SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री वैराग्य शतक ११९ संसार लाकडानो लाडवो छे. एमां कांई मजा नथी. कोई माणसो संसारने स्वर्ग गणावे छे, कहे छे के:-मोटा मोटा महेलो रहेवाने, विनयवन्त ने आज्ञांकित पुत्रो, अखूट लक्ष्मी, सेवा करती अने सुख-दुःखमां भाग लेती स्त्री - पत्नी क्षण पण छुटा न पडे एवां मित्रो, खावुं पीवुं, एशआराम, मोजमजा ए सर्व संसारमां छे. संसारने ज सर्वस्व मानी - मनावी, कैंक जन संसारमां पडे छे ने पाडे छे तेथी ऊलटुं कोई सज्जनो ! आ बधुं क्षणिक छे, आपात रमणीय छे. परिणामे दुःखदायी छे. एम समजी संसारनी मायाजाळमां फसाता नथी, संसारने नरक समजी तेमांथी नीकळी जाय छे. संतोना चरणनुं शरण ले छे, संत बने छे. परम सुख मेळवे छे. माटे हे आत्मन् ! तुं पण ए संतोने ज· अनुसरजे, मोहमां मुंझातो नहिं जीवनने सार्थक करवा एक समयने पण प्रमादमांं गुमावतो नहि, आत्मकल्याण करी परमपदना अविचल आनंद पामी अनंत सुख मेळवजे. (८९ थी ९३ ) ॥ इति झटित्यात्मश्रेयस्करणप्रेरणाधिकारः ॥ अथात्महितकरविचारणानिस्पणम् । (९४ थी १००) आ सात श्लोकमां आत्म विचारणा बताववामां आवे छे, आमां आत्मा क्रमिक विकासनी इच्छा करे छे, शार्दुल विक्रीडित जेवा उदार छंदमां आत्मविकासनी
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy