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श्री वैराग्य शतक
बताववानो तेने विचार थयो, ने बधाने बोलाववा गयो. एटलामां सेवाळ भेगी थई गई ने छीद्र पूराई गयुं. शुं फरी पूनमनीज राते सेवाळ दुर थाय ने काचबो त्यां होय ने चंद्रमाने जोवे ? ना ए बनवुं अश्क्य छे; छता पण समजो के ए बनी जाय, परंतु पुण्योपार्जन कर्या वगर हारी गयेल मानव जन्म फरी मळवो अशक्य छे. (१०)
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( ११ ) द्रष्टान्त नवमं 'युग अने समोल 'नुं पूर्वपयोधिमांहे समोलने धोंसरी पश्चिम जलधिमांय, दुर्धरकल्लोले खेंचाता कोइकसमये भेगा थाय. वळी समोल स्वयं ए युगनां विवरविषे पण पेसी जाय, पण सुकृत विण गतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय
विवेचन-गाडामां बळदने खांधे जे धोंसरी मुकवामां आवे छे, तेने संस्कृतमां 'युग' कहे छे. तेमां एक छिद्र होय छे, बळद आघो पाछो खसी न जाय माटे ते काणांमां एक लाकडानो टुकडो नाखवामां आवे छे तेने 'समोल' कहे छे. कोइ कुतूहली देव एक धोंसरी अने समोलने छुटा छुटा करी, लवण समुद्र के स्वयंभूरमण समुद्रना पूर्व अने पश्चिम भागमां नाखे, ते बंने समुद्रना मोजाथी उछळता खेचाता खेंचाता भेगा थाय अने आपो आप समोल (लाकडानो कटको) धोंसरीना छिद्रमां पेसी जाय, ए बनवुं बहुज मुश्केल छे कदाचित् ए बने, पण