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________________ १२६ श्री वैराग्य शतक विशुद्ध-स्वच्छ ने निर्मळ थईशें, पछी संसारनी कोईपण माया अमने मुंझवशे नहिं. संसार समुद्रना कोई वमळमां अमे फसाईशुं नहिं. दुनियानी कोईपण लालचमां लपटाशुं नहि अने ए दशामां आत्माने जागृत राखीने आत्माने सर्व बंधनोथी मुक्त करवा विचार करीशुं ने प्रयत्न सेवीशुं. छठ्ठा श्लोकमां आत्मानी परमोच्च स्थिति ने अनशन दशा प्राप्त करवानी विचारणा छे. ज्यारे आत्मा संसारना सर्व मोहथी मुक्त बनशे पछी छेलं जीवन सिद्धिगिरीजी गिरिनारजी जेवा परम पवित्र पर्वत पर जईने वीतावीशुं, ज्यां अनंत आत्माओए मोक्ष मेळव्यु छे, एवा उन्नत शिखर पर रही, कायाने - शरीरने वोसरावी दईशं, शरीरने गमे ते थाय तेनी परवा नहिं करीए, आत्मामां सिद्धना गुणोनुं ज चिंतन करीशुं, मिथ्या-विकल्पो एक पण मनमां न आवे तेनी काळजी राखी सिद्धनी साथे तन्मय थईशुं, देवताना, माणसोना के पशुओना गमे तेवा उपसर्गो थाय तो पण सिद्धना ध्यानथी चलायमान नहिं थईए, शांतभावे सर्व परिसहो सहन करीशं, वासी चंदन जेवा थईशं, जेम बावना चंदन पोताने कापनार पोताना पर प्रहार करनार कुहाडीने पण सुगंधी बनावे छे. तेम अमे पण अमने दुःख देनारने शांत करीशु. अमारां शत्रुओ पण अमारी शांत
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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