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श्री वैराग्य शतक
१०७ सौरभ-सुवास प्रसरे छे. तेनी पांखडीओ, तेनो ओछो लालरंग उज्जवळ रूप, आंखने एकदम आकर्षी ले छे. ते जोवामां चक्षुओ चोंटी जाय छे. तेनो स्वाद पण जीभने मिष्ट लागे छे, स्पर्श पण कोमळने रेशम जेवो सुंवाळो छे. पण आ बधुं केटला वखतने माटे ! क्षणवारमां तो पलटाई जाय छे, एक रात वीते छे ने ते जोवू गमतुं नथी, ते करमाई जाय छे. तेना रूप-रस-रंग-स्पर्श-गंध बधां फरी जाय छे. जे माथे चडतुं एज पगे चगदाय छे. हे चेतन ! आ गुलाबना पुष्पनी ज आ स्थिति छे, एम न समजतो. बधानी एज स्थिति छे, आ समृद्धि-धन सम्पत्ति आजे छे ने काले नथी-सांजना वादळानी माफक तेने वीखरतां वार लागती नथी. आ जीवन ए पाणीना परपोटाना जेतुं छे. एने फुटतां वार नही लागे जोतजोत्तमां फूटी जशे. जीवनदशा पूरी थशे. आ युवानी ए पण चाली जशे. तुं ज, कहे ए केटला वरस रहेशे ! पांच पच्चीश वर्षमां तुं जुवान मटी बुढो बनीश. ए जवानी छे माटे जवानी ज. ए नक्की छे, माटे हे आत्मन् ! विचार करीने कहे के आ विनश्वर वस्तुमां मोहावु ए हितकर छे ! के एनो मोहत्यागी हित करवा तैयार थq ए! कल्याण करवा उभा थवं, आत्माना श्रेय माटे कटीबद्ध थq, एज उचित छे. आजे जे देखाय छे तेमांनुं काले कांई नहिं होय माटे सधाय तेलुं साधी लो ने आत्माने सुखी बनावो (८१-८२)