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________________ ३७ नि श्री वैराग्य शतक चर्मस्नायुमलमूत्रतणी कोठीमां शो लागे छे सार. अशचि ने अस्थिर पदार्थोना फांसामां कोण फसाय, सर्व दुःखनुं साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने च्हाय. विवेचन-चेतन ! जरी विचार कर, आंखो उघाडीने जो, जरा दुर्गन्धि होय, खराब वास आवती होय-बदबो मारती होय, संडास के खाळना बारणा खुल्ला होय, त्यांथी पसार थतां माधुं फरी जाय-मोढुं मरडाय, नाक दाबीने थोडीवार श्वास लेवानुं पण बंध राखीने एटलो रस्तो एकदम पसार करी, दूर जाय छे, पण जो-विचारी जो जे स्त्रीमां तने राग थाय छे, ते देह-शरीर शुं छे. दुर्गन्ध- संग्रहस्थानबारस्थानेथी निरन्तर अशुचि वह्याज करती खाळ उपरना रूपमां मुंझा मा. अंदर जो तो कांई नहि देखाय. मल्लिनाथस्वामिने परणवा छ मित्रो आवेल. पोताना जेवी ज पोली-पुतळीमां हमेश आहार नाखवामां आवतो, ए एकदम गंधाई उठेल, छए जण आव्या त्यारे ते पुतळीनी उपरनुं ढांकण खोली नाखवामां आव्युं, माथु फाटी जाय एवी दुर्गन्ध वछुटी. बधाए ढांकण एकदम बंध करवा कह्यु, मल्लिकुंवरीए समजाव्यु के:-आमां-ने मारा देहमां शुं फेर छे? ए पण आहारनो विकार छे, आ देह पण आहारनो विकार छे, छए प्रतिबोध पाम्या-समज्या वैराग्य वासित थया. हे चेतन ! तुं पण एज विचार कर, स्त्री- शरीरमांस-मेद-मज्जा-लोही ने हाडकाथी भरेल, चामडाथी
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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