SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री वैराग्य शतक ॥ अथ वैराग्यशतके भावनाधिकार- प्रारभ्यते ॥.. (३५) स्त्री आदिमां मोह करावनार विभावदशा छे ने ते विभावदशा वीतराग परमात्माना वचनथी नाश पामे छे. माटे ते वचन- माहात्म्य बतावे छे.सुवर्णवेधकरसने योगे लोह कनकता पामे जेम, ज्ञानी भाषितभावनाभावित चेतन निर्मळ थाये एम. मन्त्रप्रयोगे झेरी नागतणुं पण शुं नव झेर हणाय, कइ विभावरमणता एवी ? जे जिनवचने नष्ट न थाय. विवेचन-चेतनने निर्मळ बनाववो होय, आत्माने विभावदशामांथी स्वभावदशामां लाववो होय तो भगवन्ते भाखेली ने भावेली भावनाओ भावो, भावनानी विचारणा करो जेम लोढुं सुर्वणवेधकरसथी सोनुं थई जाय छे. तेम भावनाना प्रभावे आत्मा विशुद्ध बने छे गमे तेवा डंखीला झेरीला नागनुं झेर मन्त्रना प्रयोगे ऊतरी जाय छे. तेम सर्व विभाव रमणता जिनेश्वर प्रभुए बतावेल भावनाथी चाली जाय छे. भावनाओ बधी मळी १६ छे. तेमां १२ सामान्य भावना छे, ने चार महाभावना छे, आगळ अनुक्रमे सोळे भावनाओनुं स्वरूप बतावाशे. भावनाथी ज भव्य भव समुद्रनो पार पमाय छे, भावनाथी ज आत्मा सर्व दुःखथी मुकाय छे, भावनाथी ज चेतन शिव सुख़ ने मेळवे-छे,
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy