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श्री वैराग्य शतक रमीश सुखकर संयमे क्यारे प्रभो ! आनंदथी.
(२२) गतदोष गुणभंडार जिनजी ! देव म्हारे तुं ज छे, सुरनरसभामां वर्णव्यो जे धर्म म्हारे तेज छे. एम जाणीने पण दासनी मत आप अवगणना करो, आ नम्र म्हारी प्रार्थना स्वामी तमे चित्ते धरो. -
(२३) षड्वर्ग मदनादिक तणो जे जीतनारो विश्वने अरिहंत ! उज्ज्वल ध्यानथी त्हेने प्रभु जीत्यो तमे, अशक्त तुम प्रत्ये हणे तुम दासने निर्दयपणे ए शत्रुओने जीतुं एवं आत्मबळ आपो मने .
(२४) समर्थ छो स्वामी ! तमे आ सर्व जगने तारवा, ने मुज समा पापी जनो नी दुर्गतिने वारवा, आ चरण वळग्यो पांगळो तुम दास दीन दुभाय छे हे शरण ! | सिद्धि विषे संकोच मुजथी थाय छे ?
(२५) तुम पादपद्म रमे प्रभो नित जे जनोनां चित्तमां सुर इन्द्र के नरइन्द्रनी पण ए जनोने शी तमा ? त्रण लोकनी पण लक्ष्मी एने सहचरीपेठे चहे, सदगुणोनी शुभगन्ध एना आत्म माहे महमहे.