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श्री वैराग्य शतक एनी कामणगारी आंख-ए मोहे धनुषनी पणछपर चढावेलु बाण छे, ते तारा हैयामां भोंकाशे तो तुं ढळी पडीश. ए पण साधारण नथी, पण झेर पायेलुं छे, तेनुं तने झेर चडशे. ए उतार्यु नहिं उतरे. तने रीबावी रीबावीने मारशे स्त्रीनी आंख माटे एक कविए कह्यु छे के
अमी हलाहल मद भरे, श्वेत-श्याम कचनार, जीवत-मरत झुकी झुकी परत, जही चितवत इकवार. __ अर्थ-स्त्रीनी आंखमां त्रण रंग छे, तेमां सफेद रंग ए अमी-अमृत छे. बीजो श्याम-काळो छे ते हलाहल-झेर छे, ने त्रीजो कचनार-पीळचटो छे ते मद-मदिरा-दारू छे. स्त्री एक वखत ज विचार करे के मारे सामाने जीवाडवो छे. मारवो छ ने उन्मत्त-गांडो-उल्ल बनाववो छे तो तेने वार न लागे, आंख मारे एटली ज वार.
माटे हे भोळा ! हे जीव ! स्त्रीथी दूर रहे एना फंदामां न फसाय. (२४) (२५) स्त्रीना हावभाव अने वेष भूषामां मोह
पामतां जीवोने उपदेश. हावभाव हस्तादिकनो ते कामपिशाचतणो आवेश, आभरणो छे भारभूत ने इन्द्रजाळ समो छे वेश. चाल विगेरे जोतां जीवो कैक दुःखने दरीये जाय, सर्व दुःखनुं साधन एवी स्त्रीने चेतन ! शाने च्हाय.