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________________ श्री वैराग्य शतक ॥ अथ संसारासारता = वर्णनोधिकारः ॥ ( हरिगीत ) (५३) चेतन ! प्रमोदनो त्याग कर : असार आ संसारमां नथी सौख्य के शान्ति जरी आधि उपाधि व्याधिओथी आ बधी दुनिया भरी. एम जाणतो पण जीवतुं आळस अरे रे, केम करे ? कल्याणकारी धर्म जिननो केम तुं नव आदरे ? ७७ विवेचन - हे जीव ! हे आत्मन् ! तुं आळस केम करे छे, प्रमादमां शा माटे पडयो रहे छे. तारे सुख जोईए छे ने, तुं शान्तिने इच्छे छे ने, ए आ संसारमां नथी, संसार असार छे. दुःख विना बीजुं कांइ त्यां नथी, दुनियामां द्रष्टि नाख कोईने मनमा संताप. कोईने कुटुंबना उपताप तो कोईने शरीरे रोगनी महापीडाओ, दुःख - यातना सिवाय कांई नजरे नहिं चडे. ए देखवा छतां एथी डरवा छतां एमां ने एमां केम पडी रह्यो छे उठ ! ऊभो था ! आळसने खंखेरी नाख, तने बचावनार - दुःखथी छोडवनार, कल्याणकारि श्री जिनेश्वर प्रभुनो धर्म छे. तेनुं शरणुं ले ! तेनी आराधना कर एमां आदर श्रद्धा राखी उद्यम कर ने सुखी था. (५३) (५४) भोग अने विलासना विचारोमां आयुष्यने न गुमावो
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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