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श्री वैराग्य शतक
विवेचन - हे आत्मन् ! स्त्रीना हाथना चाळा - लटका मटका-अंगमरोड-हावभाव जोईने एमां मोहातो नहिं, तात्विक द्रष्टि विचार करजे. तो तने लागशे के आ तो काम पिशाचना चाळा छे. भूतावेश थाय ने जेम तेम धुणे डोले - बोले एवं आ छे. आ घरेणां भारभूत छे, हाथमां कंगण अने पगमां झांझर, एने बेडीरूप छे. गळामां हार ए हार नथी, पण मारनो - कामदेवनो फांसो छे. नाकमां नथनी ए नाथ छे, तने पशु समजी नाथ्यो छे. आ वेश जोई विचारजे, के ए जाळ छे, इन्द्र जाळ - माया एमां मुंझातो नहिं. भले ए गति - चाल हंसना जेवी होय के गज- हाथीना जेवी, भले ए चालमां रुमझुम-रूमझुम, ठमक - ठमक मीठो अवाज होय, पण तारे माटे भयरूप छे. एमां आसक्त थयेल कैंक प्राणिओ दुःखना दरीयामां डूबी मर्या, माटे सर्व संकटना कारणभूत स्त्रीथी हे चेतन ! चेतीने चालजे (२५)
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(२६-२७) अशुचि - दुर्गन्धि - मळमूत्रथी भरेल
नारीना देहमां राग न करवा उपदेश
दूर रहेली अल्पमात्र पण दुर्गन्धि देखी दुहवाय, मुख मरडे ने नासिकाने ढांकी झटपट दूरे जाय, ते दुर्गन्धिथी ज भरेलो शुं नव नारी देह जणाय सर्व दुःखनुं साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने च्हाय. अस्थि मज्जा आंतरडा ने रुधिर मांस तणो भंडार