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________________ १३३ श्री वैराग्य शतक छो बुद्ध ने आ विश्वत्रयना छो तमे नायकपणे ए कारणे आन्तर रिपु समुदायथी पीडेल हुँ, हे नाथ ! तुम पासे रडीने हार्दनां दुःखो कहुं. (१८) अधर्मना कार्यो बधां दूरे करीने चित्तने, जोडुं समाधिमां जिनेश्वर ! शान्त थै हुँ जे समे, त्यां तो बधाये वैरीओ जाणे बळेला क्रोधथी, · महामोहनां साम्राज्यमां लई जाय छे बहुजोरथी. . . (१९) - छे मोह आदिक शत्रुओ म्हारां अनादि काळना, एम जाणुं छु जिनदेव ! प्रवचनपानथी हुं आपना तो ये करी विश्वास एनो मूढ में ढो हुँ बर्नु. ए मोहबाजीगरकने कपिरीतने हुं आचरूं (२०) ए राक्षसोनां राक्षसो छे क्रूर म्लेच्छो एज छे, एणे मने निष्ठुरपणे बहुवार बहु प्रीडेल छ, भयभीत थई एथी प्रभु ! तुम चरण शरणुं में ग्रह्यु जगवीर ! देव ! बचावजो में ध्यान तुम चित्ते धर्यु. (२१) कयारे प्रभो ! निज देहमां पण आत्मबुद्धिने तजी, • श्रद्धाजळे शुद्धि करेल विवेकने चित्ते सजी, सम शत्रु मित्र विषे बनी न्यारो थई परभावथी,
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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