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श्री वैराग्य शतक
(२६) . अत्यन्त निर्गुण छु प्रभो ! हुं क्रूर धुं हुं दुष्ट छु, हिंसक अने पापे भरेलो सर्व वाते पूर्ण छु, विण आप आलंबन प्रभो ! भवभीमसागर संचरूं, मुज भवभ्रमणनी वात जिनजी ! आप विण कोने करूं?
(२७) मुज नेत्र रू प चकोरने तुं चन्द्ररू पे सांपडयो, तेथी जिनेश्वर आज हुँ आनंद उदधिमां पड्यो, जे भाग्यशाळी-हाथमां चिंतामणी आवी चडे, कई वस्तु एवी विश्वमां जे तेहने नव सांपडे.
। (२८) - हे नाथ ! आ संसार सागर डूबता एवा मने , मुक्तिपुरीमां लई जवाने जहाजरूपे छो तमे, शिवरमणीनां शुभसंगथी अभिराम एवा हे प्रभो ! मुज सर्व सुखनुं मुख्य कारण छो तमे नित्ये विभो !
जे भव्य जीवो आपने भावे नमे स्तोत्रे स्तवे, ने पुष्पनी माला लईने प्रेमथी कंठे ठवे, ते धन्य छे कृतपुण्य छे चिन्तामणी तेने करे, वाव्यो प्रभो ! निजकृत्यथी सुरवृक्षने एणे गृहे.
(३०) हे नाथ ! नेत्रो मींचीने चलचित्तनी स्थिरता करी,