________________
५९
श्री वैराग्य शतक तारूं नथी. ज्यारे तुं यथार्थ समजीश ! के हुं सर्व बाह्य भावथी भिन्न छं. त्यारे बाह्य पदार्थोमां तने जे मारा पणुं छे ए छुटी जशे ने समभाव खीलशे, तारी ममता विदाय थशे ने समता तेने स्थाने आवशे, ने ए समता तने शीघ्र शिवपुरमां लई जशे 'भेदज्ञानान्मुक्ति' ए वेदान्तिओना वचन- रहस्य आ अन्यत्व भावना विशद रीते समजावे छे, आमां तेनो समावेश थई जाय छे. ए भेदज्ञान-अन्यत्व भाव केळववा प्रयत्नशील बनवू ने भवथी छुटवू एज आ भावना- रहस्य छे. (४०)
(४१) छठी अशुचि भावनाछिद्र शतान्वितघट मदिरानो मद्यबिन्दुओ झरतो होय, गंगाजळ्थी धोवे तो पण शुद्ध करी शकशे शुं कोय ? देह अशुचि छे छिदान्वि मलमूत्रादिकनो भंडार, न्हाओ धोवो चन्दन चरचो तो पण शुद्ध नहीं ज थनार.
विवेचन-आत्मा नहिं करवाना कामो शरीरने माटे करे छे ने दु:खी थाय छे. शरीरनो मोह चेतन, चैतन्य नाश पमाडे छे. जीवननो मोटो काळ शरीरनी सेवामां वीते छे. धर्मार्थ शरीरनुं रक्षण कर जोईए तेने बदले शरीरने माटे सर्वस्वनो भोग आपवा तैयार थाय छे. ते शरीरमां छे. शुं ! एनो कदी विचार को शरीर एटले अशुचिनो भंडार, शरीर एटले मळमूत्रादिनो खजानो, शरीर एटले गंधातुं खाबोचीयुं,