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________________ १३५ श्री वैराग्य शतक (२६) . अत्यन्त निर्गुण छु प्रभो ! हुं क्रूर धुं हुं दुष्ट छु, हिंसक अने पापे भरेलो सर्व वाते पूर्ण छु, विण आप आलंबन प्रभो ! भवभीमसागर संचरूं, मुज भवभ्रमणनी वात जिनजी ! आप विण कोने करूं? (२७) मुज नेत्र रू प चकोरने तुं चन्द्ररू पे सांपडयो, तेथी जिनेश्वर आज हुँ आनंद उदधिमां पड्यो, जे भाग्यशाळी-हाथमां चिंतामणी आवी चडे, कई वस्तु एवी विश्वमां जे तेहने नव सांपडे. । (२८) - हे नाथ ! आ संसार सागर डूबता एवा मने , मुक्तिपुरीमां लई जवाने जहाजरूपे छो तमे, शिवरमणीनां शुभसंगथी अभिराम एवा हे प्रभो ! मुज सर्व सुखनुं मुख्य कारण छो तमे नित्ये विभो ! जे भव्य जीवो आपने भावे नमे स्तोत्रे स्तवे, ने पुष्पनी माला लईने प्रेमथी कंठे ठवे, ते धन्य छे कृतपुण्य छे चिन्तामणी तेने करे, वाव्यो प्रभो ! निजकृत्यथी सुरवृक्षने एणे गृहे. (३०) हे नाथ ! नेत्रो मींचीने चलचित्तनी स्थिरता करी,
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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