष्टि कर. जागवाना स्थानमां प्रमाद न कर, रोगो जरा अने मृत्यु (शत्रुओ) तारो Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्री वैराग्य शतक विनाश न करे ते पहेला चेती जा-बे त्रण दिवसनी मुसाफरीमां पण आत्मा दुःखी न थाय ते माटे अनेक सामग्री साथे लेनार तें लांबा काळनी परलोकनी मुसाफरी माटे भातु शुं लीधुं ते विचार अने मानव भव सुधारी ले. बाहिर दृष्टि देखतां, बाहिर मन धावे, अंतर दृष्टि देखतां, अक्षय पद पावे. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादक तथा प्रेरक : पं. कुन्दकुन्द विजय गणि छरी पालित तीर्थ यात्रानो प्रभाव छन्द-उपेन्द्रवज्रा छरी पालता तीर्थ यात्रा करे जे खपे कर्मना पुंज तेना तरे ते वधे तीर्थ शोभा जिनाज्ञा पळाये / _टले पाप बुद्धि सुबुद्धि सदाये // 1 // छन्द-इन्द्रवज्रा मार्गे जता वृक्ष अनेक आवे छाया ग्रहीने सहु शान्ति पावे गेहे जता जे तरु याद आवे ते वृक्ष माहे अधिको कहावे // 2 // छन्द-उपेन्द्रवज्रा जगे जेहनो ब्रह्मचर्य प्रभाव तपागच्छ राजा रवीन्दु स्वभाव सदा तीर्थ उद्धार कारी विरागी नमु नेमि सूरि प्रभाते सुभागी // 3 // शाह नथमलजी प्रतापजी तोगानी परिवार गुडाबालोतान् ना सौजन्यथी