SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री वैराग्य शतक १०३ कंईपण तारी साथे आवशे ! ना, त्यारे जे तुं जन्मतां साथे लाव्यो नथी, मरतां साथे लई जवानो नथी. मरीने गया पछी पाछो अहिं जोवाने आववानो नथी. तारो बाप जोवाने नथी आव्यो तो तुं शुं जोवाने आववानो ! जे आदिमां नथी अंते नथी तो थोडा समयने माटे 'मारूं मारूं' करीने शा माटे वचमां दुःखी थाय छे ! एने माटे शा माटे क्रूर कर्म करे छे ! जे कुटुंबने माटे तुं साचां जुठां-आरंभ समारंभ-व्यापार धंधा करे छे. एथी तने महा कर्मो बंधाय छे. संपत्तिनो भोगवटो बधां करे छे पण ए कर्मो तो तारे एकलाने ज भोगववा पडशे. एमां कोई भाग पडाववा नहिं आवे, 'नैगम एक नारी धूती पण, घेबर भुख न भांगी, जमी जमाई पाछो वळीयो, ज्ञानदशा तब जागी' जेवी तारी स्थिति थशे माटे जो परभवमां सुखी थर्बु होय तो अत्यारे ज चेती जा, पारका माटे पापो न कर, पुण्यकरणी कर. धर्माचरण कर ने सुखी था. (७७) (७८) आत्मा एज आत्मानो शत्रु छे ने मित्र छे. तुज शत्रु के तुज मित्र एवी कोईपण व्यक्ति नथी. त्हारा विना आ विश्वमा ए कोई पण शक्ति नथी. संसारमा संसक्त एवो तुंज त्हारो शत्रु छे, स्वभावमां रमतो खरेखर तुं ज त्हारो मित्र छे. विवेचन-हे आत्मन् ! तने आ विश्वमां केटलाएक जीवो शत्रुरूप लागे छे ने केटलाएक मित्र लागे छे. पण
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy