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श्री वैराग्य शतक तेनी पाछळ पडीने घणा पशुओए प्राण खोया छे. संसारमा एवी भोगतृष्णा छे, एनी पाछळ भमतां प्राणीनो आरोज आवतो नथी. एमां ने एमाए खुवार थाय छे. अटवीमां जेम आराम न होय. शुं थशे ! कोई खाई जशे तो ! वाघ वरू वगेरेनो भय, वींछी साप अजगर-आदिनी बीकथी चित्त शान्त न रहे. तेम संसारमां पण आधिव्याधि उपाधिथी क्षण पण आराम नथी. एक वात पते नहिं त्यां बीजी जागे, 'मा छंवडुनी माफक एक पछी एक चिन्ता उठतीज होय, आवा दुःखदायि संसारथी छुटवा कोण न इच्छे ? कोने वैराग्य न थाय संसारना जुदा जुदा चितार विचारवा माटे श्री यशोविजयजी उपाध्यायजी महाराजे रचेल 'अध्यात्मसार' नो बीजो ‘भव स्वरूप चिंता' अधिकार खास वांचवा भलामण छे. आवा-भयंकर भववनथी भय पामता आत्माने वैराग्यनी शीळी छांयज शांति आपनार छे. माटे तेना आश्रये जवू ने भीतिथी बचq. (३८)
- (३९) चोथी एकत्व भावनाज्ञान-दर्शन-चारित्रस्वरूपी एक ज आत्मा छे नि:संग, बाह्य भाव छे सघळां एमां स्वामीयतानो नहीं छे रंग, जन्म जरा मृत्यु ने कर्मफळोनो भोगवनारो एक, एम विचार करता जाग्यो नमिराजने चित्त विवेक.
विवेचन- 'एगो हं नत्थि मे कोइ' एक