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. श्री वैराग्य शतक
१२७ दशा देखी शांत बनशे, अमारा आगळ मोर ने साप साथे नाचशे, उंदर बिलाडीनी पुंछडी आमळशे, बकरी वाघनुं मोढुं चाटशे, हरण ने सिंह सामसामा बेसी वातो करशे, देवो अने दानवो परस्पर भेटशे, अमारी शान्तिथी बधा उपर असर थशे. जीवमात्र अमारी दृष्टिमां वैरभाव छोडी देशे, अमे शांत थईशुं अने बीजाने शांत करीशुं.
सातमा श्लोकमां तेरमा-चौदमा गुणस्थानके
चड़ी मुक्ति मेळववानी भावना छे.
उपर बताव्या प्रमाणेनी अमारी ज्यारे प्रशान्तवृत्ति थशे. एटले अमे गुणस्थानकनी श्रेणी उपर चडीशुं, चारे प्रकारना कषायनो नाश करीशुं, क्षपक श्रेणिए आरोहीशुं, उत्तरोत्तर शुक्लध्यान वधारे वधारे विशुद्ध ध्याइशें, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीयने अंतराय ए चारे घाति कर्मने चकचूर करीशुं. घाति कर्मनो नाश करी केवळज्ञान मेळवीशं. तीर्थंकर पदवी वरीशं. समवसरणमां बेसी देशनां देशुं सहज पण ग्लानि धार्या वगर उपदेश आपी भव्यात्माओनो उद्धार करीशुं, शुक्ल ध्याननी मध्य धाराए आत्माने स्थापन करी धर्म प्रवृत्तिमांज राच्या रहीशं, पछी छेवटे मन वचन कायाना सर्व योगो, रुंधन करी बाकी रहेलां बधां कर्मोनो क्षय करी, पांच हुस्वाक्षर बोलाय तेटला