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श्री वैराग्य शतक थाय, शा माटे नहिं गांठसे गिर पडा, नहि कीसीसे छीन, देतां देखा ओरको, मुखडा भया मलीन जेवू करे छे, बधेथी आनंद लेतां शीख, बीजाने सारा जोई राजी था, गुणनो प्रेम कर, कोई दान देतुं होय, कोई ब्रह्मचर्य पाळतुं होय. कोई तप करतुं होय, कोई भावना भावतुं होय तो ते जाणी तुं हर्षित था, प्रमुदित था. तारी जीभने कहे के गुणनी प्रशंसा करे. डाही थईने गुणिना गुण गावा लागे कानने कहे के तमे बीजानी कीर्ति सांभळवा , तैयार थाव, अन्यनी प्रशंसा सांभळी संकोचाव नहि पण उंचा थाव आंखने पण बीजानी संपत्ति देखी राजी थवा शीखव, बीजाने सारा काम करतो जोई नेत्रने प्रफुल्लित-विकसित थवा केळव, शा माटे ए आंख बीजा- सारू जोई शकती नथी. केम मींचाई जाय छे. केम फरी जाय छे. एनी ए बधी टेव भूलावी दे. एने कहे के तमे राजी थशो तो तमाराथी हुं पण राजी थईश. तोज मने तमाराथी संतोष छे. गुणानुरागथी-गुण प्रेमथी, प्रशंसाथी आत्मामां गुण आवे छे. गुणी थवानुं परमसाधन गुणने गुणीनी अनुमोदना छे. प्रमोद भावना छे. सर्वे प्रमुदित थाव, सर्वे प्रमोद भावना भावितान्त:करण बनो ने सर्वे परम आनंदमां निमग्न रहो. (५०)
(५१) त्रीजी करुणा भावना
जन्म जरामृत्युनां दुःखो अहोनिश सहेतुं विश्वजणाय तन धन वनिता व्याधिनी चिन्तामां सारो जन्म गमाय,