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________________ ५२ श्री वैराग्य शतक भावनाथी ज जीव जगतनी जन्जाळथी छुटे छे, भावनाथी ज प्राणी निबिह पाप ने प्रजाळे छे, भावना भवनाशिनी माटे भावना भावो. भावना भाव्या वगर छुटको नथी. केम भाववी ? एम. जो पुछता हो ! तो आगळ ते बताव्युं छे. ते समजो विचारो ने आत्माने भावनाना विचारोथी रंगी द्यो. पछी पछी शुं ! जोई ल्यो एनी मझा, तमनेज जणाशेदेखाशे के कयां खाबोचीयानी दुर्गन्धमां सडतो हंस ! अने कयां मानसरोवरना मोती चरतो हंस ! भावनाथी आत्मानी पूर्णता खील. एने बधुंय पोतामां भर्युं छे एवं भासशे, एथी ए स्थिरता ने शाश्वत दशा पामशे (३५) ( ३६ ) प्रथम अनित्य भावना आयु वायु तरंग समुंने संपत्ति क्षणमां क्षीण थाय, इन्द्रिय गोचरविषयो चंचलसन्ध्यारंगसमान जणाय. मित्र वनिता स्वजनसमागमइन्द्रजालनेस्वप्न समान, कइ वस्तु छे स्थिर आ जगमां जेने इच्छे जीव सुजाण. विवेचन-जीव मानी बेठो छे, संसारना सुखने शाश्वत-तेने मळेल सामग्री कदी पण जवानी नथी, एवो एने मिथ्या मोह छे ने ए एना दुःखनुं मोटुं कारण छे. ए हृदयमां आ अनित्य भावना भावे तो तेनो भ्रम भांगी जाय, शान्तपणे
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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