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________________ ६४ श्री वैराग्य शतक (४५) नवमी निर्झरा भावना तप्तवह्निनां ताप थकी जेम स्वर्णमेल ते थाये दूर, द्वादशविघतपथी आ आत्मा कर्मवृन्द करे चकचूर. अणिमादिकलब्धिओ एनुं आनुषङिगिककार्य गणाय, द्दढप्रहारी चार महाहत्याकारी पण मोक्षे जाय. विवेचन - तुं संवरथी नवा आवता कर्मोने तो रोकीश पण तारा आत्मामां अनन्त कर्म पडया छे. तेनुं शुं ! ए कर्मनो कचरो ए कर्मजाळ - कर्मोनी ए निबिड गांठो एमने एम नहिं खसे, ए भोगवतां तारो आरो नहिं आवे, ए दूर करवा निर्झरा भावना भाव, तेनी मैत्री कर, तेनी सेवना कर. एथी निबिड कर्मो बळीने खाख थई जशे . पापोनुं पायश्चित्त कर. गुणिनो विनय बहुमान कर, महात्माओनी सेवा भक्ति कर, सूत्र ज्ञानीना वचनोनुं श्रवण चिन्तन कर, शुभ आलम्बन लईने ध्यान धर, आलम्बन वगर आत्माने ध्याननी धारामां चडाव. कायानी माया छोड़ी नवकार मंत्रना जापमां लागी जा. लोगस्सना मोटा मोटा काउस्सग्ग कर, आगार राखी मर्यादा बांधी चारे आहारनो सर्वस्वनो त्याग कर, भूख करतां ओधुं भोजन ले, ३२ कोळीयाने बदले पांच सात केवळ ओछा खा, इच्छा उपर काबु मेळव. खावानी लालसा ओछी कर, रसनुं वर्जन कर. विकृति घी, दूध, दहिं, गळपण तेल तळेल खरेखर
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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