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श्री वैराग्य शतक ने जती वखते पाछळ-वांसामा लात मारे छे. तुं एवो वांको वळी जाय छे के ताराथी ऊंचं पण जोई शकातुं नथी. माटे हे बधुं ! आ संसारने छोडी दे एमां न फसा ? ज्यां सुधी एमां नथी पडयो त्यां सुधी एम थाय छे के:-एमां कांईक मजा छे, पण एमा पडेलाने पूछी जो के ए केटला पस्ताय छे. ए लाडवो दूरथी पीळो देखाय छे पण एमां कांई नथी. ए लाकडाना जेर - भूसानो लाडवो छे. ए नहिं खावामां ज सार छे, खाधा पछी एप्तावो थशे, स्वाद तो नहि आवे पण ए मोंमां एवो तो पाटो जशे के बीजुं पण तने खावा नहिं दे. मुख साफ करतां तारो दम नीकळी जशे. माटे संसारमा न पड ने शाश्वत सुखना परम साधनभूत संयमने स्वीकार. (७६)
(७७) परने माटे पाप करो छो पण ते भोगववाना तमारेज. एमां कोई भाग नहिं पडावे.
जे कुटुंबने माटे करे छे विविध कर्मो होशथी. पण कर्मने उदये कुटुंबी कोई तुज साथी नथी. आव्यो अरे तुं एकलो ने जइश पण तुं एकलो, ने परभवे दुःखी सुखी वा थइश पण तुं एकलो.
विवेचन-हे जीव ! तुं जनम्यो त्यारे शुं लईने आव्यो हतो ! आ धन, दोलत, कुटुंबपरिवार बधुं शुं साथे लईने आव्यो हतो ? ना, मरीने परभवमां जईश त्यारे आमांगें