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श्री वैराग्य शतक विकृति छे, तेने वर्जीदे, काय क्लेश सहन कर, आतापना ले. लोचादि कष्टोथी डर नहिं. एथी शरीरनी मूर्छा ओछी थशे, इन्द्रियो गोपव, तेने उन्मादमां न मुक, तेनुं दमन कर, आ बारे तप तने निर्झरा भावनामय करशे, तप रूप वज्रथी मोटा पहाड जेवां कर्मना जथ्थाओ भांगीने भुक्का थई जशे, तेनुं चूर्ण थई ते कयांय उडी जशे. तुं हळवो, फुल जेवो थई जइश, लब्धिओ रिद्धिसिद्धिओ तो तने एनी मेळे आवी मळशे, गाय, ब्राह्मण, स्त्री ने बाळक एम चार चार महाहत्या करनार द्रढप्रहारी जेवा पण तपने प्रभावे निर्झर भावनाने बळे मोक्षमां पहोंची गया. तो तारे चिन्ता शी ! तुं तो एवो पापी नथी. बस हृदयथी निर्झरा भावनाने तपने आराध ने कल्याण कर. (४५).
(४६) दशमी धर्म भावनासूर्यचन्द्र उगे ने, वरसे जलधर, जग जळमय नवथाय. श्वापद जनसंहार करे नहीं वह्निथी नव विश्वबळाय, श्रीजिनभाषित धर्मप्रभावे इष्टवस्तु क्षणमां य पमाय, कसगाकर भगवन्तधर्मने कोण मूर्खमनथी नवच्हाय,
विवेचन-कारण वगर कार्य न ज थाय' ए सनातन सिद्धान्त छे. सूर्य ने चंद्र नियमित उगे छे ने प्रकाश करे छे. तेनुं कारण शुं ! नारकीनी माफक अहिं अंधकार सदाकाळ नथी रहेतो ए शाथी ! वखतसर वादळां वरसे छे,