________________
७६
श्री वैराग्य शतक तो विचारो के - ए जीव प्रबल कर्मने आधीन छे. करुणापात्र छे. पण तमारा मनने मलिन न करो, सर्व शक्तिमान्-वीतराग परमात्मा पण पराणे धर्म करावता नथी. तीर्थंकर भगवन्तो एकांत हितकारिणी देशनां देता होय छे. जे कदी अफळ नथी जती छतां केटलांक महाकर्मी आत्माओने ए नथी रूचती. एथी शुं ! प्रभुने ए आत्माप्रत्ये न तो अरुचि थाय न तो राग थाय मध्यस्थभाव उदासीनता, तटस्थवृत्ति केळववी घणी ज मुश्केल छे. जेटली मुश्केल छे एटली ज केळवाया बाद लाभदायक छे. संसारमा शिव सुखना आस्वादनी छाया आ उदासीन भावमां रहेली छे. आ भावना केळवाय एटले भवचक्रना परिभ्रमणनी पूर्णता थाय छे. सर्वे समभावमां मध्यस्थ्य भावनामां लीन बनो ने परमपदने पामो.
मैत्री, प्रमोद, कारुण्य अने मध्यस्थ्य ए चार भावना जेणे साधी तेणे सघर्छ साध्युं छे, ए सिवायर्नु सर्व अफळ छे. उखर भूमिमां खारापाटमां अनाज वाववा जेवू छे, ए ऊगे तो नहि पण वावेलुं एळे जाय. एज प्रमाणे भावना वगर जे कांई करवामां आवे ए बधुं नकामु जाय छे, माटे अंत:करणने भावनाथी रंगी शुद्ध बनावी धर्म-आत्महित करवामां प्रयत्नशील थq. इति 'वैराग्यशतके' भावनास्वरूप - विवेचकः
परिच्छेदः परिपूर्णः ॥